राजस्थान : एक परिचय
डॉ. कैलाश कुमार मिश्र *
राजस्थान पुत्र गर्भा सदा से रहा है। अगल भारत का इतिहास लिखना है तो प्रारंभ निश्चित रुप से इसी प्रदेश से करना होगा। यह प्रदेश वीरों का रहा है। यहाँ की चप्पा-चप्पा धरती शूरवीरों के शौर्य एवं रोमांचकारी घटनाचक्रों से अभिमण्डित है। राजस्थान में कई गढ़ एवं गढ़ैये ऐसे मिलेंगे जो अपने खण्डहरों में मौन बने युद्धों की साक्षी के जीवन्त अध्याय हैं। यहाँ की हर भूमि युद्धवीरों की पदचापों से पकी हुई है।
प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासविद जेम्स टॉड राजस्थान की उत्सर्गमयी वीर भूमि के अतीत से बड़े अभिभूत होते हुए कहते हैं, "राजस्थान की भूमि में ऐसा कोई फूल नहीं उगा जो राष्ट्रीय वीरता और त्याग की सुगन्ध से भरकर न झूमा हो। वायु का एक भी झोंका ऐसा नहीं उठा जिसकी झंझा के साथ युद्ध देवी के चरणों में साहसी युवकों का प्रथान न हुआ हो।''
आदर्श देशप्रेम, स्वातन्त्रय भावना, जातिगत स्वाभिमान, शरणागत वत्सलता, प्रतिज्ञा-पालन, टेक की रक्षा और और सर्व समपंण इस भूमि की अन्यतम विशेषताएँ हैं। "यह एक ऐसी धरती है जिसका नाम लेते ही इतिहास आँखों पर चढ़ आता है, भुजाएँ फड़कने लग जाती हैं और खून उबल पड़ता है। यहाँ का जर्रा-जर्रा देशप्रेम, वीरता और बलिदान की अखूट गाथा से ओतप्रोत अपने अतीत की गौरव-घटनाओं का जीता-जागता इतिहास है। इसकी माटी की ही यह विशेषता है कि यहाँ जो भी माई का लाल जन्म लेता है, प्राणों को हथेली पर लिये मस्तक की होड़ लगा देता है। यहाँ का प्रत्येक पूत अपनी आन पर अड़िग रहता है। बान के लिये मर मिटता है और शान के लिए शहीद होता है।''
राजस्थान भारत वर्ष के पश्चिम भाग में अवस्थित है जो प्राचीन काल से विख्यात रहा है। तब इस प्रदेश में कई इकाईयाँ सम्मिलित थी जो अलग-अलग नाम से सम्बोधित की जाती थी। उदाहरण के लिए जयपुर राज्य का उत्तरी भाग मध्यदेश का हिस्सा था तो दक्षिणी भाग सपालदक्ष कहलाता था। अलवर राज्य का उत्तरी भाग कुरुदेश का हिस्सा था तो भरतपुर, धोलपुर, करौली राज्य शूरसेन देश में सम्मिलित थे। मेवाड़ जहाँ शिवि जनपद का हिस्सा था वहाँ डूंगरपुर-बांसवाड़ा वार्गट (वागड़) के नाम से जाने जाते थे। इसी प्रकार जैसलमेर राज्य के अधिकांश भाग वल्लदेश में सम्मिलित थे तो जोधपुर मरुदेश के नाम से जाना जाता था। बीकानेर राज्य तथा जोधपुर का उत्तरी भाग जांगल देश कहलाता था तो दक्षिणी बाग गुर्जरत्रा (गुजरात) के नाम से पुकारा जाता था। इसी प्रकार प्रतापगढ़, झालावाड़ तथा टोंक का अधिकांस भाग मालवादेश के अधीन था।
बाद में जब राजपूत जाति के वीरों ने इस राज्य के विविध भागों पर अपना आधिपत्य जमा लिया तो उन भागों का नामकरण अपने-अपने वंश अथवा स्थान के अनुरुप कर दिया। ये राज्य उदयपु, डूंगरपुर, बांसवाड़, प्रतापगढ़, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, सिरोही, कोटा, बूंदी, जयपुर, अलवर, भरतपुर, करौली, झालावाड़, और टोंक थे। (इम्पीरियल गजैटियर)
इन राज्यों के नामों के साथ-साथ इनके कुछ भू-भागों को स्थानीय एवं भौगोलिक विशेषताओं के परिचायक नामों से भी पुकारा जाता है। ढ़ूंढ़ नदी के निकटवर्ती भू-भाग को ढ़ूंढ़ाड़ (जयपुर) कहते हैं। मेव तथा मेद जातियों के नाम से अलवर को मेवात तथा उदयपुर को मेवाड़ कहा जाता है। मरु भाग के अन्तर्गत रेगिस्तानी भाग को मारवाड़ भी कहते हैं। डूंगरपुर तथा उदयपुर के दक्षिणी भाग में प्राचीन ५६ गांवों के समूह को ""छप्पन'' नाम से जानते हैं। माही नदी के तटीय भू-भाग को कोयल तथा अजमेर के पास वाले कुछ पठारी भाग को ऊपरमाल की संज्ञा दी गई है। (गोपीनाम शर्मा / सोशियल लाइफ इन मेडिवियल राजस्थान / पृष्ठ ३)
अंग्रेजों के शासनकाल में राजस्थान के विभिन्न इकाइयों का एकीकरण कर इसका राजपूताना नाम दिया गया, कारण कि उपर्युक्त वर्णित अधिकांश राज्यं में राजपूतों का शासन था। ऐसा भी कहा जाता है कि सबसे पहले राजपूताना नाम का प्रयोग जार्ज टामस ने किया। राजपूताना के बाद इस राज्य को राजस्थान नाम दिया गया। आज यह रंगभरा प्यारा प्रदेश इसी राजस्थान के नाम से जाना जाता है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राजपूताना और राजस्थान दोनों नामों के मूल में "राज' शब्द मुख्य रुप से उभरा हुआ है जो इस बात का सूचक है कि यह भूमि राजपूतों का वर्च लिये रही और इस पर लम्बे समय तक राजपूतों का ही शासन रहा। इन राजपूतों ने इस भूमि की रक्षा के लिए जो शौर्य, पराक्रम और बलिदान दिखाया उसी के कारण सारे वि में इसकी प्रतिष्ठा सर्वमान्य हुई। राजपूतों की गौरवगाथाओं से आज भी यहाँ की चप्पा-चप्पा भूमि गर्व-मण्डित है।
प्रसिद्ध इतिहास लेखक कर्नल टॉड ने इस राज्य का नाम "रायस्थान' रखा क्योंकि स्थानीय साहित्य एवं बोलचाल में राजाओं के निवास के प्रान्त को रायथान कहते थे। इसा का संस्कृत रुप राजस्थान बना। हर्ष कालीन प्रान्तपति, जो इस भाग की इकाई का शासन करते थे, राजस्थानीय कहलाते थे। सातवीं शताब्दी से जब इस प्रान्त के भाग राजपूत नरेशों के आधीन होते गये तो उन्होंने पूर्व प्रचलित अधिकारियों के पद के अनुरुप इस भाग को राजस्थान की संज्ञा दी जिसे स्थानीय साहित्य में रायस्थान कहते थे। जब भारत स्वतंत्र हुआ तथा कई राज्यों के नाम पुन: परिनिष्ठित किये गये तो इस राज्य का भी चिर प्रतिष्ठित नाम राजस्थान स्वीकार कर लिया गया। (डॉ. गोपीनाम शर्मा /राजस्थान का सांस्कृतिक इतिहास / राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर / प्रथम संस्करण १९८९ / पृष्छ ३)।
भौगोलिक संरचना के समन्वयात्मक सरोकार
अगर इस प्रदेश की भौगोलिक संरचना को देख तो राजस्थान के दो प्रमुख भौगोलिक क्षेत्र हैं। पहला, पश्चिमोत्तर जो रेगिस्तानीय है, और दूसरा दक्षिण-पूर्वी भाग जो मैदानी व पठारी है। पश्चिमोत्तर नामक रेगिस्तानी भाग में जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर जिले आते हैं। यहाँ पानी का अभाव और रेत फैली हुई है। दक्षिण-पूर्वी भाग कई नदियों का उपजाऊ मैदानी भाग है। इन नदियों में चम्बल, बनास, माही आदि बड़ी नदियाँ हैं। इन दोनों भागों के बीचोंबीच अर्द्धवर्तीय पर्वत की श्रृंखलाएं हैं जो दिल्ली से शुरु होकर सिरोही तक फैली हुई हैं। सिरोही जिले में अरावली पर्वत का सबसे ऊँचा भाग है जो आबू पहाड़ के नाम से जाना जाता है। इस पर्वतमाला की एक दूसरी श्रेणी अलवर, अजमेर, हाड़ौती की है जो राजस्थान के पठारी भाग का निर्माण करती हैं।
राजस्थान में बोली जाने वाली भाषा राजस्थानी कहलाती है। यह भारतीय आर्यभाषाओं की मध्यदेशीय समुदाय की प्रमुख उपभाषा है, जिसका क्षेत्रफल लगभग डेढ़ लाख वर्ग मील में है। वक्ताओं की दृष्टि से भारतीय भाषाओं एवं बोलियों में राजस्थानी का सातवां स्थान है। सन् १९६१ की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार राजस्थानी की ७३ बोलियां मानी गई हैं।
सामान्यतया राजस्थानी भाषा को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। इनमें पहला पश्चिमी राजस्थानी तथा दूसरा पूर्वी राजस्थानी। पश्चिमी राजस्थानी की मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी और शेखावटी नामक चार बोलियाँ मुख्य हैं, जबकि पूर्वी राजस्थानी की प्रतिनिधी बोलियों में ढ़ूंढ़ाही, हाड़ौती, मेवाती और अहीरवाटी है। ढ़ूंढ़ाही को जयपुरी भी कहते हैं।
पश्चिमी अंचल में राजस्थान की प्रधान बोली मारवाड़ी है। इसका क्षेत्र जोधपुर, सीकर, नागौर, बीकानेर, सिरोही, बाड़मेर, जैसलमेर आदि जिलों तक फैला हुआ है। साहित्यिक मारवाड़ी को डिंगल तथा पूर्वी राजस्थानी के साहित्यिक रुप को पिंगल कहा गया है। जोधपुर क्षेत्र में विशुद्ध मारवाड़ी बोली जाती है।
दक्षिण अंचल उदयपुर एवं उसके आसपास के मेवाड़ प्रदेश में जो बोली जाती है वह मेवाड़ी कहलाती है। इसकी साहित्यिक परम्परा बहुत प्राचीन है। महाराणा कुम्भा ने अपने चार नाटकों में इस भाषा का प्रयाग किया। बावजी चतर सिंघजी ने इसी भाषा में अपना उत्कृष्ट साहित्य लिखा। डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा का सम्मिलित क्षेत्र वागड़ के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र में जो बोली बोली जाती है उसे वागड़ी कहते हैं।
उत्तरी अंचली ढ़ूंढ़ाही जयपुर, किशनगढ़, टोंक लावा एवं अजमेर, मेरवाड़ा के पूर्वी अंचलों में बोली जाती है। दादू पंथ का बहुत सारा साहित्य इसी में लिखा गया है। ढ़ूंढ़ाही की प्रमुख बोलियों में हाड़ौती, किशनगढ़ी, तोरावाटी, राजावाटी, अजमेरी, चौरासी, नागरचोल आदि हैं।
मेवाती मेवात क्षेत्र की बोली है जो राजस्थान के अलवर जिले की किशनगढ़, तिजारा, रामगढ़, गोविन्दगढ़ तथा लक्ष्मणगढ़ तहसील एवं भरतपुर जिले की कामा, डीग तथा नगर तहसील में बोली जाती है। बूंदी, कोटा तथा झालावाड़ क्षेत्र होड़ौती बोली के लिए प्रसिद्ध हैं।
अहीरवाटी अलवर जिले की बहरोड़ तथा मुण्डावर एवं किशनगढ़ जिले के पश्चिम भाग में बोली जाती है। लोकमंच के जाने-माने खिलाड़ी अली बख्स ने अपनी ख्याल रचनायें इसी बोली में लिखी।
राजस्थान की इस भौगोलिक संरचना का प्रभाव यहाँ के जनजीवन पर कई रुपों में पड़ा और यहाँ की संस्कृति को प्रभावित किया। अरावली पर्वत की श्रेणियों ने जहाँ बाहरी प्रभाव से इस प्रान्त को बचाये रखा वहाँ यहाँ की पारम्परिक जीवनधर्मिता में किसी तरह की विकृति नहीं आने दी। यही कारम है कि यहाँ भारत की प्राचीन जनसंस्कृति के मूल एवं शुद्ध रुप आज भी देखने को मिलते हैं।
शौर्य और भक्ति की इस भूमि पर युद्ध निरन्तर होते रहे। आक्रान्ता बराबर आते रहे। कई क्षत्रिय विजेता के रुप में आकर यहाँ बसते रहे किन्तु यहां के जीवनमूल्यों के अनुसार वे स्वयं ढ़लते रहे और यहाँ के बनकर रहे। बड़े-बड़े सन्तों, महन्तों और न्यागियों का यहाँ निरन्तर आवागमन होता रहा। उनकी अच्छाइयों ने यहाँ की संस्कृति पर अपना प्रभाव दिया, जिस कारण यहाँ विभिन्न धर्मों और मान्यताओं ने जन्म लिया किन्तु आपसी सौहार्द और भाईचारे ने यहाँ की संस्कृति को कभी संकुचित और निष्प्रभावी नहीं होने दिया।
राजस्थान में सभी अंचलों में बड़े-बड़े मन्दिर और धार्मिक स्थल हैं। सन्तों की समाधियाँ और पूजास्थल हैं। तीर्थस्थल हैं। त्यौहार और उत्सवों की विभिन्न रंगीनियां हैं। धार्मिक और सामाजिक बड़े-बड़े मेलों की परम्परा है। भिन्न-भिन्न जातियों के अपने समुदायों के संस्कार हैं। लोकानुरंजन के कई विविध पक्ष हैं। पशुओं और वनस्पतियों की भी ऐसी ही खासियत है। ख्यालों, तमाशों, स्वांगों, लीलाओं की भी यहाँ भरमार हैं। ऐसा प्रदेश राजस्थान के अलावा कोई दूसरा नहीं है।
स्थापत्य की दृष्टि से यह प्रदेश उतना ही प्राचीन है जितना मानव इतिहास। यहां की चम्बल, बनास, आहड़, लूनी, सरस्वती आदि प्राचीन नदियों के किनारे तथा अरावली की उपत्यकाओं में आदिमानव निवास करता था। खोजबीन से यह प्रमाणित हुआ है कि यह समय कम से कम भी एक लाख वर्ष पूर्व का था।
यहां के गढ़ों, हवेलियों और राजप्रासादों ने समस्त वि का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। गढ़-गढ़ैये तो यहाँ पथ-पथ पर देखने को मिलेंगे। यहां का हर राजा और सामन्त किले को अपनी निधि और प्रतिष्ठा का सूचक समझता था। ये किले निवास के लिये ही नहीं अपितु जन-धन की सुरक्षा, सम्पति की रक्षा, सामग्री के संग्रह और दुश्मन से अपने को तथा अपनी प्रजा को बचाने के उद्देश्य से बनाये जाते थे।
बोलियों के लिए जिस प्रकार यह कहा जाता है कि यहां हर बारह कोस पर बोली बदली हुई मिलती हैं - बारां कोसां बोली बदले, उसी प्रकार हर दस कोस पर गढ़ मिलने की बात सुनी जाती है। छोट-बड़ा कोई गढ़-गढ़ैया ऐसा नही मिलेगा जिसने अपने आंगन में युद्ध की तलवार न तानी हो। खून की छोटी-मोटी होली न खेली हो और दुश्मनों के मस्तक को मैदानी जंग में गेंद की तरह न घुमाया हो। इन किलों का एक-एक पत्थर अपने में अनेक-अनेक दास्तान लिये हुए है। उस दास्तान को सुनते ही इतिहास आँखों पर चढञ आता है और रोम-रोम तीर-तलवार की भांति अपना शौर्य लिये फड़क उठता है।
शुक नीतिकारों ने दुर्ग के जिन नौ भेदों का उल्लेख किया है वे सभी प्रकार के दुर्ग यहां देखने को मिलते हैं। इनमें जिस दुर्ग के चारों ओर खाई, कांटों तथा पत्थरों से दुर्गम मार्ग बने हों वह एरण दुर्ग कहलाता है। चारों ओर जिसके बहुत बड़ी खाई हो उसे पारिख दुर्ग की संज्ञा दी गई हैं। एक दुर्ग पारिख दुर्ग कहता है जिसके चारो तरफ ईंट, पत्थर और मिट्टी की बड़ी-बड़ी दिवारों का विशाल परकोटा बना हुआ होता है। जो दुर्ग चारों ओर बड़े-बड़े कांटेदार वृक्षों से घिरा हुआ होता है वह वन दुर्ग ओर जिसके चारों ओर मरुभूमि का फैलाव हो वह धन्व दुर्ग कहलाता है।
इसी प्रकार जो दुर्ग चारों ओर जल से घिरा हो वह जल दुर्ग की कोटि में आता है। सैन्य दुर्ग अपने में विपुल सैनिक लिये होता है जबकि सहाय दुर्ग में रहने वाले शूर एवं अनुकूल आचरण करने वाले लोग निवास करते हैं। इन सब दुर्गों में सैन्य दुर्ग सर्वश्रेष्ठ दुर्ग कहा गया है।
""श्रेष्ठं तु सर्व दुर्गेभ्य: सेनादुर्गम: स्मृतं बुद:।''
राजस्थान का चित्तौड़ का किला तो सभी किलों का सिरमौर कहा गया है। कुम्भलगढ़, रणथम्भौर, जालौर, जोधपुर, बीकानेर, माण्डलगढ़ आदि के किले देखने से पता चलता है कि इनकी रचना के पीछे इतिहास, पुरातत्व, जीवनधर्म और संस्कृति के कितने विपुल सरोकार सचेतन तत्व अन्तर्निहित हैं।
यही स्थिति राजप्रासादों और हवेलियों की रही है। इनके निर्माण पर बाहर से आने वाले राजपूतों तथा मुगलों की संस्कृति का प्रभाव भी स्पष्टता: देखने को मिलता है। बूंदी, कोटा तथा जैसलमेर के प्रासाद मुगलसैली से प्रभावित हैं, जबकि उदयपुर का जगनिवास, जगमन्दिर, जोधपुर का फूलमहल, आमेर व जयपुर का दीवानेखास व दीनानेआम, बीकानेर का रंगमहल, शीशमहल आदि राजपूत व मुगल पद्धति का समन्व्य लिये हैं। मन्दिरों के स्थापत्य के साथ भी यही स्थिति रही। इन मन्दिरों के निर्माण में हिन्दू, मुस्लिम और मुगल शैली का प्रभाव देखकर उस समय की संस्कृति, जनजीवन, इतिहास और शासन प्रणाली का अध्ययन किया जा सकता है।
आबू पर्वत पर ४००० फुच की ऊँचाई पर बसे देलवाड़ा गाँव के समीप बने दो जैन मन्दिर संगमरमर के प्रस्तरकला की विलक्षण जालियों, पुतलियों, बेलबूटों और नक्काशियों के कारण सारे वि के महान आश्चर्य बने हुए हैं। प्रख्यात कला-पारखी रायकृष्ण दास इनके सम्बन्ध में अपना विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं -
संगमरमर ऐसी बारीकी से तराशा गया है
कि मानो किसी कुशल सुनार ने रेती से
रेत-रेत कर आभूषण बनाये हो। यहां पहुंचने
पर ऐसा मालूम होता है कि स्वप्न के
अद्भूत लोक में आ गये हैं। इनकी सुन्दरता
ताज से भी कहीं अधिक है। (भारतीय मूर्तिकार /
पृष्ठ १३३-१३४)
इसी प्रकार जोधपुर का किराड़ मन्दिर, उदयपुर का नागदा का सास-बहू का मन्दिर, अर्घूणा का जैन मन्दिर, चित्तौड़ का महाराणा कुम्बा द्वारा निर्मित कीर्तिस्तम्भ, रणकपुर का अनेक कलात्मक खम्भों के लिये प्रसिद्ध जैन मन्दिर, बाड़मेर का किराडू मन्दिर स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। हवेली स्थापत्य की दृष्टि से रामगढ़, नवलगढ़, फतेहपुर की हवेलियां देखते ही बनती हैं। जैसलमेर की पटवों की हवेली तथा नथमल एवं सालमसिंह की हवेली, पत्थर की जाली एवं कटाई के कारण विश्वप्रसिद्ध हो गई। हवेली शैली के आधार पर यहां के वैष्णव मन्दिर भी बड़े प्रसिद्ध हैं। इन हवेलियों के साथ-साथ यहां के हवेली संगीत तथा हवेली-चित्रकला ने बी सांस्कृतिक जगत में अपनी अनूठी पहचान दी है।
चित्रकला की दृष्टि से भी राजस्थान अति समृद्ध है। यहाँ विभिन्न शैलियों के चित्रों का प्रचुर मात्रा में सजृन किया गया। ये चित्र किसी एक स्थान और एक कलाकार द्वारा निर्मित नहीं होकर विभिन्न नगरों, राजधानियों, धर्मस्थलों और सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों की देन हैं। राजाओं, सामन्तों, जागीरदारों, श्रेष्ढीजनों तथा कलाकारों द्वारा चित्रकला के जो रुप उद्घाटित हुए वे अपने समग्र रुप में राजस्थानी चित्रकला के व्यापक परिवेश से जुड़े किन्तु कवियों, चितासे, मुसव्विरों, मूर्तिकारों, शिल्पाचार्यों आदि का जमघट दरबारों में होने के कारण राजस्थानी चित्रकला की अजस्र धारा अनेक रियासती शैलियों, उपशैलियों को परिप्लावित करती हुई १७वीं-१८वीं शती में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची। अधिकांश रियासतों के चित्रकारों ने जिन-जिन तौर-तरीकों के चित्र बनाए, स्थानानुसार अपनी परिवेशगत मौलिकता, राजनैतिक सम्पर्क, सामाजिक सम्बन्धों के कारण वहां की चित्रशैली कहलाई।
डॉ. जयसिंह "नीरज' ने राजस्थानी चित्रकला को चार प्रमुख स्कूलों में विभाजिक करते हुए उसका
मेवाड़ स्कूल;
मारवाड़ स्कूल;
ढ़ूंढ़ाड़ स्कूल; और
हड़ौती स्कूल
नाम दिया।
मेवाड़ स्कूल की चित्रकला में राजस्थानी चित्रकला का प्रारम्भिक और मौलिक स्वरुप देखने को मिलता है। महाराणा प्रताप की राजधानी चावण्ड में चित्रकला का जो विशिष्ट रुप उजागर हुआ वह चावण्डशैली के नाम से जाना गया। बहुप्रसिद्ध रागमाला के चित्र चावण्ड में ही बनाये गये। इसके बाद महाराना उदयसिंह ने जब उदयपुर को अपनी राजधानी बनाया तब यहां जो चित्रशैली समृद्ध हुई वह उदयपुरशैली कहलाई। इस शैली में सूरसागर, रसिकप्रिया, गीतगोविन्द, बिठारी सतसई आदि के महत्वपूर्ण चित्र बनाये गये। विभिन्न राग-रागिनियों तथा महलों के भित्तिचित्र भी इस शैली की विशिष्ट देन हैं।
सन् १६७० में जब श्रीनाथ जी का विग्रह नाथद्वारा में प्रतिष्ठित किया गया तो उनके साथ ब्रज की चित्र परम्परा भी यहां विरासत में आई। यहां उदयपुर और ब्रज की चित्रशैली के समन्वय ने एक नई शैली के नाम से जानी गयी। इस शैली में श्रीनाथ जी के स्वरुप के पीछे सज्जा के लिए कपड़े पर बने पिछवाई चित्र सर्वाधिक चर्चित हुए।
मारवाड़ स्कूल में जो शैली विकसित हुई वह जोधपुर, बीकानेर और किशनगढ़ शैली के नाम से प्रचलित हुई। किशनगढ़ शैली में बणीठणी के चित्र ने बड़ा नाम कमाया। बीकानेर शैली के प्रारम्भिक चित्रों में जैन यति मथेरणों का प्रभाव रहा। बाद में मुगल दरबार से जो उस्ता परिवार आया उसने यहां के संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी काव्यों को आधार बनाकर र्तृकड़ों चित्र बनाये। इनमें हिस्सामुद्दीन उस्ता ऊँट की खाल पर विशेष पद्धति से चित्रण कार्य करके ख्याति प्राप्त कर चुके हैं।
हाड़ौती अंचल में प्रमुखत: बूंदी, कोटा तथा झालावाड़ अपना विशेष कला प्रभाव लिये हैं। बूंदी के राव छत्रसाल ने रंगमहल का निर्माण करवाकर उसे बड़े ही कलात्मक भित्तिचित्रों से अलंकृत करवाया। इस शैली में कई ग्रन्थ चित्रण और लघु चित्रों का निर्माण हुआ। कोटा के राजा रामसिंह ने कोटा शैली को स्वतन्त्र अस्तित्व दिलाने का भागीरथ कार्य किया। उनके बाद महारावल भीमसिंह ने कृष्णभक्ति को विशेष महत्व दिया तो यहां की चित्रकला में वल्लभ सम्प्रदाय का बड़ा प्रभाव आया। जयपुर और उसके आसपास की चित्रकला को ढ़ूंढ़ाड़ स्कूल के नाम से सम्बोधित किया गया। इस स्कूल में आमेर, जयपुर, अलवर, शेखावटी, उणियारा, करौली आदि चित्रशैलियों का समावेश किया जा सकता है।
सांस्कृति पृष्ठबूमि के पोषक तत्व
राजस्थान के लोक संगीत ने विभिन्न अवसरों पर, वार त्यौहारों तथा अनुरंजनों पर स्वस्थ लोकानुरंजन की सांस्कृतिक परम्पराओं को जीवन्त परिवेश दिया है। विभिन्न अंचलों का लोकगीत और संगीत अपने भौगोलिक वातावरण और सांस्कृतिक हलचल के कारण अपनी निजी पहचान लिये है। इसीलिये एक ही गीत को जब अलग-अलग अंचलों के कलाकार गाते हैं तो उनके अलाप, मरोड़, ठसक और गमक में अन्तर दिखाई पड़ता है। यह अन्तर मारवाड़, मेवाड़, हाड़ौती, ढ़ूंढ़ड़ी, मेवाती आदि अंचलों के भौगोलिक रचाव-पचाव, रहन-सहन, खान-पान, बोलीचाली आदि सभी दृष्टियों की प्रतीति लिये देखा जा सकता है।
उदाहरण के लिये गणगौर पर जो घूमर गीत गाये जाते हैं उनकी गायन शैली सभी अंचलों में भिन्न-भिन्न रुप लिये मिलती है। यही स्थिति मांड गायिकी की कही जा सकती है। इस गायिकी में बीकानेर की श्रीमती अल्लाजिलाई बाई ने विशेष पहचान बनाई है। भजन के क्षेत्र में लोकगायिका सोहनीबाई ने बड़ी प्रसिद्धि ली। जैसलमेर, बाड़मेर के मांगणियारों ने अपने लोक संगीत द्वारा सारे वि में राजस्थान को गूंजा दिया। नड़, पुंगी, सतारा, मोरचंग, खड़ताल, मटकी, सारंगी, कामायचा, रावणहत्था आदि जंतर वाद्य इस क्षेत्र के कलाकार जिस गूंज के साथ बजाते हैं वैसी गूंज अन्य कोई कलाकार नहीं दे पाते। ये कलाकार अपनी ढ़गतियों और झूंपों से गीत-संगीत को लेकर दुनियां की परिक्रमा कर आये। अपने दोनों हाथों में दो-दो लकड़ी के टुकड़ो को टकरा कर संगीत की अद्भुत प्रस्तुति देने वाले खड़ताली कलाकार सिद्दीक ने जहां भी अपने कार्यक्रम दिये वहां जादू ही जादू भर दिया। दो जून की जुगाड़ नहीं करने वाले इस कलाकार को जब पद्मश्री मिली तो वह हक्का-बक्का रह गया। ऐसी ही ख्याति यहां के हिचकी, गोरबंद, पणिहारी, आलू, कुरजा, इडोणी, मूमल, कंगसिया, लूर, काजलिया, कागा गीत गाने वाले कलाकारों ने प्राप्त की।
जैसलमेर के कारण भील ने देश-भक्त डाकू के साथ-साथ अपने नड़ वारन में उतनी ही ख्याति अर्जित की। उदयपुर के दयाराम ने भवाई नृत्य में जो कमाल दिखाया उसके कारण स्वंय दयाराम ही भवाई का प्रतीक बन गया। कठपुतली नचाने में भी यह कलाकार बड़ सिद्धहस्त था। रुमानिया के तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय कठपुतली समारोह में इस कलाकार ने भारतीय लोककला मण्डल की ओर से भाग लिया और वि का सर्वोच्च पुरस्कार हासिल किया। यह कठपुतली कला इसी प्रदेश की देन कही जाती है।
उदयपुर में गणगौर उत्सव बड़ा प्रसिद्ध रहा है। इसे देखने दूर-दूर तक के लोग आते है। महाकवि पद्माकर भी इस मौके पर यहां आये और इस उत्सव को देख दो छन्द लिखे जिनमें -
""गौरन की कौनसी हमारी गणगौर है''
छन्द बहुत लोकप्रिय हुआ। महाराणा सज्जनसिंह ने गणगौर पर नाव की सवारी प्रारम्भ की। इसका गीत आज भी यहाँ गणगौर के दिनों में गूंजता हुआ मिलता है।
हेली नाव री असवारी
सज्जन राण आवे छै।
बीकानेर की ढ़ड्ढ़ो की गणगौर जितनी कीमती आभूषणों से सुसज्जित होती है उतनी किसी प्रान्त की कोई गणगौर नहीं सजती। कोटा का दशहरा और सांगोद का न्हाण आज भी बहुत प्रसिद्ध हैं।
उदयपुर संभाग के आदिवासी भीलों की गवरी नृत्य दिनकर का धार्मिक अनुष्ठान है। इसमें कई तरह के बड़े ही मजेदार स्वांग-दृश्य और खेल-तमाशे दिखाये जाते हैं। प्रतिदिन अलग-अलग स्थानों पर पूरे सवा माह उनका प्रदर्शन होता है। यह प्रदर्शन रक्षा बन्धन के ठीक दूसरे दिन प्रारम्भ हो जाता है।
राम लीलाओं और कृष्ण लीलाओं के यहां कई दल हैं जो कई-कई दिनों तक पड़ाव डालकर जनता का मनोरंजन करते हैं। ऐसे ही दल ख्यालों के हैं जो मेलों ड़ेलों तथा अन्य अवसरों पर शत-शत भर ख्याल-तमाशे करते हैं। नौटंकी, तुर्राकलंगी, अलीबख्शी, मारवाड़ी तथा चिड़ावी, शेखावटी ख्यालों की यहां अच्छी मण्डलियां विद्यमान हैं।
बीकानेर, जैसलमेर की ओर रम्मत ख्यालों के बड़े अच्छे अखाड़े हैं। होली के दिनों में बीकानेर का हर मुहल्ला रम्मतों के रंगों में सराबोर रहता है। जैसलमेर में किसी समय तेज कवि के ख्यालों की बड़ी धूम थी। बागड़ की और मावजी की भक्ति में साद लोग लीला ख्यालों का मंचन करते हैं।
ऐसी ही एक प्रसिद्ध मेला बांसवाड़ा जिले में घोटियाआंबा नामक स्थान पर भरता है। कहते हैं कि यहां इन्द्र ने गुठली बोई सो आमवृक्ष फल। कृष्ण की उपस्थिति में यहां ८८ हजार ॠषियों को आम्ररस का भोजन कराया गया। इस स्थान पर पाण्डव रहे।
जोधपुर-जैसलमेर के बीच रुणेचा में रामदेवजी का बड़ा भारी मेला लगता है। इस मेले में रामदेवजी को मानने वाले मुख्यत: छोटी जातियों के लोग बड़ी संख्या में भाग लेगे हैं। गोगामेड़ी में लोक देवता गोगाजी और पखतसर में तेजाजी का मेला बहुत प्रसिद्ध है। करौली का केलादेवी का मेला लांगुरिया गीतों से दूर-दूर तक अपनी पहचान देता हुआ पाया जाता है। पुष्कर का धार्मिक मेला पौराणिक काल से ही चला आ रहा है। डूंगरपुर जिले की आसपुर पंचायत समिति का साबंला गांव मावजी की जन्म स्थली रहा है। इसी के पास बैणेश्वर नामक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है जहां माघ पूर्णिमा को सन्त मावजी की स्मृति में मेला भरता है। यह मेला आदिवासियों का बड़ा ही धार्मिक मेला है जो राजस्थान का कुम्भ भी कहा जाता है। यहां सोम, माही व जाखम नदियों का त्रिवेणी संगम है। मावजी ने यहां तपस्या की थी।
यहां के पहनावे ने भी अपनी संस्कृति को एक भिन्न रुप में प्रस्तुत किया है। पुरुषों के सिर पर बांधी जाने वाली पाग में ही यहां कई रुप-स्वरुप और रंग-विधान देखने को मिलते हैं। पगड़ी को लेकर कुछ घटनायें तो इतिहास की अच्छी खासी दास्तान बनी हुई हैं। पगड़ी की लाज रखना, पगड़ी न झुकाना, पदड़ी पांव में रखना जैसे कई मुहावरे पगड़ी के महत्व को प्रकट करते हैं।
भारतवर्ष में ऐसे दो ही राज्य हैं जहां पग-पग पर दुर्ग मिलते हैं। ये दो राज्य राजस्थान और महाराष्ट्र है। यदि हम राजस्थान के एक हिस्से से दूसरे भाग में पदयात्रा करें तो हमें लगभग प्रत्येक १० मील के बाद कोई न कोई दुर्ग अवश्य मिल जाएगा। दुर्गों को किले के नाम से भी जाना जाता है। चाहे राजा हो या सामंत, वह दुर्ग को अनिवार्य मानता था। राजा अथवा सामंत दुर्गों का निर्माण सामरिक, प्रशासनिक एवं सुरक्षा की दृष्टि से कराते थे। दुर्गों में सामान्यत: राजा व सेनिक रहते थे तथा आम जनता दुर्गों के बाहर बस्तियों में। मूलत: इन दुर्गों का निर्माण राजा अपने निवास के लिए, सामग्री संग्रह के लिए, आक्रमण के समय अपनी प्रजा को सुरक्षित रखने के लिए, पशुधन को बचाने के लिए तथा संपति को छिपाने के लिए किया करते थे।
राजस्थान में दुर्गों के निर्माण का इतिहास काफी पुराना है जिसके प्रमाण कालीबंगा की खुदाई में प्राप्त हुए हैं। मुसलमानों के आगमन तक पहाड़ों पर दुर्गों का निर्माण शुरु हो चुका था। अजयपाल ने अजमेर में तारागढ़ का दुर्ग बनवाकर इस ओर एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। ये दुर्ग ऊँची और चौड़ी पहाड़ियों पर बनते थे जिनमें खेती भी हो सकती थी। किले के ऊँचे भाग पर मंदिर एवं राजप्रसाद बनाए जाते थे। दुर्गों के निचले भागों में तालाब व समतल भूमि पर खेती होती थी। दुर्ग के चारो तरफ ऊँची एवं चौड़ी दीवार बनाई जाती थी। आपत्ति के समय के लिए बड़े-बड़े भंडार गृह बनाये जाते थे जिनमें अनाज जमा किया जा सके।
दुर्गों के निर्माण में राजस्थान ने भारतीय दुर्गकला की परंपरा का निर्वाह किया है। निर्माण कला की दृष्टि से दुर्गों को अलग-अलग वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। अर्थात अलग-अलग उद्देश्य की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के दुर्गों का निर्माण होता है। इन विभिन्न प्रकार के दुर्गों का उल्लेख करते हुए कौटिल्य ने छ: प्रकार के दुर्ग बताए है। उसने कहा है कि राजा को चाहिए कि वह अपने राज्य की सीमाओं पर युद्ध की दृष्टि से दुर्गों का निर्माण करे। राज्य की रक्षा के लिए "औदिक दुर्गों" (पानी के मध्य स्थित दुर्ग अथवा चारों ओर जल युक्त नहर के मध्य स्थित दुर्ग) व पर्वत दुर्ग अथवा गिरि दुर्गों (जो किसी पहाड़ी पर स्थित हो) का निर्माण किया जाय। आपातकालीन स्थिति में शरण लेने हेतु "धन्वन दुर्गों" (रेगिस्थान में निर्मित दुर्ग) तथा वन दुर्गों (वन्य प्रदेश में स्थित) का निर्माण किया जाय। इसी प्रकार मनुस्मृति तथा मार्कण्डेय पुराण में भी दुर्गों के प्राय: इन्हीं प्रकारों की चर्चा की गई है। राजस्थान के शासकों एवं सामंतो ने इसी दुर्ग परंपरा का निर्वाह किया है।
मारवाड़ के दुर्ग और सुरक्षा व्यवस्था
७वीं शताब्दी तक राजस्थान में अनेक राजपूत राजवंशों का उदय हुआ। इनमें प्रमुख राजवंश गहलोत, प्रतिहार, चौहान, भाटी, परमार, सोलंकी, तंवर और राठौड़ आदि थे। इन वंशों की राजधानियां सुदृढ़ दुर्गों में थीं। इनके सीमा प्रदेशों की पहाड़ियाँ भी प्राय: विविध प्रकार के दुर्गों में सुरक्षित थीं।
राजस्थान का विस्तृत भू-भाग प्राचीनकाल में नागबंशीय राजपूतों के आधीन था। नागौर दुर्ग के निर्माता नागबंशी क्षत्रिय थे। निकुम्भ सूर्यवंशी क्षत्रिय थे और स्वयं को इक्ष्वाकु की संतान मानते थे। १३वीं शताब्दी में इनका राजस्थान में प्रवेश हुआ। इन्होंने अपनी भूमि की रक्षार्थ सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण करवाया। इनका सर्वोत्तम दुर्ग अलवर है।
तेरहवीं शताब्दी के बाद राजस्थान में दुर्ग बनाने की परम्परा ने एक नवीन मोड़ लिया। इसकाल में ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ, जो ऊपर से चौड़ी थीं और जिसमें कृषि तथा सिंचाई के साधन उपलब्ध थे, किले बनाने के उपयोग मे लायी जाने लगीं। नवीन दुर्गों के निर्माण के साथ ही प्राचीन दुर्गों का भी नवीनीकरण करवाया जाने लगा। चित्तौड़, आबू, कुम्भलगढ़, माण्डलगढ़ आदि स्थानों के पुराने किलों को मध्ययुगीन स्थापत्य कला के आधार पर एवं नवीन युद्ध शैली को ध्यान में रखकर पुननिर्मित करवाया गया। महराणा कुम्भा ने चित्तौड़ दुर्ग की प्राचीर, प्रवेश-द्वारों एवं बुजाç को अधिक सुदृढ़ बनवाया। कुम्भलगढ़ दुर्ग के भीतर ऊँचे से ऊँचे भाग का प्रयोग राजप्रसाद के लिए तथा नीचे के भाग को जलाशयों के लिए प्रयुक्त किया गया। कुम्भलगढ़ दुर्ग के चारों ओर दीवारें चौड़ी एवं बड़े आकार की बनवाई गई। जिन दुर्गों में जलाशयों के लिए व्यवस्था नहीं थी, वहां पानी के कृत्रिम जलाशय बनवाये गये। मध्यकाल के राजपूत सैन्य-प्रबंध में दुर्गों का विशेष महत्व था। प्रत्येक राजपूत राजा किले और गढ़ी बनवाने में पूरी रुचि लेता था। ये दुर्ग सैनिक केन्द्र तो होते ही थे, साथ ही साथ इनमें राजा का निवास स्थान भी होता था। प्रतिहार नरेश किले बनवाने में और उनकी सामरिक महत्ता पहचानने में बहुत कुशल थे। जालौर, मण्ड़ोर तथा ग्वालियर दुर्ग इसके प्रमाण हैं। चौहानों के तारागढ़, हांसी, सिरसा, समाना, नागौर, सिवाना तथा नाडौल के दुर्ग इसके साक्षी हैं कि चौहान शासक भी दुर्गों एवं उनकी सामरिक महत्ता के प्रति सजग थे।
चालुक्यों के दुर्ग चौहानों के सम्मान सामरिक महत्व के नहीं थे। उनके दुर्ग पहाड़ियों पर बनाए गए थे और उनके चारों ओर खाइयां हुआ करती थीं। ये दुर्ग बहुत ज्यादा लम्बे, चौड़े भू-भाग पर बनाये जाते थे।
अजयगढ़, मनियागढ़, कालिंजर, महोबा एवं नारीगढ़ आदि चंदेल राजाओं के प्रमुख दुर्ग थे। जब तक पल्लेदार तोप का अविष्कार नही हुआ था और उसके द्वारा आधा कोस की दूरी से मारकर दुर्ग की प्राचीर एवं तटबंधों को धराशायी नही किया जा सकता था। तब तक ये दुर्ग राजपूत सैन्य शक्ति एवं प्रबंध की दृष्टि से महत्वपूर्ण बने रहे और आक्रमणकारी ऐसे दुर्गों को धोखे के बल पर ही जीत पाए।
मण्ड़ोर दुर्ग
मण्ड़ोर जोधपुर की स्थापना से पूर्व मारवाड़ की राजधानी थी। मण्ड़ोर का नाम प्राचीन काल में मांडव्यपुर था, जो माण्डव्य ॠषि के नाम पर पड़ा था। घटियाला से प्राप्त शिलालेख से ज्ञात होता है कि मण्डोर दुर्ग का निर्माण ७वीं शताब्दी के पूर्व हो चुका था। शिलालेखों के अनुसार ब्राह्मण हरिचन्द्र के पुत्रों ने मण्डोर पर अधिकार कर लिया तथा ६२३ ई० में उन्होंने इसके चारों ओर दीवार बनवाई।
मण्डोर दुर्ग के अवशेष आज भी विद्यमान हैं। यह दुर्ग एक पहाड़ी के शिखर पर स्थित था, जिसकी ऊँचाई ३०० से ३५० फुट थी। यह दुर्ग आज खंड़हर हो चुका है। कुछ खण्डहरों के नीचे पड़ा है तथा कुछ विघटित अवस्था में है। विघटित अवस्था में विद्यमान दुर्ग को देखकर यद्यपि उसकी वास्तविक निर्माण विधि का पूरा आकलन नही किया जा सकता तथापि इस विषय में कुछ अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है। पहाड़ी पर स्थित इस दुर्ग के चारों ओर पाषाण निर्मित दीवार थी। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए एक मुख्य मार्ग था। दुर्ग की पोल पर लकड़ी से निर्मित विशाल दरवाजा था। दुर्ग के शासकों के निवास के लिए महल, भण्डार, सामंतो व अधिकारियों के भवन आदि बने हुए थे। जिस मार्ग द्वारा नीचे से पहाड़ी के ऊपर किले तक पहुँचा जाता था वह उबड़-खाबड़ था। किले की प्राचीर में जगह-जगह चौकोर छिद्र बने हुए थे।
मण्ड़ोर को दुर्ग सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से तात्कालीन समय में काफी सुदृढ़ एवं महत्वपूर्ण समझा जाता था। इसके कारण शत्रु की सेना को पहाड़ी पर अचानक चढ़ाई करने में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था। दुर्ग में प्रवेश-द्वार इस तरह से निर्मित किए गए थे कि उन्हें तोड़ना शत्रु के लिए असंभव सा था। किले में पानी की प्रयाप्त व्यवस्था होती थी जिससे आक्रमण के समय सैनिकों एवं रक्षकों को जल की कमी का सामना नही करना पड़े।
इस दुर्ग की प्राचीर चौड़ी एवं सुदृढ़ थी। दुर्ग के पास ही एक विशाल जलाशय का निर्माण करवाया गया था। इस जलाशय की सीढियों पर नाहरदेव नाम अंकित है जो मण्ड़ोर का अंतिम परमार शासक था। दुर्ग की दीवारें पहाड़ी के शीर्ष भाग से ऊपर उठी हुई थीं। बीच के समुन्नत भाग पर विशाल महल बने थे जो नीचे के मैदानों पर छाये हुए थे। मण्ड़ोर दुर्ग के बुर्ज गोलाकार न होकर अधिकांशत: चौकोर थे, जैसे कि अन्य प्राचीन दुर्गों में मण्ड़ोर दुर्ग ७८३ ई० तक परिहार शासकों के अधिकार में रहा। इसके बाद नाड़ोल के चौहान शासक रामपाल ने मण्ड़ोर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। १२२७ ई० में गुलाम वंश के शासक इल्तुतनिश ने मण्ड़ोर पर अधिकार कर लिया। यद्यपि परिहार शासकों ने तुर्की आक्रांताओं का डट कर सामना किया पर अंतत: मण्ड़ोर तुर्कों के हाथ चला गया। लेकिन तुर्की आक्रमणकारी मण्ड़ोर को लम्बे समय तक अपने अधिकार में नही रख सके एंव दुर्ग पर पुन: प्रतिहारों का अधिकार हो गया। १२९४ ई० में फिरोज खिलजी ने परिहारों को पराजित कर मण्ड़ोर दुर्ग अधिकृत कर लिया, परंतु १३९५ ई० में परिहारों की इंदा शाखा ने दुर्ग पर पुन: अधिकार कर लिया। इन्दों ने इस दुर्ग को चूंडा राठौड़ को सौंप दिया जो एक महत्वाकांक्षी शासक था। उसने आस-पास के कई प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लिया। १३९६ ई० में गुजरात के फौजदार जफर खाँ ने मण्ड़ोर पर आक्रमण किया। एक वर्ष के निरंतर घेरे के उपरांत भी जफर खाँ को मंडोर पर अधिकार करने में सफलता नही मिली और उसे विवश होकर घेरा उठाना पड़ा। १४५३ ई० में राव जोधा ने मण्डोर दुर्ग पर आक्रमण किया। उसने मरवाड़ की राजधानी मण्डोर से स्थानान्तरित करके जोधपुर ले जाने का निर्णय लिया। राजधानी हटने के कारण मण्ड़ोर दुर्ग धीरे-धीरे वीरान होकर खंडहर में तब्दील हो गया।
जालौर दुर्ग
जालौर दुर्ग मारवाड़ का सुदृढ़ गढ़ है। इसे परमारों ने बनवाया था। यह दुर्ग क्रमश: परमारों, चौहनों और राठौड़ों के आधीन रहा। यह राजस्थान में ही नही अपितु सारे देश में अपनी प्राचीनता, सुदृढ़ता और सोनगरा चौहानों के अतुल शौर्य के कारण प्रसिद्ध रहा है।
जालौर जिले का पूर्वी और दक्षिणी भाग पहाड़ी शृंखला से आवृत है। इस पहाड़ी श्रृंखला पर उस काल में सघन वनावली छायी हुई थी। अरावली की श्रृंखला जिले की पूर्वी सीमा के साथ-साथ चली गई है तथा इसकी सबसे ऊँची चोटी ३२५३ फुट ऊँची है। इसकी दूसरी शाखा जालौर के केन्द्र भाग में फैली है जो २४०८ फुट ऊँची है। इस श्रृंखला का नाम सोनगिरि है। सोनगिरि पर्वत पर ही जालौर का विशाल दुर्ग विद्यमान है। प्राचीन शिलालेखों में जालौर का नाम जाबालीपुर और किले का नाम सुवर्णगिरि मिलता है। सुवर्णगिरि शब्द का अपभ्रंशरुप सोनलगढ़ हो गया और इसी से यहां के चौहान सोनगरा कहलाए।
जहां जालौर दुर्ग की स्थिति है उस स्थान पर सोनगिरि की ऊँचाई २४०८ फुट है। यहां पहाड़ी के शीर्ष भाग पर ८०० गज लम्बा और ४०० गज चौड़ा समतल मैदान है। इस मैदान के चारों ओर विशाल बुजाç और सुदृढ़ प्राचीरों से घेर कर दुर्ग का निर्माण किया गया है। गोल बिन्दु के आकार में दुर्ग की रचना है जिसके दोनों पार्श्व भागों में सीधी मोर्चा बन्दी युक्त पहाड़ी पंक्ति है। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए एक टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता पहाड़ी पर जाता है। अनेक सुदीर्घ शिलाओं की परिक्रमा करता हुआ यह मार्ग किले के प्रथम द्वार तक पहुँचता है। किले का प्रथम द्वार बड़ा सुन्दर है। नीचे के अन्त: पाश्वाç पर रक्षकों के निवास स्थल हैं। सामने की तोपों की मार से बचने के लिए एक विशाल प्राचीर धूमकर इस द्वार को सामने से ढक देती है। यह दीवार २५ फुट ऊँची एंव १५ फुट चौड़ी है। इस द्वार के एक ओर मोटा बुर्ज और दूसरी ओर प्राचीर का भाग है। यहां से दोनों ओर दीवारों से घिरा हुआ किले का मार्ग ऊपर की ओर बढ़ता है। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं नीचे की गहराई अधिक होती जाती है। इन प्राचीरों के पास मिट्टी के ऊँचे स्थल बने हुए हैं जिन पर रखी तोपों से आक्रमणकारियों पर मार की जाती थी। प्राचीरों की चौड़ाई यहां १५-२० फुट तक हो जाती है।
इस सुरक्षित मार्ग पर लगभग आधा मील चढ़ने के बाद किले का दूसरा दरवाजा दृष्टिगोचर होता है। इस दरवाजे का युद्धकला की दृष्टिकोण से विशेष महत्व है। दूसरे दरवाजे से आगे किले का तीसरा और मुख्य द्वार है। यह द्वार दूसरे द्वारों से विशालतर है। इसके दरवाजे भी अधिक मजबूत हैं। यहां से रास्ते के दोनों ओर साथ चलने वाली प्राचीर श्रंखला कई भागों में विभक्त होकर गोलाकार सुदीर्घ पर्वत प्रदेश को समेटती हुई फैल जाती है। तीसरे व चौथे द्वार के मध्य की भूमि बड़ी सुरक्षित है। प्राचीर की एक पंक्ति तो बांई ओर से ऊपर उठकर पहाड़ी के शीर्ष भाग को छू लेती है तथा दूसरी दाहिनी ओर घूमकर मैदानों पर छाई हुई चोटियों को समेटकर चक्राकार घूमकर प्रथम प्राचीर की पंक्ति से आ मिलती है। यहां स्थान-स्थान पर विशाल एंव विविध प्रकार के बुर्ज बनाए गए हैं। कुछ स्वतंत्र बुर्ज प्राचीर से अलग हैं। दोनों की ओर गहराई ऊपर से देखने पर भयावह लगती है।
जालौर दुर्ग का निर्माण परमार राजाओं ने १०वीं शताब्दी में करवाया था। पश्चिमी राजस्थान में परमारो की शक्ति उस समय चरम सीमा पर थी। धारावर्ष परमार बड़ा शक्तिशाली था। उसके शिलालेखों से, जो जालौर से प्राप्त हुए हैं, अनुमान लगाया जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण उसी ने करवाया था।
वस्तुकला की दृष्टि से किले का निर्माण हिन्दु शैली से हुआ है। परंतु इसके विशाल प्रांगण में एक ओर मुसलमान संत मलिक शाह की मस्जिद है।
जालौर दुर्ग में जल के अतुल भंड़ार हैं। सैनिकों के आवास बने हुए हैं। दुर्ग के निर्माण की विशेषता के कारण तोपों की बाहर से की गई मार से किले के अन्त: भाग को जरा भी हानि नही पहुँची है। किले में इधर-उधर तोपें बिखरी पड़ी हैं। ये तोपों विगत संघर्षमय युगों की याद ताजा करतीं है।
१२वीं शताब्दी तक जालौर दुर्ग अपने निर्माता परमारों के अधिकार में रहा। १२वीं शताब्दी में गुजरात के सोलंकियों ने जालौर पर आक्रमण करके परमारों को कुचल दिया और परमारों ने सिद्धराज जयसिंह का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। सिद्धराज की मृत्यु के बाद कीर्कित्तपाल चौहान ने दुर्ग को घेर लिया। कई माह के कठोर प्रतिरोध के बाद कीर्कित्तपाल इस दुर्ग पर अपना अधिकार करने में सफल रहा। कीर्कित्तपाल के पश्चात समर सिंह और उदयसिंह जालौर के शासक हुए। उदय सिंह ने जालौर में १२०५ ई० से १२४९ ई० तक शासन किया।
गुलाम वंश के शासक इल्तुतमिश ने १२११ से १२१६ के बीच जालौर पर आक्रमण किया। वह काफी लंबे समय तक दुर्ग का घेरा डाले रहा। उदय सिंह ने वीरता के साथ दुर्ग की रक्षा की पंरतु अन्तोगत्वा उसे इल्तुतमिश के सामने हथियार डालने पड़े। इल्लतुतमिश के साथ जो मुस्लिम इतिहासकार इस घेरे में मौजूद थे, उन्होंने दुर्ग के बारे में अपनी राय प्रकट करते हुए कहा है कि यह अत्यधिक सुदृढ़ दुर्ग है, जिनके दरवाजों को खोलना आक्रमणकारियों के लिए असंभव सा है।
जालौर के किले की सैनिक उपयोगिता के कारण सोनगरा चौहान ने उसे अपने राज्य की राजधानी बना रखा था। इस दुर्ग के कारण यहां के शासक अपने आपको बड़ा बलवान मानते थे। जब कान्हड़देव यहां का शासक था, तब १३०५ ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन ने अपनी सेना गुल-ए-बहिश्त नामक दासी के नेतृत्व में भेजी थी। यह सेना कन्हड़देव का मुकाबला करने में असमर्थ रही और उसे पराजित होना पड़ा। इस पराजय से दुखी होकर अलाउद्दीन ने १३११ ई० में एक विशाल सेना कमालुद्दीन के नेतृत्व में भेजी लेकिन यह सेना भी दुर्ग पर अधिकार करने में असमर्थ रही। दुर्ग में अथाह जल का भंड़ार एंव रसद आदि की पूर्ण व्यवस्था होने के कारण राजपूत सैनिक लंबे समय तक प्रतिरोध करने में सक्षम रहते थे। साथ ही इस दुर्ग की मजबूत बनावट के कारण इसे भेदना दुश्कर कार्य था। दो बार की असफलता के बाद भी अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर अधिकार का प्रयास जारी रखा तथा इसके चारों ओर घेरा डाल दिया। तात्कालीन श्रोतों से ज्ञात होता है कि जब राजपूत अपने प्राणों की बाजी लगा कर दुर्ग की रक्षा कर रहे थे, विक्रम नामक एक धोखेबाज ने सुल्तान द्वारा दिए गए प्रलोभन में शत्रुओं को दुर्ग में प्रवेश करने का गुप्त मार्ग बता दिया। जिससे शत्रु सेना दुर्ग के भीतर प्रवेश कर गई। कन्हड़देव व उसके सैनिकों ने वीरता के साथ खिलजी की सेना का मुकाबला किया और कन्हड़देव इस संघर्ष में वीर गति को प्राप्त हुआ। कन्हड़देव की मृत्यु के पश्चात भी जालौर के चौहानों ने हिम्मत नही हारी और पुन: संगठित होकर कन्हड़देव के पुत्र वीरमदेव के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा परंतु मुठ्ठी भर राजपूत रसद की कमी हो जाने के कारण शत्रुओं को ज्यादा देर तक रोक नही सके। वीरमदेव ने पेट में कटार भोंककर मृत्यु का वरण किया। इस संपूर्ण घटना का उल्लेख अखेराज चौहान के एक आश्रित लेखक पदमनाथ ने "कन्हड़देव प्रबंध" नामक ग्रंथ में किया है।
जालौर के किले की सैनिक उपयोगिता के कारण सोनगरा चौहान ने उसे अपने राज्य की राजधानी बना रखा था। इस दुर्ग के कारण यहां के शासक अपने आपको बड़ा बलवान मानते थे। जब कान्हड़देव यहां का शासक था, तब १३०५ ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन ने अपनी सेना गुल-ए-बहिश्त नामक दासी के नेतृत्व में भेजी थी। यह सेना कन्हड़देव का मुकाबला करने में असमर्थ रही और उसे पराजित होना पड़ा। इस पराजय से दुखी होकर अलाउद्दीन ने १३११ ई० में एक विशाल सेना कमालुद्दीन के नेतृत्व में भेजी लेकिन यह सेना भी दुर्ग पर अधिकार करने में असमर्थ रही। दुर्ग में अथाह जल का भंड़ार एंव रसद आदि की पूर्ण व्यवस्था होने के कारण राजपूत सैनिक लंबे समय तक प्रतिरोध करने में सक्षम रहते थे। साथ ही इस दुर्ग की मजबूत बनावट के कारण इसे भेदना दुश्कर कार्य था। दो बार की असफलता के बाद भी अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर अधिकार का प्रयास जारी रखा तथा इसके चारों ओर घेरा डाल दिया। तात्कालीन श्रोतों से ज्ञात होता है कि जब राजपूत अपने प्राणों की बाजी लगा कर दुर्ग की रक्षा कर रहे थे, विक्रम नामक एक धोखेबाज ने सुल्तान द्वारा दिए गए प्रलोभन में शत्रुओं को दुर्ग में प्रवेश करने का गुप्त मार्ग बता दिया। जिससे शत्रु सेना दुर्ग के भीतर प्रवेश कर गई। कन्हड़देव व उसके सैनिकों ने वीरता के साथ खिलजी की सेना का मुकाबला किया और कन्हड़देव इस संघर्ष में वीर गति को प्राप्त हुआ। कन्हड़देव की मृत्यु के पश्चात भी जालौर के चौहानों ने हिम्मत नही हारी और पुन: संगठित होकर कन्हड़देव के पुत्र वीरमदेव के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा परंतु मुठ्ठी भर राजपूत रसद की कमी हो जाने के कारण शत्रुओं को ज्यादा देर तक रोक नही सके। वीरमदेव ने पेट में कटार भोंककर मृत्यु का वरण किया। इस संपूर्ण घटना का उल्लेख अखेराज चौहान के एक आश्रित लेखक पदमनाथ ने "कन्हड़देव प्रबंध" नामक ग्रंथ में किया है।
महाराणा कुंभा के काल (१४३३ ई० से १४६८ ई०) में राजस्थान में जालौर और नागौर मुस्लिम शासन के केन्द्र थे। १५५९ ई० में मारवाड़ के राठौड़ शासक मालदेव ने आक्रमण कर जालौर दुर्ग को अल्प समय के लिए अपने अधिकार में ले लिया। १६१७ ई० में मारवाड़ के ही शासक गजसिंह ने इस पर पुन: अधिकार कर लिया।
१८वीं शताब्दी के अंतिम चरण में जब मारवाड़ राज्य के राज सिंहासन के प्रश्न को लेकर महाराजा जसवंत सिंह एंव भीम सिंह के मध्य संघर्ष चल रहा था तब महाराजा मानसिंह वर्षों तक जालौर दुर्ग में रहे।
इस प्रकार १९वीं शताब्दी में भी जालौर दुर्ग मारवाड़ राज्य का एक हिस्सा था। मारवाड़ राज्य के इतिहास में जालौर दुर्ग जहां एक तरफ अपने स्थापत्य के कारण विख्यात रहा है वहीं सामरिक व सैनिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा है।
जोधपुर दुर्ग
मेहरानगढ़ दुर्ग, जोधपुर |
मारवाड़ के राठौड़ों की कीर्कित्त और वीरता तथा मान-मर्यादा का प्रतीक जोधपुर दुर्ग का निर्माण राव जोधा ने करवाया था। राज्यभिषेक के समय राठौड़ राव जोधा की राजधानी मंड़ोर में थी, परंतु सामरिक व सैनिक दृष्टि से मण्डोर के असुरक्षित होने के कारण जोधा ने नवीन दुर्ग एंव नगर की स्थापना का निश्चय कर लिया। दुर्ग की पहाड़ी के तीन ओर नगर विस्तार हेतु समतल स्थान है, वहां नगर बसा हुआ है। इसी दृष्टि से उन्होंने पहाड़ी श्रृंखला के इस छोर पर दुर्ग निर्माण का कार्य आरंभ करवाया। यह कार्य वृक्ष लग्न, स्वाति नक्षत्र, ज्येष्ठ सुदि ११, शनिवार संवत् १५१५ दिनांक १२ मई, १४५९ को आरंभ हुआ।
शहर के समतल भाग से ४०० फुट ऊँची पहाड़ी पर अवस्थित जोधपुर दुर्ग चारों ओर फैले विस्तृत मैदान को अधिकृत किए हुए है। पहाड़ी की ऊँचाई कम होने के कारण ऊँची-ऊँची विशाल प्राचीरों के बीच दीर्घकार बुजç बनवाई गई हैं तथा पहाड़ी को चारों ओर से काफी ऊँचाई तक तराशा गया है जिससे किले की सुरक्षा में वृद्धि हो। महलों के भाग में ऊँचाई १२० फुट ही रह गई है। किले का विशाल उन्नत प्राचीर २० फुट से १२० फुट तक ऊँची है जिसके मध्य गोल और चौकोर बुजç बनी हुई हैं। इनकी मोटाई १२ फुट से ७० फुट तक रखी गयी है। प्राचीर ने १५०० फुट लंबी तथा ७५० फुट चौड़ी भूमि को घेर रखा है। पहाड़ी की चोटी पर बनी मजबूत दीवारों के शीर्ष भाग पर तोपों के मोर्चे बने हैं। यहां कई विशाल सीधी उठी हुई बुजç खड़ी की गई हैं। प्राय: छ: किलोमीटर का भू-भाग इस व्यवस्था से सुरक्षित है।
नीचे के समतल मैदान से एक टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता ऊपर की ओर जाता है। इस रास्ते द्वारा कुछ घुमाव पार करने पर किले का विशाल फाटकों वाला प्रथम सुदृढ़ दरवाजा आता है। आगे चलकर छ: दरवाजे और हैं। १७०७ ई० में महाराजा अजीतसिंह ने मुगलों पर अपनी विजय के स्मारक के रुप में फतेहपोल का निर्माण करवाया था। अमृतपोल का निर्माण राव मालदेव ने करवाया, और महाराजा मानसिंह ने १८०६ ई० में जयपोल का निर्माण करवाया था। "राव जोधा का फलसा' किले का अंतिम द्वार है। लोहापोल पर कुछ वीर रमणियों के छाप लगे हुए है जो उनके सती होने के स्मारक के रुप में आज भी विद्यमान हैं।
किले की प्राचीर के नीचे दो तालाब हैं जहाँ से सेना जल प्राप्त करती थी। किले के मध्य में एक कुंड है जो ९० फुट गहरा है तथा इसे पहाड़ी की चट्टानों के मध्य खोदकर बनाया गया था। किले के अन्त: भाग में शानदार अट्टालिकाओं और प्रसादों का समूह है जो वस्तु कला का उत्कृष्ट नमूमा है। लाल पत्थरों से निर्मित ये प्रसाद वस्तुकला के उत्तम उदाहरण हैं। इन प्रसादों का निर्माण समय-समय पर होने के कारण इनमें विभिन्न वस्तु शैलियों का समावेश अपने आप हो गया है। उत्कृष्ट कलाकृतियों से अलंकृत पत्थर की काटी हुई जालियाँ से सजे हुए ये प्रासाद कला के उत्तम नमूने है। किले की ओर वाले पार्श्व भाग की प्राचीर विशेष रुप से मोटी और ऊँची है। बुजाç की परिधि यहीं सर्वाधिक है। इस प्राचीर के शीर्ष भाग पर लगी भीमकाय तोपें अब भी किले की रक्षा के तत्पर प्रतीत होती हैं। इन तोपों में कालका, किलकिला और भवानी नामक तोपें बहुत बड़ी और भारी हैं।
राजपूतों के इतिहास में राढौड़ अपनी वीरता और शौर्य के लिए बडे प्रसिद्ध रहे हैं। जोधपुर दुर्ग पर आक्रमणों का प्रांरभ राव बीकाजी के समय हुआ। राव जोधा ने बीकाजी को स्वतंत्र शासक स्वीकार कर उन्हे छत्र व चंबर देने की बात कही थी, परंतु जोधा की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी सूरसिंह ने ये वस्तुएं बीकाजी को नही दी। फलत: बीकाजी ने जोधपुर पर चढ़ाई कर दी। मारवाड़ राज्य के आन्तरिक कलह के परिणाम स्वरुप मुगलों को मारवाड़ पर अधिकार करने का अवसर मिला। मालदेव के समय १५४४ ई० में शेरशाह सूरी ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि किलेदार बरजांग तिलोकसी ने बड़ी बहादुरी से दुर्ग की रक्षा करने का प्रयत्न किया, फिर भी शेरशाह दुर्ग पर अधिकार करने में सफल हो गया। लेकिन मालदेव ने शक्ति संगठित करके पुन: दुर्ग पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
मालदेव की मृत्यु के बाद मारवाड़ राज्य में उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर संघर्ष छिड़ गया एंव यह राज्य आंतरिक कलह में डूब गया। इससे जोधपुर की शक्ति काफी क्षीण हो गई। अब मुगलों ने जोधपुर पर अधिकार करने के उद्देश्य से वि.स. १६२१ के चैत्र माह में हुसैन कुली खाँ के नेतृत्व में सेना भेजी। राव चन्द्रसेन ने चार लाख रुपये देकर संधि कर ली तथा मुगल सेना वापस लौट गई। लेकिन मुगलों ने जोधपुर पर पुन: आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के समय राव चन्द्रसेन ने ६६० सैनिकों सहित किले में रहकर रक्षात्मक युद्ध किया। लेकिन वह शक्तिशाली मुगल सेना का सामना लंबे समय तक नही कर पाया। अत: उसने मुगलों से संधि कर जोधपुर दुर्ग उन्हें सौंप दिया। अकबर के काम में मोटा राजा उदय सिंह ने मुगलों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। अत: जोधपुर दुर्ग उसे लौटा दिया गया।
सिवाना दुर्ग
सिवाना का दुर्ग जोधपुर से ५४ मील पश्चिम की ओर है। इसके पूर्व में नागौर, पश्चिम में मालानी, उत्तर में पचपदरा और दक्षिण में जालौर है। वैसे तो यह दुर्ग चारों ओर रेतीले भाग से घिरा हुआ है परंतु इसके साथ-साथ यहां छप्पन के पहाड़ों का सिलसिला पुर्व-पश्चिम की सीध में ४८ मील तक फैला हुआ है। इस पहाड़ी सिलसिले के अंतगर्त हलदेश्वर का पहाड़ सबसे ऊँचा है, जिस पर सिवाना का सुदृढ़ दुर्ग बना है।
सिवाना के दुर्ग का बड़ा गौरवशाली इतिहास है। प्रारंभ में यह प्रदेश पंवारों के आधीन था। इस वंश में वीर नारायण बड़ा प्रतापी शासक हुआ। उसी ने सिवाना दुर्ग को बनवाया था। तदन्तर यह दुर्ग चौहानों के अधिकार में आ गया। जब अलाउद्दीन ने गुजरात और मालवा को अपने अधिकार में लिया, तो इन प्रांतों में आवागमन के मार्ग को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह मार्ग में पड़ने वाले दुर्गों पर भी नियंत्रण करे। इस नीति के अनुसार उसने चित्तौड़ तथा रणथम्भौर को अपने अधिकार में कर लिया। परंतु मारवाड़ से इन प्रांतों में जाने के मार्ग तब तक सुरक्षित नही हो सकते थे जब तक जलौर और सिवाना के दुर्गों पर इसका अधिकार नही हो जाता। इस समय सिवाना चौहान शासक शीतलदेव के नियंत्रण में था। सीतलदेव ने चित्तौड़ तथा रणथम्भौर जैसे सुदृढ़ दुर्गों को खिलजी शक्ति के सामने धराशायी होते हुए देखा था। इस कारण उसके मन में भय तो था, परंतु उसने सिवाना के दुर्ग की स्वतंत्रता को बनाए रखने की कामना भी थी। वह बिना युद्ध लड़े किलों को शत्रुओं के हाथ में सौंप देना अपने वंश, परंपरा और सम्मान के विरुद्ध समझता था। उसने कई रावों और रावतों को युद्ध में परास्त किया था एवं उसकी धाक सारे राजस्थान में जमी हुई थी। अत: उसके लिए बिना युद्ध लड़े खिलजियों को दुर्ग सौंप देना असंभव था।
जब अलाउद्दीन ने देखा कि बिना युद्ध के किले पर अधिकार स्थापित करना संभव नही है तो उसने २ जुलाई १३०८ ई० को एक बड़ी सेना किले को जीतने के लिए भेजी। इस सेना ने किले को चारों ओर से घेर लिया। शाही सेना के दक्षिणी पार्श्व को दुर्ग के पूर्व और पश्चिम की तरफ लगा दिया एंव वाम पार्श्व को उत्तर की ओर। इन दोनों पाश्वाç के मध्य मलिक कमलुद्दीन के नेतृत्व में एक सैनिक टुकड़ी रखी गई। राजपूत सैनिक भी शत्रुओं का मुकाबला करने के लिए किले के बुजाç पर आ डटे। जब शत्रुओं ने मजनीकों से प्रक्षेपास्रों की बौछार शुरु की तो राजपूत सैनिकों ने अपने तीरों, गोफनों तथा तेल मे भीगे वस्रों में आग लगाकर शत्रु सेना पर फेंकना प्रारंभ किया। जब शाही सेना के कुछ दल किले की दीवारों पर चढ़ने का प्रयास करते तो राजपूत सैनिक उनके प्रयत्नों को विफल बना देते थे। लंबे समय तक शाही सेना को राजपूतों पर विजय प्राप्त करने का कोई अवसर नही मिला। इस अवधि में शत्रुओं को बड़ी छति उठानी पड़ी तथा उसके सेना नायक नाहर खाँ को अपने प्राण गंवाने पड़े। जब मुस्लिम सेना कई माह तक दुर्ग पर अधिकार में असमर्थ रही तो स्वंय अलाउद्दीन एक विशाल सेना लेकर आ गया। उसने पूरी सैन्य शक्ति के साथ दुर्ग का घेरा डाल दिया। अब तक लंबे संघर्ष के कारण दुर्ग में रसद का आभाव हो गया था। जब सर्वनाश निकट दिखाई देने लगा तो राजपूत सैनिकों ने दुर्ग के दरवाजे खोलकर शाही सेना पर धावा बोल दिया। वीर राजपूत शत्रुओं पर टुट पड़े और एक-एक करके वीरोचित गति को प्राप्त हुए। सीतल देव भी एक वीर योद्धा की तरह मारा गया। दुर्ग पर अधिकार करने के बाद अलाउद्दीन ने कमालुद्दीन को इसका सूबेदार नियुक्त किया।
जब अलाउद्दीन के बाद खिलजियों की शक्ति कमजोर पड़ने लगी तो राव मल्लीनाथ के भाई राठौड़ जैतमल ने इस दुर्ग पर कब्जा कर लिया और कई वर्षों तक जैतमलोतों की इस दुर्ग पर प्रभुता बनी रही। जब मालदेव मारवाड़ का शासक बना तो उसने सिवाना दुर्ग को अपने अधिकार में ले लिया। यहां उसने मस्लिम आक्रमणकारियों का मुकाबला करने के लिए युद्धोपयोगी सामग्री को जुटाया। अकबर के समय राव चन्द्रसेन ने सिवाना दुर्ग में रहकर बहुत समय तक मुगल सेनाओं का मुकाबला किया। परंतु अंत में चन्द्रसेन को सिवाना छोड़कर पहाड़ों में जाना पड़ा। अकबर ने अपने पोषितों के दल को बढ़ाने के लिए इस दुर्ग को राठौड़ रायमलोत को दे दिया। लेकिन जब जसबंत सिंह की मृत्यु के पश्चात् मारवाड़ में स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हुआ तो सिवाना की तरफ भी सैनिक अभियान आरंभ हो गए। इस तरह मारवाड़ के इतिहास के साथ सिवाना के शौर्य की कहानी जुड़ी हुई है।
नागौर दुर्ग
मारवाड़ के स्थल दुर्गों में नागौर दुर्ग बड़ा महत्वपूर्ण है। मारवाड़ के अन्य विशाल दुर्ग प्राय: पहाड़ी ऊँचाईयों पर स्थित है। भूमि पर निर्मित दूसरा ऐसा कोई दुर्ग नहीं है जो दृढ़ता में नागौर का मुकाबला कर सके। केन्द्रीय स्थान पर स्थित होने के कारण इस दुर्ग पर निरंतर हमले होते रहे। अत: इसकी रक्षा व्यवस्था भी समय-समय पर दृढ़तर की जाती रही।
नागौर का प्राचीन नाम अहिछत्रपुर बताया जाता है जिसे जांगल जनपद की राजधानी माना जाता था। यहां नागवंशीय क्षत्रियों ने करीब दो हजार वर्षों तक शासन किया। उन्हें आगे चलकर परमारों ने निकाल दिया।
पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर के एक सामंत ने वि०सं० १२११ की वैशाख सुदी २ को नागौर दुर्ग की नींव रखी। राजस्थान के अन्य दुर्गों की तरह इसे पहाड़ी पर नही, साधारण ऊँचाई के स्थल भाग पर बनाया गया। इसके निर्माण की एक विशेषता है कि बाहर से छोड़ा हुआ तोप का गोला प्राचीर को पार कर किले के महल को कोई नुकसान नही पहुँचा सकता यद्यपि महल प्राचीर से ऊपर उठे हुए हैं।
नागौर का प्राचीन नाम अहिछत्रपुर बताया जाता है जिसे जांगल जनपद की राजधानी माना जाता था। यहां नागवंशीय क्षत्रियों ने करीब दो हजार वर्षों तक शासन किया। उन्हें आगे चलकर परमारों ने निकाल दिया।
पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर के एक सामंत ने वि०सं० १२११ की वैशाख सुदी २ को नागौर दुर्ग की नींव रखी। राजस्थान के अन्य दुर्गों की तरह इसे पहाड़ी पर नही, साधारण ऊँचाई के स्थल भाग पर बनाया गया। इसके निर्माण की एक विशेषता है कि बाहर से छोड़ा हुआ तोप का गोला प्राचीर को पार कर किले के महल को कोई नुकसान नही पहुँचा सकता यद्यपि महल प्राचीर से ऊपर उठे हुए हैं।
नागौर का मुख्य द्वार बड़ा भव्य है। इस द्वार पर विशाल लोहे के सीखचों वाले फाटक लगे हुए हैं। दरवाजे के दोनों ओर विशाल बुर्ज और धनुषाकार शीर्ष भाग पर तीन द्वारों वाले झरोखे बने हुए हैं। यहां से आगे किले का दूसरा विशाल दरवाजा है। उसके बाद ६० डिग्री का कोण बनाता तीसरा विशाल दरवाजा है। इन दोनों दरवाजों के बीच का भाग धूधस कहलाता है। नागौर दुर्ग का धूधस वस्तु निर्माण का उत्कृष्ट नमूना है। प्रथम प्राचीर पंक्ति किले के प्रथम द्वार से ही दोनों ओर घूम जाती है। अत्याधिक मोटी और ऊँची इस ५००० फुट लंबी दीवार में २८ विशाल बुर्ज बने हुए हैं। किले का परकोटा दुहरा बना है। एक गहरी जलपूर्ण खाई प्रथम प्राचीर के चारों ओर बनी हुई थी। महाराजा कुंभा ने एक बार इस खाई को पाट दिया था, पर इसे पुन: ठीक करवा दिया गया। प्राचीरों के चारों कोनों पर बनी बुजाç की ऊँचाई १५० फुट के लगभग है। तीसरे परकोटे को पार करने पर किले का अन्त: भाग आ जाता है। किले के ६ दरवाजे है जो सिराई पोल, बिचली पोल, कचहरी पोल, सूरज पोल, धूषी पोल एंव राज पोल के नाम से जाने जाते हैं। किले के दक्षिण भाग में एक मस्जिद है। इस मस्जिद पर एक शिलालेख उत्कीर्ण है। इस मस्जिद को शाँहजहां ने बनवाया था।
केन्द्रीय स्थल पर होने के कारण इस दुर्ग को बार-बार मुगलों के आक्रमण का शिकार होना पड़ा। सन् १३९९ ई० में मण्डोर के राव चूंड़ा ने इस पर अधिकार कर लिया। महाराणा कुंभा ने भी दो बार नागौर पर बड़े जबरदस्त आक्रमण किए थे। कुम्भा के आक्रमण सफल रहे एंव इस दुर्ग पर इनका अधिकार हो गया। मारवाड़ के शासक बख्तसिंह के समय इस दुर्ग का पुननिर्माण करवाया गया। उन्होंने किले की सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत किया। मराठों ने भी इसी दुर्ग पर कई आक्रमण किए। महाराणा विजयसिंह को मराठों के हमले से बचने के लिए कई माह तक दुर्ग में रहना पड़ा था।
दुर्गों की व्यवस्था
मारवाड़ के प्रत्येक दुर्ग का सर्वोच्च अधिकारी दुर्गाध्यक्ष होता था। १२वीं शताब्दी से पहले कोटपाल नामक अधिकारी दुर्ग का प्रमुख होता था। मुगल काल के बाद इसी पद को किलेदार नाम से जाना जाने लगा। इस अधिकारी के पास सशस्र सेना होता थी जो रात को किले की निगरानी करती थी। किले के चारों तरफ भारी एंव हल्की बंदूकों से लैस जवान होते थे। जब भारत में मुगल अपनी बंदूक शक्ति के साथ आए तो इन किलों की महत्ता कम हो गयी। मुगलों के पास भारी तोपें थी जिनसे किले की दीवारों को आसानी से तोड़ा जा सकता था। मारवाड़ के शासकों ने तोपों से किलों की सुरक्षा के लिए किले के चारों तरफ खाइयां खुदवानी प्रारंभ की। इन खाईयों में बारुद भर दी जाती थी। जब कभी शत्रु सेना का आक्रमण होता तो बारुद में आग लगा दी जाती थी जिससे शत्रु किले में नही प्रवेश कर पाता था।
मध्यकाल में मारवाड़ के शासकों ने गढ़ झालना कला का विकास किया। किले पर शत्रु का अधिकार होते देख शासक व सैनिक पहाड़ों या जंगलों में भाग जाते थे जहां पर तोपों से आक्रमण होने की संभावना नही होती थी। बड़े अस्र-शस्र को लेकर इन पहाड़ियों पर शत्रु का चढ़ना संभव नही था।
मध्यकाल में मारवाड़ के शासकों ने गढ़ झालना कला का विकास किया। किले पर शत्रु का अधिकार होते देख शासक व सैनिक पहाड़ों या जंगलों में भाग जाते थे जहां पर तोपों से आक्रमण होने की संभावना नही होती थी। बड़े अस्र-शस्र को लेकर इन पहाड़ियों पर शत्रु का चढ़ना संभव नही था।
दुर्गों का प्रमुख अधिकारी
सामरिक दृष्टि से दुर्गों का विशेष महत्व होने के कारण दुर्ग प्रशासन में दुर्गपाल अथवा किलेदार का विशेष स्थान होता था। किलेदार राजा का विश्वास पात्र होता था। उस पर किले की रक्षा एंव संपूर्ण व्यवस्था का दायित्व होता था। मुसरिफ नामक अधिकारी किलेदार के नियंत्रण में होता था। किले में कार्यरत सैनिकों का विवरण रखना, उनके अस्रों-शस्रों की जाँच करना एंव उन्हें आवश्यकतानुसार नए अस्र-शस्र प्रदान करना मसर्रिफ के प्रमुख कार्य थे।
हाजरी बही से प्राप्त होता है कि जिस क्षेत्र में दुर्ग स्थित होता था और जहां विशेष खांप की जागीरे अधिक होती थीं, वहां उस खांप के व्यक्तियों को दुर्ग रक्षा के लिए नही लगाया जाता था। जोधपुर दुर्ग की रक्षा के लिए चौहानों व राठौड़ों की सेवाएं कम ली जाती थी। ऐसा विद्रोह की संभावना को कम करने के लिए किया जाता था।
दुर्गों का उपयोग
सुरक्षात्मक युद्ध दुर्गों में रहकर ही किये जाते थे। बाहरी आक्रमण के समय यदि शत्रुदल अधिक शक्तिशाली होता था तो खुले मैदान में युद्ध करना अहितकर समक्षकर राजा दुर्ग में सेना सहित शरण ले लेते थे और दुर्ग के द्वार बंद करवा देते थे। जब शासक किलों में सुरक्षित रहते हुए शत्रु का मुकाबला करता था तो इस युद्ध को "गढ़ झालणों" कहा जाता था।
मारवाड़ के अधिकांश दुर्गों का उपयोग शासक अपने आवास व सुरक्षात्मक युद्धों के लिए करते थे। युद्ध से पूर्व दुर्ग में रसद आदि की व्यवस्था कर ली जाती थी। दुर्गों में भण्ड़ार होते थे जिनका उपयोग आपातकाल में किया जाता था। अनाज, तेल, घास, अस्र-शस्र और रसद आदि का भंड़ारण किया जाता था।
मारवाड़ के अधिकांश दुर्गों का उपयोग शासक अपने आवास व सुरक्षात्मक युद्धों के लिए करते थे। युद्ध से पूर्व दुर्ग में रसद आदि की व्यवस्था कर ली जाती थी। दुर्गों में भण्ड़ार होते थे जिनका उपयोग आपातकाल में किया जाता था। अनाज, तेल, घास, अस्र-शस्र और रसद आदि का भंड़ारण किया जाता था।
महाराजा मानसिंह के काल में कृष्णाकुमारी विवाद को लेकर जयपुर की सेनाओं ने जोधपुर दुर्ग को घेर लिया। अत: उसने दुर्ग के भीतर रह कर जयपुर सेना का मुकाबला करने का निश्चय किया। जयपुर की सेना ने १३ मई १८०७ को दुर्ग सेना पर प्रबल आक्रमण किया। किन्तु दुर्ग रक्षकों ने दुर्ग पर शत्रुओं का अधिकार नही होने दिया।
दुर्गों में अस्र-शस्र निर्माण के कारखाने होते थे। मारवाड़ के इन दुर्गों का उपयोग भगोड़े शासकों व सैनिकों को शरण देने के लिए भी किया जाता था।
दुर्ग की रक्षा के लिए शत्रु पर आग और गर्म तेल फेकना, बारुद जलाना आदि उपाय भी काम में लिये जाते थे। १८०७ में जयपुर सेना ने जोधपुर दुर्ग का घेरा डाला था तो उस समय जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने तीन मन तेल गरम करवा कर उसे फतेहपोल से नीचे डलवाया था जिससे जयपुर की सेना के बहुत से सैनिक जल गए तथा उन्होंने घेरा उठा लिया।विरासत का संरक्षण
भारतवर्ष के मानचित्र पर राजस्थान प्रदेश राजनैतिक, भौगोलिक एवं प्राकृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह संस्कारों एवं पवित्र रिश्तों का प्रदेश है। यहाँ की समृद्व विरासत (धरोहर) का एक लम्बा गौरवशाली इतिहास रहा है। यहाँ के राजाओं, सामन्तों, सेठ-साहुकारों और प्रबुद्व नागरिको ने समय-समय पर जिन महलों किलों, हवेलियों, छत्ररियों, झीलों, बावडियों, स्तम्भों, मन्दिरों, स्मारकों आदि का निर्माण करवाया था, वो स्थापत्य कला की दृष्टि से अद्भुत एवं बेजोड़ हैं। राजस्थान की समृद्व धरोहर है। इनकों देखकर उस समय के तकनीकी, कला एवं विज्ञान के उच्च स्तर का पता चलता है, इसलिए राजस्थान धरोहरों का प्रदेश है।
राजस्थान की समृद्व सांस्कृतिक विरासत में प्रमुखरूप से दो पक्ष हैः प्रथम-साहित्य तथा द्वितीय-कला।
राजस्थान की समृद्व सांस्कृतिक विरासत में प्रमुखरूप से दो पक्ष हैः प्रथम-साहित्य तथा द्वितीय-कला।
- साहित्य : राजस्थान में साहित्य संस्कृत तथा प्राकृतभाषा में लिखा जान पड़ता है। पूर्व मध्ययुग (700-1000 ई.) में अपभ्रंश भाषा के विकास के कारण इसमें भी साहित्य लिखा गया। कुछ विद्वान मानते हैं कि प्राकृत भाषा से डिगंल तथा डिंगल से गुजराती और मारवाडी़ भाषाओं का विकास हुआ। संस्कृत से पिंगल तथा इससे ब्रज और खडी़ हिन्दी का विकास हुआ। भाषा विद्वानों के अनुसार राजस्थान की प्रमुख भाषा मरू भाषा है। मरूभाषा को ही मरूवाणी तथा मारवाडी़ कहां जाता है। डाॅ. सुनीति कुमार चटर्जी ने राजस्थानी भाषा के लिए डिगंल अथवा मारवाडी़ भाषा का प्रयोग किया है। आठवी शताब्दी ई0 में उद्योतन सूरि ने अपनें ग्रन्थ कुवलयमाला मंे मरू, गुर्जर, लाट और मालवा प्रदेश की भाषाओं का उल्लेख किया है। जैन कवियों के ग्रन्थों की भाषा भी मरू भाषा है।
- राजस्थानी साहित्य : राजस्थानी साहित्य, समृद्व साहित्य है जिसके अन्तर्गत रचना की दृष्टि से विविधता हैं, यही राजस्थान की विरासत है। राजस्थानी सम्पूर्ण राजस्थान की भाषा रही हैं, इसकी कृतियों को 4 भगों में विभक्त किया जा सकता है:-
(1) चारण साहित्य की कृतियाँ (2) जैन साहित्य की कृतियाँ (3) संत साहित्य की कृतियाँ (4) लोक साहित्य की कृतियाँ।
चारण साहित्य राजस्थानी भाषा का सबसे समृद्व साहित्य है। चारण कवियों ने इसका लेखन किया है। यह साहित्य वीर रस से ओत-प्रोत है। यह साहित्य प्रबन्ध काव्यों, गीतों, दोहों, सौरठों, कुण्डलियों, छप्पयों, सवैयों आदि छन्दों में उपलब्ध है। चारणसाहित्य मंे अचलदास खींची री वचनिका, पृथ्वीराज रासो, सूरज प्रकाश, वंशभास्कर, बाकीदास ग्रन्थावली आदि प्रमुख हैं। जैन साहित्य के अन्तर्गत वह साहित्य आता है, जो जैनमुनियों द्वारा लिखित है। वज्रसेन सूरिकृत-भरतेश्वर बाहुबलि घोर, शालिचंन्द्र सूरि कृत-भरतेश्वर बाहुवलिरास प्राचीन राजस्थानी ग्रन्थ हैं।कालान्तर में बृद्धिरास, जंबूस्वामी चरित, आबरास, स्थूलिभद्ररास, रेवंतगिरिरास, जीवदयारासु तथा चन्दनबाला रास आदि ग्रन्थों की रचना हुई।राजस्थान के साहित्यिक विरासत में संतसाहित्य का उल्ेखनीय स्थान है। भक्ति आन्दोलन के समय दादू पंथियों और राम स्नेही सन्तों ने साहित्य का सृजन किया। इसके अतिरिक्त मीराबाई के पद, महाकवि वृंद के दोहे, नाभादास कृत वैष्णव भक्तों के जीवन चरित, पृथ्वीराज राठौड़ (पीथल) कृत वेलिक्रिसन रूकमणी
री, सुन्दर कुंवरी के राम रहस्य पद, तथा सुन्दरदास और जांभोजी की रचनाएं आदि महत्वपूर्ण हैं। राजस्थान का लोक साहित्य भी समृद्व है। इसके अन्तर्गत लोकगीत, लोक गथाएं, लोक नाट्य, पहेलियाँ, प्रेम कथाएँ और फडें आदि है।तीज, त्यौहार, विवाह, जन्म, देवपूजन और मेले अधिकतर गीत लोक साहित्य का भाग हैं। राजस्थान में ‘फड’ का प्रचलन भी हैं।
किसी कपड़े पर लोक देवता का चित्रण किया जाकर उसके माध्यम से ऐतिहासिक व पौराणिक कथा का प्रस्तुतिकरण किया जाना ‘फड़’ कहलाता है जैसे- देवनारायण महाराज की फड़ बापूजी री फड़ आदि। विधा की दृष्टि से राजस्थानी साहित्य को दो भागों मंे बाँटा जा सकता है : (1) पद्य साहित्य (2) गद्य साहित्य।
(1) पद्य साहित्य
पद्य साहित्य मंे दूहा, सोरठा, गीत, कुण्डलियाँ, छंद छप्पय आदि आते हैं।
(2) गद्य साहित्य
गद्य साहित्य के अन्तर्गत वात, वचनिका, ख्यात दवावैत, वंशावली, पटृावली, पीढि़यावली, दफ्तर, विगत एवं हकीकत आदि आते हैं।
इसके अतिरिक्त हरिदास भार कृत-अजीतसिंह चरित, उदयराम बारठ कृत-अवधान, पद्मनाभकृत- कान्हडदे प्रबन्ध, दुरसा आढ़ा कृत-किरतार बावनी दलपति विजया या दौलत विजय कृत-खुमंाण रासो, शिवदास कृत-गजगुणरूपक, अमरनाथ जोगी कृत-रालालैंग, कवि धर्म कृत-जम्बूस्वामीरास, कविराज, मृरारिदास कृत-डींगक कोश, हरराजकृत ढो़ला मारवाडी़, चंद दादी कृत-ढो़ला मारूरा दोहा, बांकीदास कृत- बांकीदास री ख्यात, नरपति नाल्ह कृत- बीसलदेव रासो, बीठलदास कृत-रूकमणिहरण, श्यामलदास कृत-बीरविनोद ईसरदास कृत-हाला झाला री कुण्डलियाँ तथा भांड़ड व्यास कृत-हमीरायण आदि राजस्थानी भाषा के प्रमुख ग्रन्थ है। यह सम्पूर्ण राजस्थानी साहित्य हमारी समृद्ध धरोहर है।
- राजस्थान की स्थापत्य कला - एक समृद्ध विरासत : संस्कृति के आधार पर ही राष्ट्र की उपलब्धियों एवं उन्नति का आकलन होता है। संस्कृति आन्तरिक वस्तु है और व्यापक हैं। कला संस्कृति की गाडी़ होती है। कला संस्कृति का ही अंग है। कला संस्कृति की भाषा है। कला ही संस्कृति को मूलरूप प्रदान करती है। कला की सामग्री से जीवन व रहन-सहन के विभिन्न बौद्धिक पहलुओं का इतिहास लिखा जासकता है। राजस्थान में स्थापत्य कला का विकास गुप्तों के समय अपने उत्कर्ष पर था। हूणों के आक्रमणसे राजस्थान के स्थापत्य को नुकसान हुआ। पूर्वमध्यकाल में (700-1000ई.) जब गुर्जर-प्रतिहार शासकों ने राजस्थान क्षेत्र पर अपना शासन जमाया तो वे स्थापित के विकास के मामले में गुप्तों के उत्तराधिकारी साबित हुए। इस काल में बडी़ संख्या में मन्दिर बनें, जो गुर्जर-प्रतिहार शैली अथवा ‘महामारू’ शैली के नाम से जाने जाते हैं- (देखें-राजस्थान ज्ञान कोश-मोहनलाल गुप्ता) जैम्स बर्जेस तथा जैम्स फग्र्युसन ने इन मन्दिरों के लिए आर्यावर्त शैली या इण्डोआर्यन शैली का प्रयोग किया है। कला शिल्प, भाव प्रधानता अंग सौण्ठव, प्रतीकात्मक तथा धर्म प्रधानता इस शैली की विशेषता रही है।
- दुर्ग : राजस्थान के राजा, महाराजा, सामंत व ठिकानेदारों ने राज्य की तथा स्वंय की रक्षा हेतु बडी़ संख्या में दुर्गों का निर्माण किया। कुछ दुर्ग सामरिक दृष्टि से अति उपयोगी थे। आज हमारे प्रदेश की ये धरोहर हैं। शुक्र नीति में नौ प्रकार के दुर्गों का उल्ल्ेख है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में दुर्गों की चार श्रेणियां निर्धारित की है:- 1. औदृक, 2. पार्वत, 3. धान्वन 4. वन दुर्ग। कुछ विद्वान स्थल पर बने दुर्ग की भी एक पृथक श्रेणी- स्थल दुर्ग को मानते है। राजस्थान में ये सभी प्रकार के दुर्ग पाये जाते हैं।
- औदुक दुर्गः- यह जल दुर्ग है। गागरौन दुर्ग इसी प्रकार है।
- पार्वत दुर्गः- यह उच्च पहाड़ पर स्थित होता है। जालोर, सिवाना, चित्तौड़, रणथम्भौर, तारागढ़ मेहरनगढ़, जयगढ़ आदि दुर्ग इसी श्रेणी के पार्वत दुर्ग हैं।
- धान्वन दुर्गः- मरूभूमि में बना हुआ दुर्ग धान्वन दुर्ग कहलाता है। जैसलमेर का दुर्ग इसी श्रेणी का है।
- वन दुर्गः- जंगल में बना हुआ वन दुर्ग होता है। सिवांना का दुर्ग इसी कोटि का है।
- स्थल दुर्गः- बीकानेर, नागौर, चैमू तथा माधोराजपुरा का दुर्ग इसी श्रेणी में आते हैं। चितौडगढ़ का किला धन्व दुर्ग श्रेणी को छोड़कर सभी श्रेणियों की विशेषताएँ रखता है। इसी कारण राजस्थान में एक कहावत है, कि गढ़ तो गढ़ चित्तौड़गढ़ बाकी सब गढैया। मिट्टी के किले- हनुमानगंढ का भटनेर तथा भरतपुर का लोहागढ़ हैं।
- राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -
- अचलगढ़:- 900 ई0 में इस दुर्ग का निर्माण परमार राजाओं ने करवाया था।
- अलवर दुर्गः- इसे बाला किला के नाम से भी जानते है। 300 मीटर ऊँचा तथा 5 कि.मी. के आकार से घिरा यह दुर्ग निकुंभ क्षत्रियों द्वारा निर्मित है। हसन खां मेवाती ने इसकी मरम्मत करवाई थी। 1775 ई. में कच्छवाह राजा प्रतापसिंह ने इस पर अधिकार कर लिया था। इसमंे जलमहल व निकुंभ महल सुन्दर हैं। इस दुर्ग में जहाँगीर तीन साल तक रहा था इसलिए उसे सलीम महल भी कहते हैं।
- आम्बेर का किलाः- यह पार्वत्य दुर्ग है। जयपुर नगर से 10 कि.मी. उत्तर की ओर स्थित है। दुर्ग के दो तरफ पहाडि़याँ और एक तरफ जलाशय हैं। हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य कला का मिश्रण है। दुर्ग में स्थित रंगमहल, दिलखुश महल तथा शीशमहल दर्शनीय है।
- कुंभलगढ़:- 1458 ई. में. निर्मित यह दुर्ग शिल्पी मंडन के निर्देशन मंे पूरा हुआ था। इस कुंभाल मेरू भी कहते हैं। यह राजस्थान के सर्वगधिक सुरक्षित किलों में से एक है।
- गागरोन का किलाः- काली सिन्ध नदी के तट पर स्थित यह किला जल दुर्ग श्रेणी का है इसका निर्माण 11 वीं शताब्दी में परमाराें द्वारा करवाया गया था। अब यह झालावाड़ जिले में स्थित हैं। इसमंे सिक्के ढालने की टकसाल भी स्थापित की गयी थी।
- चित्तौड़गढ़:- इसका वास्तविक नाम चित्रकूट हैं। इसे 7 वीं शताब्दी मंे चित्रांगद मोरी ने बनवाया था। कालान्तर में इसमें निर्माण होते रहे। 1302 ई. में अल्लाउद्ीन खिलजी ने रतनसिंह को मारकर इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। यह दुर्ग 616 फिट ऊँचे एक पठार पर स्थित है इसके 7 दरवाजे हैं। इसमें पदमिनी महल, गोरा एवं बादल महल, पत्ता की हवेलियाँ, जैमलजी तालाब, मीरा बाई का मन्दिर तथा जैन मन्दिर आदि स्थित हैं। नौखण्डा विजय स्त्तम्भ इस दुर्ग की सबसे सुन्दर इमारत है।
- चुरू का दुर्गः- यह दुर्ग सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा है। इसकी पहचान राष्ट्रीय धरोहर के रूप मंे है। 1857 के विद्रोह में ठाकुर शिवसिंह ने अंग्रेजों का जमकर मुकाबला किया। अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध में जब गोले (तोप के) समाप्त हो गये तो लुहारों ने लोहे के गोले बनाये किन्तु कुछ समय बाद गोले बनाने के लिए शीशा समाप्त हो गया। ऐसी कहावत है कि साहुकारों एवं जन सामान्य ने ठाकुर को घरों से चांदी लाकर समर्पित कर दी। जब अंग्रेज शत्रु पर चांदी के गोले जाकर गिरे तो शत्रु हैरान रह गया। इससे बडा़ राष्ट्रीयता का उदाहरण नहीं हो सकता।
- जयगढ़ः- जयपुर का यह दुर्ग गढ़ था। इसका निर्माण मिर्जा राजा जयसिंह (1620-1667ई.) ने करवाया था। यह 500 फिट ऊँची पर्वतीय शिखर पर स्थित है। इसके चारो ओर सुरक्षा के लिए मजबूत चार दीवारी बनायी गयी है। इसमें शस्त्रागार भी है। यहीं पर जयबाण नामक तोप स्थित है जिसका निर्माण इसी शस्त्रागार में हुआ था।
- जालोर दुर्गः- यह दुर्ग दिल्ली-गुजरात जाने वाले मार्ग पर स्थित है। युद्ध की दृष्टि से यह किला सबसे सुदृढ़ हैं। अल्लउद्ीन खिलजी ने कई वर्षो तक इसकी घेरा बन्दी की लेकिन इसमें प्रवेश नहीं कर सका। बाद में 1314 में कान्हड़दे के आदमियों की गद्ारी से किले का पतन हुआ। इसका निर्माण कार्य गुर्जर-प्रतिहार राजा नागभटृ प्रथम ने प्रारम्भ किया था। बाद में परमारों ने इसे पूरा करवाया। स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय मथुरादास माथुर, फतहराज जोशी, गणेशीलाल व्यास तथा तुलसीदास राठी आदि नेताओं को इस दुर्ग में नजरबन्द किया था।
- जैसलमेर दुर्गः- इसे सोनार गढ़ भी कहते हैं। इसका निर्माण, रावल जैसल भाटी ने, 1155 ई. में करवाया था। इसके चारों ओर विशाल मरूस्थल फैला हुआ हैं, अतः यह धान्व श्रेणी के दुर्ग में आता है। दुर्ग में स्थित रंग महल, राजमहल, मोती महल, एवं दुर्ग संग्रहालय दर्शनीय हैं। इसमे कई महल, मन्दिर तथा आवासीय भवन बने हुए है। वर्तमान में राजस्थान में दो ही दुर्ग ऐसे है जिनमें लोग निवास करते हैं। उनमें से एक चित्तौड़गढ़ का दुर्ग है तथा दुसरा जैसलमेर का दुर्ग है।
- तारागढ़:- इसे गढ़ बीठली भी कहते हैं। अरावली की पहाडि़यों पर निर्मित तारागढ़ दुर्ग समुद्र तल से 870 मीटर तथा धरातल से 265 मीटर ऊँचाई पर स्थित है। चैहान वंशीय अजयराज ने इस दुर्ग का निर्माण करवाया था मेवाड़ महाराणा रायमल के पुत्र पृथ्वीराज ने इस दुर्ग में कुछ महल आदि बनवाये थे जिसके कारण इसका नाम अपनी पत्नी ताराबाई के नाम पर तारागढ़ रख दिया। राजस्थान मे तारागढ़ के नाम से दो दुर्ग हैं। पहला अजमेर में तथा दुसरा दुर्ग बून्दी में है।
- बीकानेर दुर्गः- इसको जूनागढ़ भी कहते हैं। यह मरू दुर्ग की श्रेणी में आता हैं। इस दुर्ग की नींव महाराज रायसिंह ने 17 फरवरी 1589 ई. में रखी थी। इसको बनने में लगभग 5 वर्ष लगे थे। इसकी दीवारे 40 फिट ऊँची तथा 15 फिट चैड़ी हैं जो सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत हैं। दुर्ग की प्राचीरे अधिकांशतः लाल पत्थर से निर्मित हैं। दुर्ग परिसर में फूलमहल शीशे का बना हुआ है जो बेजोड़ व अद्भुत है। इसमें सोने की नक्काशी और चित्रकला का काम अनूठा है। इसमें महाराजा गंगासिंह का कार्यलय भी उत्कृष्ट है।
- भटनेर का किलाः- हनुमानगढ़ जिला मुख्यालय पर स्थित यह किला लगभग 50 बीघा भूमि मे विस्तृत है। यह दुर्ग प्राचीन है। मूल दुर्ग मिटृी का था। बादमें समय-समय पर इसका पक्की ईटों से निर्माण होता रहा। इसे राजस्थान की उत्तरी सीमा का प्रहरी कहा जाता है।
- मांडलगढ़ दुर्गः- भीलवाडा़ जिले मंे स्थित यह दुर्ग गोलाई में बना हुआ है। लोक कहावतों के अनुसार माण्डिया के नाम पर इस दुर्ग का नाम माण्डलगढ़ पडा़। इसका निर्माण शांकभरी के चैहानों ने 12 वीं शताब्दी में करवाया था। इसमंे निर्मित जैन मन्दिर दर्शनीय हैं।
- मेहरानगढ़:- पार्वत्य दुर्ग की श्रेणी का यह दुर्ग जोधपुर के उत्तर मे मेहरान पहाडी़ पर स्थित हैं वास्तुकला की दृष्टि से बेजोड़ कृति हैं। यह मयुराकृति में है। इसलिए यह मयूरानगढ़ कहलाता था। इसकी स्थापना नीव राव जोधा ने रखी थी। एक तान्त्रिक अनुष्ठान के तहत दुर्ग की नीवं मे राजिया नामक व्यक्ति जिन्दा चुन दिया गया था। इसके ऊपर खजाने की इमारते बनायी गयी थी। दुर्ग के चारों ओर सुदृढ़ 20 से 120 फिट ऊँची दीवारे बनाई गई जो 12 से 20 फिट चैडी़ हैं। इसके अन्दर एक विशाल पुस्तकालय भी हैं। दुर्ग के अन्दर मोतीमहल, फतहमहल, फूला महल तथा सिंगार महल दर्शनीय है। किले में अनेक प्राचीन तोपें है।
- रणथम्भौर:- सवाईमाधोपुर में स्थित यह दुर्ग पार्वत्य दुर्ग हैं। इसको निर्माण 8 वीं शताब्दी मंे अजमेर के चैहान शासकों द्वारा पहाडि़यों से घिरा हुआ है। यह दुर्ग रवाइयों एवं नालो से आवृत हैं। ये नाले चम्बल व बनास मे जाकर गिरते हैं। यह गिरि शिखर पर निर्मित है। इस तक पहुँचने के लिए संकरी घुमावदार घाटियों से होकर जाने वाले मार्ग से गुजरना पड़ता है। दुर्ग में 32 खम्भों की छतरी, जैन मन्दिर, लक्ष्मी मन्दिर तथा गणेश मन्दिर स्थित है।
- सिवाना दुर्ग:- बाड़मेर जिले मंे स्थित यह दुर्ग परमार शासकों द्वारा 954 ई. में बनवाया गया था। यह ऊँची पहाडी़ पर निर्मित हैं। अल्लाउदीन खिलजी के समय यह दुर्ग कान्हडदेव के भतीजे सातलदेव के अधिकार में था। अल्लाउद्ीन ने जालौर आक्रमण के दौरान इस दुर्ग पर कडी़ मेहनत के बाद अधिकार कर लिया था। जौधपुर के राठौड़ नरेशों के लिए यह दुर्ग संकटकाल में शरण स्थली रहा है। यह वर्तमान में राजस्थान के दुर्गो में सबसे पुराना दुर्ग है। इस पर कूमट नामक झाडी़ बहुतायत में मिलती थी, जिससे इसे कूमट दुर्ग भी कहते हैं।
- लोहागढ़:- इस दुर्ग को 1733 ई. में जाट राजा सूरजमल ने बनवाया था। दुर्ग पत्थर की पक्की दीवार से घिरा हुआ है। इसके चारों ओर 100 फिट चैडी़ खाई है। खाई के बाहर मिट्टी की एक ऊँची प्राचीर है। इस तरह यह दुर्ग दोहरी दीवारों से घिरा हुआ है अहमदशाह-अब्दाली एवं जनरल लेक जैसे आक्रमणकारी भी इस दुर्ग में प्रवेश नहीं कर सके थे। दुर्ग में प्रवेश के लिए केवल दो पुल बनाये गये हैं। इसमें एक पुल पर बना हुआ दरवाजा अष्ठ धातुओं का है। यह दरवाजा महाराजा जवाहरसिंह 1765 ई. में. मुगलों को परास्त कर लाल किले से उतार कर लाया था। इस दुर्ग के निर्माण में 8 वर्ष लगे। यद्यपि राजा जसंवत सिंह (1853-93) के काल तक इसका निर्माण कार्य चलता रहा। इसमें 8 विशाल बुर्जे हैं। इनमें सबसे प्रमुख जवाहर बुर्ज हैं, जो महाराजा जवाहरसिंह की दिल्ली फतह के स्मारक के रूप में बनायी गयी थी। फतेहबुर्ज अंग्रेजों पर फतह के स्मारक के रूप में 1806 ई0 में बनायी थी। यह दुर्ग स्थल दुर्गो की श्रेणी में विश्व का प्रथम दुर्ग है। दुर्ग में कई महल दर्शनीय है। 17 मार्च, 1948 को मत्स्य संघ का उद्घाटन समारोह भी दुर्ग में हुआ था।
- राज प्रसाद : राजस्थान में राजाओं, महाराजाओं, सामन्तों, ठिकानेदारों आदि ने अपने निवास के लिए महलों का निर्माण करवाया था, उनमें कुछ नष्ट हो गये तथा कुछ स्थानों के महल सुरक्षित हैं। बैराठ, नागदा, राजोरगढ़, भीनमाल तथा जालौर आदि स्थानों के महल नष्ट हो गये हैं, फिर भी जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर, अलवर, कोटा, बूदी, करौली एवं जयपुर के महल सुरक्षित हैं, और उनमें उनके वंशज रहते है। मुगलों के सम्पर्क से पूर्व के राजमहल सादगीपूर्ण तथा छोटे-छोटे कमरों वाले होते थे। जब राजस्थान के राजाओं का सम्पर्क मुगलों से हुआ तब नयी विधा का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। अब महलों में जलाशय, फव्वारे, उपवन, बाग-बगीचे, तोपखाना, शास्त्रागार, गवाक्ष, झरोखे, रगंमहल आदि बनाये जाने लगे। इस समय के प्रासादों का स्थापत्य कला
उत्कृष्ट है।- उदयपुर का महल:- उदयपुर के राजमहल के बारे में फग्र्यूसन लिखता हैं कि राजपूताने का यह सबसे बडा़ महल हैं तथा लंदन के विण्डसर महल की तरह विशाल हैं।
- करौली राजमहल:- यह महल एक विशाल परकोटे से घिरा हुआ है। इसमें भित्तिचित्रों का अच्छा अंकन है। इसमें सफेद चंदन से महकने वाले उद्यान मंे 50 चदंन के वृक्ष हैं।
- कोटा का हवामहल:- यह कोटा के गढ़ के पास निर्मित हवामहल हिन्दू स्थापत्य कला का सुन्दर नमूना है।
- जयनिवास महल:- महाराजा जयसिंह द्वारा निर्मित राज प्रासाद जयनिवास कहलाता है। यह जयपुर में स्थित हैं, इसे अब सिटी पैलेस भी कहते हैं। इसका मुख्य द्वार त्रिपोलिया कहलाता हैं। यह दरवाजा केवल पूर्व महाराजा के लिए या गणगौर की सवारी के लिए ही खोला जाता है। इसमें यूरोपीय तथा भारतीय भवन निर्माण पद्धति का मिश्रण है। इसी परिवार में सवाई माधोसिंह द्वारा निर्मित मुबारक महल भी हैं।
- हवामहल (जयपुर):- 1799 ई. मे. निर्मित हवामहल पिरामिड की आकृति मंे है। इसमें छोटी-छोटी खिड़कियाँ हैं, इसलिए इसको हवामहल कहा जाता है।
- तलहटी महल:- मेहरानगढ़ की तलहटी में एक विशाल चटृान पर राजा सूरसिंह ने रानी सौभाग्य देवी के लिए महलों का निर्माण करवाया था।
- उम्मेद महल:- इसे छीतर महल भी कहते हैं। यह अत्याधुनिक महल है। 1929 में राजा उम्मेदसिंह ने बनवाया था। इसमंे पाँच सितारा होटल भी चलता है। हेरीटेज होटल के रूप में विकसित है। यह जोधपुर में स्थित हैं।
- राई का बाग पेलेस:- जोधपुर मंे स्थित इस महल को राजा जसंवत सिंह प्रथम की रानी हाड़ीजी ने 1663 ई. में बनवाया था। 1883 ई. में दयानन्द सरस्वती ने इसी महल में बैठकर राजा को उपदेश दिया था।
- काष्ठ प्रासाद:- यह झालावाड़ में स्थित हैं लकडी़ से निर्मित यह महल राजा राजेन्द्र सिंह ने 1936 ई0 में बनवाया था। यह महल तीन हजार पाँच सौ वर्ग फुट फैला हुआ है।
- बंूदी के राज महल:- यहाँ के राज महल राजस्थान के महलों मंे अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं, जिस राजा ने जिस महल का निर्माण करवाया, उनके नाम लिखे हुए है। यहाँ पर प्राचीन समय की पानी घडी़ लगी हुई है।
- मन्दिर शिल्प : राजस्थान मंे मन्दिर निर्माण के प्रमाण 7 वीं शताब्दी से भी पूर्व मिलते हैं। मन्दिर शिल्प का चरमोत्कर्ष राजस्थान में 8 वीं से 11 वीं शताब्दी के मध्य देखा जा सकता है। राजस्थान में झालरापाटन का शीतलेश्वर महादेव का पहला मन्दिर है जिसके पास निर्माण तिथि है। आठवीं से बारहवीं शती तक का काल गुर्जर-प्रतिहारों का समय है। मन्दिर शिल्प निर्माण की दृष्टि से यह काल राजस्थान का स्वर्ण युग है। मण्डोर, मेड़ता तथा जालौर के गुर्जर-प्रतिहारों के नेतृत्व में जो कला आन्दोलन विकसित हुआ वह ‘महामारू’ शैली कहलाता है। इस शैली का विस्तार मरू प्रदेश से निकलकर आभानेरी (बांदीकुई), चित्तौड़, बाडौली तक हुआ। इस वंश के शासक धार्मिक सहिष्णु व कलानुरागी थे, इसलिए इसकाल में शैव, वैष्णव, शाक्त तथा जैन मन्दिरों का निर्माण बहुतायत में हुआ।
इस शैली के प्रमुख केन्द्र चित्तौड़, आँसिया व आभानेरी हैं।ओसियाँ में बौद्ध कला, जैनकला तथा गुप्तकाल का गुर्जर-प्रतिहारकाल में समन्वय देखनें को मिलता है। खुजराहों में मन्दिर कला का जो उत्कर्ष मिलता है उसका आधार प्रतिहारकालीन गुर्जर मारू अथवा महामारू शैली ने ही तैयार किया है। अलवर जिले की मन्दिरां की श्रृखंला दसवी शताब्दी की है। हिन्दू मन्दिरों के साथ-साथ जैन मन्दिरों का भी निर्माण करवाया गया। आॅसिया में गुर्जर-प्रतिहार शासक वत्सराज ने 8 वीं शताब्दी मंे जो महावीर जी का जैन मन्दिर बनवाया था, जो अब तक का प्राचीनतम जैन मन्दिर है। माउण्ट आबू के देलवाडा़ जैन मन्दिर वास्तुकला के बेजोड़ नमूने हैं। 12 वीं से 16 वीं शताब्दी के मध्य निर्मित मन्दिर सुरक्षा की दृष्टि से दुर्गो में ही बनते रहें ताकि शत्रु से सुरक्षित रह सके। 17 वीं शताब्दी और उसके बाद मुगल शासकों के डर से उत्तरी भारत के मठो व मन्दिरों के आचार्य व पुजारी देव मूर्तिया लेकर राजाओं से आश्रय पाने के अभिप्राय से राजस्थान में आ गये। इनमंे राद्यावल्लभ, निम्बार्क व पृष्टि मार्ग के आचार्य विशेष उल्लेखनीय है।
इस क्रम मे इन विचार धाराओं के मन्दिर सिहांड़, नाथद्वारा, कांकरोली, चारभुजा, कोटा, डूंगरपुर एवं जयपुर आदि स्थानों पर बनाये गये।
इस प्रकार मन्दिर स्थापत्य कला राजस्थान की उद्भुत विरासत हैं, जिन्हें देखने और अध्ययन करने विदेशों से कला मर्मज्ञ विद्धान जन राजस्थान आते रहते हैं। मूर्तिकला में, आभानेरी, अटरू, आबू, नागदा, चित्तौड़ किराड़, आॅसियाँ, सीकार आदि स्थानों की अद्र्यनारीश्वर व नृत्य मातृकायें मूर्तियाँ दर्शनीय है। गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल में राजस्थान की मूर्ति शिल्प में नवीन, भरतपुर, बैराठ, डूंगरपुर आदि स्थानों से शिव, विष्णु, याक्ष आदि की मूर्तिया प्राप्त हुई हैं। भरतपुर की बदलदेव की 27 फुट ऊँची मूर्ति इस कला का उद्भुत उदाहरण हैं।
गुर्जर-प्रतिहारों का काल देवी-देवताओं की मूर्तियों में माधुर्य एवं कोमलता के साथ साथ शक्ति व शौर्य का मिश्रण मिलता है। उदयपुर में नागदा का सास-बहू मन्दिर की लक्षण कला अति उत्तम है। आँसिया के मन्दिर में एक आभीर कन्या का अंकन दर्शनीय है। अर्थूणा (बाॅसवाडा़) गाँव में शिल्प व स्थापत्य का प्राचीन खजाना खेतों में बिखरा पडा़ है। यह पुरातात्विक व धरोहर के दृष्टिकोण से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहां शिव मन्दिर हैं। ऐसे ही आभानेरी (बाँदी कुई) का स्थापत्य अवशेष व मूतियाँ चारों ओर बिखरा पडा़ हैं जहाँ पर हर्षत माता का मन्दिर है।
- राजस्थान के प्रसिद्ध मन्दिर : अजमेर जिले में, पुष्कर-ब्रह्मामन्दिर, सावित्री मन्दिर, वराह मन्दिर, नौग्रह मन्दिर रंगनाथ मन्दिर, तथा वराह मन्दिर आदि। अलवर में-नीलकण्ठ मंदिर।
उदयपुर में -आबूनाथ मंदिर-नागदा। करौली में कैला मैया मन्दिर। टौंक जिले में कल्याण का मंदिर-डिग्गी।डूंगरपुर जिले में- देव सोमनाथ मन्दिर, गवरीबाई का मन्दिर, एवं श्रीनाथ मन्दिर। चित्तौड़गढ़:- मीराबाई मन्दिर, कालिका माता मन्दिर, सांवलिया सेठ मन्दिर-मण्डाफिया। चुरू:-सालासर बालाजी-सालासर, गोगाजी की जन्मस्थली-गोगामेडी़। जयपुर:- गढ़ गणेश मन्दिर (मोती डूंगरी), गोविन्द देवजी मन्दिर, ताडकेश्वर मन्दिर, तीर्थराज, गलताजी-जयपुर। आमेर में सूर्य मन्दिर, जगतशिरोमणि मंदिर, नृसिंह मन्दिर, शिला देवी मन्दिर। कल्याण जी मन्दिर -डिग्गी। जालौर:- चामुण्डा मन्दिर-आहोर, पातालेश्वर मन्दिर-सेवाडा़, वराह श्याम मन्दिर-भीनमाल। जैसलमेर:-हिंगलाज देवी मन्दिर, नीलकण्ठ महोदव, रामेदवरा मन्दिर-रामदेवरा, तणोर देवी मंदिर-तणोट। झालावाड़:-सुर्यमन्दिर, कालिकामन्दिर, कराहमन्दिर, सातसहेली मन्दिर-झालरापाटन। झुन्झुनू:- द्वारकाधीश मन्दिर-नवलगढ़, जगदीश मन्दिर-चिडा़वा, रानीसती मन्दिर-झुन्झुनू, शारदा देवी मन्दिर-पिलानी। दौसा:- बैजनाथ मन्दिर, सोमनाथ मन्दिर, नीलकण्ठ मन्दिर, मेहंदीपुर बालाजी मन्दिर-मेहंदीपुर। नागौर:- बंशीवाले का मन्दिर, ब्रह्माणीमाता मन्दिर तेजाती मन्दिर-खरनाल, मीरा बाँई मन्दिर-मेड़तासिटी पाडामाता मन्दिर-डीडवाना। बाँसवाडा़:- त्रिपुरा सुन्दरी मन्दिर-तलवाडा़, नन्दनी माता तीर्थ-बडो़दिया, धूणी के रणछोरजी-बासवाडा़। बाड़मेर:- सोमेश्वर मन्दिर-किशडू, ब्रह्माजी का मन्दिर-आसोतरा, रणछोड़ राय मन्दिर-खेड, हल्देश्वर मन्दिर-पीपलूद। बीकानेर:- कपिल मुनि मन्दिर-कोलायत, करणीमाता मन्दिर-देशनोक, भैखमंदिर-कोड़मदेसर। भीलवाडा़:- रामद्वारा-शाहपुरा,बाणमाता शक्तिपीठ-माण्डलगढ़-माण्डलगढ़। राजसमंद:- श्रीनाथजी मन्दिर-नाथद्वारा, द्वारिकाधीश मंदिर-कांकरोली। सवाई माधोपुर:-मेहंदीपुर बालाजी, कालागोरा भैरव मंदिर, रणतभंवर गजानन मंदिर-रणथंभौर। सीकर:- शांक भरी देवी मंदिर-शाकंभरी, हर्षनाथ मंदिर-सीकर, जीणमाता मंदिर-गौरिया (सीकर), खाटूश्याम जी मन्दिर-खाटूश्याम (सीकर)।हनुमानगढ़:- भद्र काली मंदिर, गोगाजी समाधि स्थल-गोगामेडी (नोहर)।
- राजस्थान के प्रसिद्ध जैन मंदिर .: सोनीजी की नसियाँ- अजमेर, केसरिया नाथ मंदिर- ऋृषभदेव, दिलवाडा़ के जैन मन्दिर-माउण्ट आबू, भीमाशाह मन्दिर-माउण्ट आबू, पाश्र्वनाथ जैन मंदिर- मेड़तारोड, श्री महावीर जी-महावीर जी, रणकपुर जैन मंदिर-पाली।
- राजस्थान के प्रसिद्ध गुरूद्धारे : साहवा का गुरूद्वारा-चुरू, बुड्ढा़ जोहड गुरूद्वारा-रायसिंह नगर (गंगानगर), गुरूद्वारा - नरैना (जयपुर)
- राजस्थान की प्रसिद्ध दरगाह - मकबर : ख्वाजा मुद्दीन चिश्ती की दरगाह -अजमेर, बडेपीर, दरगाह, नागौर, नरहडशरीफ की दरगाह-चिवाडा़, झुन्झुनू, मीठेशाह की दरगाह-गागरोण (झालावाड़), पीर हाजि निजामुद्दीन की दरगाह-फतहपुर (सीकर) गुलाब खाँ का मकबरा-जोधपुर, शक्करबाबा शाह की दरगाह-नरहड़ (झुन्झुनू), कबीर शाह की दरगाह-करौली।
शेखावटी क्षेत्र की हवेलियाँ अधिक भव्य व कलात्मक हैं। जयपुर, रामगढ़, नवलगढ़,फतेहपुर, मुकुंदगढ़, मण्डावा, पिलानी, सरदार शहर, रतनगढ़, इत्यादि शहरों व कस्बों में खडी़ विशाल हवेलियाँ स्थापत्य शिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।
जैसलमेर की सालमसिंह की हवेली, नथमल की हवेली और पटवों की हवेली पत्थरों की जालीदार कटाई के कारण विश्व प्रसिद्ध है। करौली, भरपुर, कोटा में स्थित हवेलियों का कला पक्ष देखते ही बनता है। जोधपुर में हवेलियाँ अधिकांशतः सूनी पडी़ है। इसी तरह लक्ष्मणगढ़-शेखावाडी़ (सीकर) की भी अधिकंाश हवेलियों के ताले लगे हैं जो अर्से से बन्द पडी़ हैं। राजस्थान सरकार की प्ररेणा से अब इन मध्यकालीन राजस्थानी हवेलियों का जीर्णोंद्धार एवं भवन हिस्सों की मरम्मत की जा रही हैं। इससे राजस्थान की समृद्ध विरासत को बचाया जा सकता है। जयपुर शहर (हल्दियों का रास्ता) मे 1775 ई. में बनी हवेली सलीम-मंजिल इसी प्रकार हेरिटेज हवेली का रूप प्राप्त कर चुकी है। जर्मन पत्रकारों ने (30 नवम्बर, 2010) जयपुर दरबार के शाही हकीम मोहम्मद सलीम खाँ के वंशज नसीमुद्दीन खाँ प्यारे मियां को हवेली की सार-संभाल अच्छे ढंग से करने पर बधाई दी।
छतरियाँ : राजस्थान में, राजाओं, श्रेष्ठियों, संतो तथा वीर पुरूषों के मरणो परांत बने स्मृति स्थल न केवल स्थापत्य व इतिहास की दृष्टि से महत्व पूर्ण हैं, बल्कि प्रदेश की समृद्ध विरासत में शामिल है। जयपुर का गैटोर, जोधपुर का जसवंत थडा़, कोटा का छत्रविलास बाग, जैसलमेर का बडा़ बाग, अलवर में मूंसी रानी की छतरी, बीकानेर में राव कल्याण मल की छतरी, करौली में गोपालसिंह की छतरी, बंूदी मे चैरासी खम्भों की छतरी, रामगढ़ में सेठों की छतरी, जैसलमेर में पालीवालों एवं राजाओं की छतरियाँ तत्कालीन इतिहास, कला एवं पुरातात्विक महत्व के विविध पक्षों को चिन्हित करते हैं। जहाँ एक ओर राजाओं, श्रेष्ठों एवं पुरूषों की छतरियों में सामान्यतः पदचिन्ह बने हैं वही शैवो और नाथों की छतरियों में धार्मिक चिन्ह शिवलिंग तथा खडाऊ बने हुए हैं। जालौर में नाथों की समाधियों की छतरी पर तोता बना हुआ है।
बावडियां : राजस्थान में बावडियाँ भी अपने स्थापत्य शिल्प के लिए जानी जाती है। बावडियाँ गहरी, चैकोर तथा कई मंजिला होती हैं। ये सामूहिक रूप से धार्मिक उत्सवों पर स्नान के लिए भी प्रयोग में आती थी। नीमराणा की बावडी़ (अलवर) का निर्माण राजा टोडरमल ने करवाया था। यह नौ मंजिला है। इसकी लम्बाई 250 फुट व चैडा़ई 80 फुट है। इसमें समय पर एक छोटी सैनिक टुकडी़ को छुपाया जा सकता था। इसी प्रकार से गंगरार (चित्तौड़) में 600 वर्ष पुरानी दो बावडी़, बाराॅ में कोतवाली परिसर में एक बावडी़, बूंदी में रानीजी की बावडी़, गुल्ला की बावडी़, श्याम बावडी़, व्यास जी की बावडी़ तथा मूर्ति शिल्प कला की दृष्टि से अनुपम है। रंगमहल, (सूरतगढ़) किसी समय यौद्येय गणराज्य की राजधानी था। पहले सिकन्दर के आक्रमण से हाँनि उठानी पड़ी, उसके बाद हूणों के आक्रमण से रंगमहल पूरी तरह नष्ट हो गया। उत्खन्न में यहाँ से एक प्राचीन बावडी़ प्राप्त हुई हैं जिसमें 2 फुट लम्बी तथा 2 फुट चैडी़ ईटें लगी है। बावडी इस
बात का प्रतीक है कि शको के भारत आगमन के बाद भी रंगमहल सुरक्षित था। क्योंकि बावडी़ बनाने की कला शक अपने साथ भारत लाये थे। रेवासा (सीकर) में भी दो बावडि़याँ दर्शनीय हैं। इनकों परम्परागत जल सरंक्षण के रूप में काम लिया जा सकता है।
राजस्थान की प्रमुख झीलें : राजस्थान में अनेक झीलों के निर्माण का उल्लेख मिलता हैं। झीलों के निर्माण में राजा, महाराजाओं ने बहुत रूची दिखाई। इससे सिंचाई की व्यवस्था की जाती थी। प्राचीन काल में चन्द्रगुप्त मौर्य ने कृषि की सिंचाई हेतु सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। झीलों से प्रदेश की आर्थिक स्थिति मजबूत होती हैं। 1152 से 1163 के बीच अजमेर के पास वीसलसर नामक कृत्रिम झील निर्मित करने का उल्लेख मिलता ह। पुष्कर में मीठे पानी की झील अत्यन्त प्राचीन हैं। इसके तट पर ब्रह्माजी का विख्यात प्राचीन मन्दिर हैं।अलवर में तीन ओर से पहाडि़यों से गिरी सिलीसेढ नीली झील दर्शनीय है। उदयपुर को झीलों की नगरी कहां जाता है। यहाँ की पिछोला झील ऐतिहासिक है। इसमें कई टापू है। इनमें से एक टापू पर जग निवास नामक महल है। पिछोला झील के उत्तर में फतह सागर झील का निर्माण है। इस झील में आहाड़ नदी से 6 कि.मी. लम्बी नहर द्वारा जल लाया जाता है। इस झील के बीच स्थित टापू आकर्षण का केन्द्र है। उदयपुर से 51 कि.मी. दूर स्थित जयसमुद्र झील हैं जिसका निर्माण 1687-1691 ई. में महाराणा जयसिंह ने करवाया था। यह विश्व की दूसरे नम्बर की तथा ऐशिया की पहली सबसे बडी़ कृत्रिम झील है। इसकी लम्बाई 14,400 मीटर तथा चैडा़ई 9,600 मीटर है। इसमें 9 नदियों का पानी आता है। कोटा में नगर के मध्य छत्र बिलास नामक झील स्थित है, इस झील में जगमन्दिर नामक महल है। इसका निर्माण महाराव दुर्जनशाल ने करवाया था। आबू पर्वत पर स्थित नक्की झील के बारे में कहा जाता है कि इसे देवताओं ने अपने नाखून से खोद कर बनाया था। सर्दियों में इस झील का पानी जम जाता है। इस झील के चारों और सड़क है। एक किनारे मेढ़काकार चट्टान है जिसे टाॅड़ राॅक कहते है।
अन्य ऐतिहासिक विरासत :
पर्यटन एवं पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षण के प्रयास : 1956 ई. में स्थापित राजस्थान पर्यटन विभाग,विदेषी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये राजस्थान के महत्वपूर्ण महलों, किलों, हवेलियों को पर्यटन की दृष्टि से विकसित कर एक तरफ उनका संरक्षण कर रहा है तथा दूसरी तरफ राज्य के लिये राजस्व जुटा रहा है।आमेर महल राज्य का सर्वाधिक राजस्व जुटाने वाला पर्यटन स्थल है। इसके अतिरिक्त पर्यटन विभाग हवेली हैरिटेज होटलों का निर्माण करना, मेघाडेजर्ट सर्किट बनाना,राॅयल राजस्थान आॅन व्हील्स का प्रारम्भ,पैकेज टयूर,विरासत स्थलों पर मेलों का आयोजन करवाना तथा निजी क्षैत्र में होटल निर्माण को वित्तीय सहायता एवं प्रोत्साहन प्रदान कर राजस्थान विरासत के संरक्षण में अपनी अहम भूमिका निभा रहा है।
विरासत संरक्षण में पुरातत्व विभाग का सहयोग व योगदान भी सराहनीय है। 1950 ई.में स्थापित इस विभाग में 32 उच्च अधिकारी कार्यरत है।यह विभाग प्रदेष की पूरा सम्पदा व सांस्कृतिक धरोहर की खोज,सर्वेक्षण,प्रचार-प्रसार एवं उनके संरक्षण का कार्य करता है। इस विभाग ने प्रदेष में 222 स्मारक तथा पूरा स्थल घोषित किये है। दुर्गों , स्मारकों, हवेलियों, देवालयों,महलों आदि का यह विभाग विकास एवं रसायनिक उपचार भी करता है।विभाग अपनी पत्रिका ’रिसर्चर’ के नाम से प्रकाषित करता है।
1955 में स्थापित राज्य अभिलेखागार भी साहित्यिक विरासत के संरक्षण एवं संवर्घन में कार्य कर रहा है।इसका मुख्यालय बीकानेर में है। विरासत के महत्वपूर्ण लेख, फरमान, निषान, मंसूर,परवाना,रूक्का,बहियाँ,अर्जियों आदि के संरक्षण में लगा हुआ है। 1955 ई. में प्राच्य विधा प्रतिष्ठान की स्थापना जोधपुर में हुई थी।यह संस्कृत , प्राकृत, अपभ्रंष,
तथा पाली आदि भाषाओं में लिखे गये, वेद, धर्मषास्त्र,पुराण,दर्षन,ज्योतिष,गणित,आयुर्वेद, व्याकरण,तंत्र-मंत्र आदि की पाण्डुलिपियों के लेखन एवं संरक्षण का कार्य करता है।अरबी-फारसी षोध संस्थान (टोंक)भी फारसी-अरबी भाषा की दुर्लभ पुस्तकों के संरक्षण का काम करती है।
इसके अतिरिक्त राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर,जयपुर कत्थक केन्द्र,राजस्थान संस्कृत अकादमी जयपुर तथा लोक संस्कृति ष्षोध संस्थान चुरू आदि संस्थायें भी राजस्थान की साहित्यिक विरासत के संरक्षण का काम कर रही है। निजी विरासत के संरक्षण के कार्य में पूर्व राजा-महाराजा फाउन्डेषन समितियों के माध्यम से योगदान देते है।
बावडियां : राजस्थान में बावडियाँ भी अपने स्थापत्य शिल्प के लिए जानी जाती है। बावडियाँ गहरी, चैकोर तथा कई मंजिला होती हैं। ये सामूहिक रूप से धार्मिक उत्सवों पर स्नान के लिए भी प्रयोग में आती थी। नीमराणा की बावडी़ (अलवर) का निर्माण राजा टोडरमल ने करवाया था। यह नौ मंजिला है। इसकी लम्बाई 250 फुट व चैडा़ई 80 फुट है। इसमें समय पर एक छोटी सैनिक टुकडी़ को छुपाया जा सकता था। इसी प्रकार से गंगरार (चित्तौड़) में 600 वर्ष पुरानी दो बावडी़, बाराॅ में कोतवाली परिसर में एक बावडी़, बूंदी में रानीजी की बावडी़, गुल्ला की बावडी़, श्याम बावडी़, व्यास जी की बावडी़ तथा मूर्ति शिल्प कला की दृष्टि से अनुपम है। रंगमहल, (सूरतगढ़) किसी समय यौद्येय गणराज्य की राजधानी था। पहले सिकन्दर के आक्रमण से हाँनि उठानी पड़ी, उसके बाद हूणों के आक्रमण से रंगमहल पूरी तरह नष्ट हो गया। उत्खन्न में यहाँ से एक प्राचीन बावडी़ प्राप्त हुई हैं जिसमें 2 फुट लम्बी तथा 2 फुट चैडी़ ईटें लगी है। बावडी इस
बात का प्रतीक है कि शको के भारत आगमन के बाद भी रंगमहल सुरक्षित था। क्योंकि बावडी़ बनाने की कला शक अपने साथ भारत लाये थे। रेवासा (सीकर) में भी दो बावडि़याँ दर्शनीय हैं। इनकों परम्परागत जल सरंक्षण के रूप में काम लिया जा सकता है।
राजस्थान की प्रमुख झीलें : राजस्थान में अनेक झीलों के निर्माण का उल्लेख मिलता हैं। झीलों के निर्माण में राजा, महाराजाओं ने बहुत रूची दिखाई। इससे सिंचाई की व्यवस्था की जाती थी। प्राचीन काल में चन्द्रगुप्त मौर्य ने कृषि की सिंचाई हेतु सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। झीलों से प्रदेश की आर्थिक स्थिति मजबूत होती हैं। 1152 से 1163 के बीच अजमेर के पास वीसलसर नामक कृत्रिम झील निर्मित करने का उल्लेख मिलता ह। पुष्कर में मीठे पानी की झील अत्यन्त प्राचीन हैं। इसके तट पर ब्रह्माजी का विख्यात प्राचीन मन्दिर हैं।अलवर में तीन ओर से पहाडि़यों से गिरी सिलीसेढ नीली झील दर्शनीय है। उदयपुर को झीलों की नगरी कहां जाता है। यहाँ की पिछोला झील ऐतिहासिक है। इसमें कई टापू है। इनमें से एक टापू पर जग निवास नामक महल है। पिछोला झील के उत्तर में फतह सागर झील का निर्माण है। इस झील में आहाड़ नदी से 6 कि.मी. लम्बी नहर द्वारा जल लाया जाता है। इस झील के बीच स्थित टापू आकर्षण का केन्द्र है। उदयपुर से 51 कि.मी. दूर स्थित जयसमुद्र झील हैं जिसका निर्माण 1687-1691 ई. में महाराणा जयसिंह ने करवाया था। यह विश्व की दूसरे नम्बर की तथा ऐशिया की पहली सबसे बडी़ कृत्रिम झील है। इसकी लम्बाई 14,400 मीटर तथा चैडा़ई 9,600 मीटर है। इसमें 9 नदियों का पानी आता है। कोटा में नगर के मध्य छत्र बिलास नामक झील स्थित है, इस झील में जगमन्दिर नामक महल है। इसका निर्माण महाराव दुर्जनशाल ने करवाया था। आबू पर्वत पर स्थित नक्की झील के बारे में कहा जाता है कि इसे देवताओं ने अपने नाखून से खोद कर बनाया था। सर्दियों में इस झील का पानी जम जाता है। इस झील के चारों और सड़क है। एक किनारे मेढ़काकार चट्टान है जिसे टाॅड़ राॅक कहते है।
अन्य ऐतिहासिक विरासत :
- ईसरलाटः जयपुर के आतिश अहाते में खडी़ ईसरलाट का निर्माण राजा जयसिंह के दूसरे पुत्र ईश्वरी सिंह ने 1749 ई. में करवाया था। मराठों की सेना को पराजित करने के उपलक्ष्य में विजय स्तम्भ के रूप मे इस भव्य इमारत का निर्माण करवाया गया था। इसे सरगा सूली भी कहते हैं।
- जंतर-मंतर (वैधशाला) : जयपरु के चन्द्र महल के पूर्व मंे जंतर-मंतर वेद्यशाला है इसका निर्माण राजा सवाई जयसिहं ने करवाया था। जयसिंह ने तीन नये यन्त्रों का भी आविष्कार किया जिनके सम्राट यन्त्र, जय प्रकाश यन्त्र और राम यन्त्र नाम रखे। इनमें सम्राट यन्त्र सबसे बडा़ व ऊँचा है। यह यन्त्र शुद्धतम समय बताने में सक्षम है। इससे मौसम का अदांजा भी लगाया जा सकता है। इस ऐतिहासिक राजस्थान की विरासत को यूनेस्को की वल्र्ड हेरिटेज सूची में शामिल किया गया है, विश्व धरोहर घोषित कर दिया गया हैं। इस तरह राजस्थान का यह पहला और देश का 28 वाँ स्मारक बन गया है। राजस्थान के मुख्य मंत्री ने जंतर-मंतर को विश्व धरोहर की सूची में जोडा़ जाना देश व प्रदेश के लिए एक बडी़ उपलब्धि बताया है। जंतर-मंतर के नाम के पीछे भी एक गूढ़ अर्थ छिपा है। जंतर का अर्थ होता है उपकरण और मंतर का अर्थ होता है गणना। जंतर-मंतर का अर्थ है कि वह उपकरण जिससे गणना की जाए।
पर्यटन एवं पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षण के प्रयास : 1956 ई. में स्थापित राजस्थान पर्यटन विभाग,विदेषी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये राजस्थान के महत्वपूर्ण महलों, किलों, हवेलियों को पर्यटन की दृष्टि से विकसित कर एक तरफ उनका संरक्षण कर रहा है तथा दूसरी तरफ राज्य के लिये राजस्व जुटा रहा है।आमेर महल राज्य का सर्वाधिक राजस्व जुटाने वाला पर्यटन स्थल है। इसके अतिरिक्त पर्यटन विभाग हवेली हैरिटेज होटलों का निर्माण करना, मेघाडेजर्ट सर्किट बनाना,राॅयल राजस्थान आॅन व्हील्स का प्रारम्भ,पैकेज टयूर,विरासत स्थलों पर मेलों का आयोजन करवाना तथा निजी क्षैत्र में होटल निर्माण को वित्तीय सहायता एवं प्रोत्साहन प्रदान कर राजस्थान विरासत के संरक्षण में अपनी अहम भूमिका निभा रहा है।
विरासत संरक्षण में पुरातत्व विभाग का सहयोग व योगदान भी सराहनीय है। 1950 ई.में स्थापित इस विभाग में 32 उच्च अधिकारी कार्यरत है।यह विभाग प्रदेष की पूरा सम्पदा व सांस्कृतिक धरोहर की खोज,सर्वेक्षण,प्रचार-प्रसार एवं उनके संरक्षण का कार्य करता है। इस विभाग ने प्रदेष में 222 स्मारक तथा पूरा स्थल घोषित किये है। दुर्गों , स्मारकों, हवेलियों, देवालयों,महलों आदि का यह विभाग विकास एवं रसायनिक उपचार भी करता है।विभाग अपनी पत्रिका ’रिसर्चर’ के नाम से प्रकाषित करता है।
1955 में स्थापित राज्य अभिलेखागार भी साहित्यिक विरासत के संरक्षण एवं संवर्घन में कार्य कर रहा है।इसका मुख्यालय बीकानेर में है। विरासत के महत्वपूर्ण लेख, फरमान, निषान, मंसूर,परवाना,रूक्का,बहियाँ,अर्जियों आदि के संरक्षण में लगा हुआ है। 1955 ई. में प्राच्य विधा प्रतिष्ठान की स्थापना जोधपुर में हुई थी।यह संस्कृत , प्राकृत, अपभ्रंष,
तथा पाली आदि भाषाओं में लिखे गये, वेद, धर्मषास्त्र,पुराण,दर्षन,ज्योतिष,गणित,आयुर्वेद, व्याकरण,तंत्र-मंत्र आदि की पाण्डुलिपियों के लेखन एवं संरक्षण का कार्य करता है।अरबी-फारसी षोध संस्थान (टोंक)भी फारसी-अरबी भाषा की दुर्लभ पुस्तकों के संरक्षण का काम करती है।
इसके अतिरिक्त राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर,जयपुर कत्थक केन्द्र,राजस्थान संस्कृत अकादमी जयपुर तथा लोक संस्कृति ष्षोध संस्थान चुरू आदि संस्थायें भी राजस्थान की साहित्यिक विरासत के संरक्षण का काम कर रही है। निजी विरासत के संरक्षण के कार्य में पूर्व राजा-महाराजा फाउन्डेषन समितियों के माध्यम से योगदान देते है।
गुलाबी नगर जयपुर
भारत के एतिहासिक एवं सांस्कृतिक राज्यों में राजस्थान अग्रणीय है। प्राचीन सभ्यता में डूबे हुए शहर की विविधता हर रूप में उभर कर आती है। राजस्थान की राजधानी जयपुर एक प्राचीन शहर है जो गुलाबी शहर के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसकी पश्चिम ओर स्थित है थार मरुभूमि जो दुनिया के मशहूर रेगिस्तानों में से एक है।
आकर्षक पर्यटन स्थल
शहर में बहुत से पर्यटन आकर्षण हैं, जैसे जंतर मंतर, जयपुर, हवा महल, सिटी पैलेस, गोविंद देवजी का मंदिर, बी एम बिड़ला तारामण्डल, आमेर का किला, जयगढ़ दुर्ग आदि। जयपुर के रौनक भरे बाजारों में दुकानें रंग बिरंगे सामानों से भरी हैं , जिनमें हथकरघा उत्पाद, बहुमूल्य पत्थर, हस्तकला से युक्त वनस्पति रंगों से बने वस्त्र, मीनाकारी आभूषण, पीतल का सजावटी सामान,राजस्थानी चित्रकला के नमूने, नागरा-मोजरी जूतियाँ, ब्लू पॉटरी, हाथीदांत के हस्तशिल्प और सफ़ेद संगमरमर की मूर्तियां आदि शामिल हैं। प्रसिद्ध बाजारों में जौहरी बाजार, बापू बाजार, नेहरू बाजार, चौड़ा रास्ता, त्रिपोलिया बाजार और एम.आई. रोड़ के साथ लगे बाजार हैं ।
- सिटी पैलेस
राजस्थानी व मुगल शैलियों की मिश्रित रचना एक पूर्व शाही निवास जो पुराने शहर के बीचोंबीच है। भूरे संगमरमर के स्तंभों पर टिके नक्काशीदार मेहराब, सोने व रंगीन पत्थरों की फूलों वाली आकृतियों ले अलंकृत है। संगमरमर के दो नक्काशीदार हाथी प्रवेश द्वार पर प्रहरी की तरह खड़े है। जिन परिवारों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजाओं की सेवा की है। वे लोग गाइड के रूप में कार्य करते है। पैलेस में एक संग्राहलय है जिसमें राजस्थानी पोशाकों व मुगलों तथा राजपूतों के हथियार का बढ़िया संग्रह हैं। इसमें विभिन्न रंगों व आकारों वाली तराशी हुई मूंठ की तलवारें भी हैं, जिनमें से कई मीनाकारी के जड़ऊ काम व जवाहरातों से अलंकृत है तथा शानदार जड़ी हुई म्यानों से युक्त हैं। महल में एक कलादीर्घा भी हैं जिसमें लघुचित्रों, कालीनों, शाही साजों सामान और अरबी, फारसी, लेटिन व संस्कृत में दुर्लभ खगोल विज्ञान की रचनाओं का उत्कृष्ट संग्रह है जो सवाई जयसिंह द्वितीय ने विस्तृत रूप से खगोल विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्राप्त की थी।
- जंतर मंतर
एक पत्थर की वेधशाला। यह जयसिंह की पाँच वेधशालाओं में से सबसे विशाल है। इसके जटिल यंत्र, इसका विन्यास व आकार वैज्ञानिक ढंग से तैयार किया गया है। यह विश्वप्रसिद्ध वेधशाला जिसे २०१२ में यूनेस्को ने विश्व धरोहरों में शामिल किया है, मध्ययुगीन भारत के खगोलविज्ञान की उपलब्धियों का जीवंत नमूना है! इनमें सबसे प्रभावशाली रामयंत्र है जिसका इस्तेमाल ऊंचाई नापने के लिए किया जाता है।
- हवा महल
ईसवी सन् 1799 में निर्मित हवा महल राजपूत स्थापत्य का मुख्य प्रमाण चिन्ह। पुरानी नगरी की मुख्य गलियों के साथ यह पाँच मंजिली इमारत गुलाबी रंग में अर्धअष्टभुजाकार और परिष्कृत छतेदार बलुए पत्थर की खिड़कियों से सुसज्जित है। शाही स्त्रियां शहर का दैनिक जीवन व शहर के जुलूस देख सकें इसी उद्देश्य से इमारत की रचना की गई थी।
- गोविंद देवजी का मंदिर
भगवान कृष्ण का जयपुर का सबसे प्रसिद्ध, बिना शिखर का मंदिर। यह चन्द्रमहल के पूर्व में बने जन-निवास बगीचे के मध्य अहाते में स्थित है। संरक्षक देवता गोविंदजी की मूर्ति पहले वृंदावन के मंदिर में स्थापित थी जिसको सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने परिवार के देवता के रूप में यहाँ पुनः स्थापित किया था।
- सरगासूली-
(ईसर लाट) - त्रिपोलिया बाजार के पश्चिमी किनारे पर उच्च मीनारनुमा इमारत जिसका निर्माण ईसवी सन् 1749 में सवाई ईश्वरी सिंह ने अपनी मराठा विजय के उपलक्ष्य में करवाया था।
- रामनिवास बाग
एक चिड़ियाघर, पौधघर, वनस्पति संग्रहालय से युक्त एक हरा भरा विस्तृत बाग, जहाँ खेल का प्रसिद्ध क्रिकेट मैदान भी है। बाढ राहत परियोजना के अंतर्गत ईसवी सन् 1865 में सवाई राम सिंह द्वितीय ने इसे बनवाया था। सर विंस्टन जैकब द्वारा रूपांकित, अल्बर्ट हाल जो भारतीय वास्तुकला शैली का परिष्कृत नमूना है, जिसे बाद में उत्कृष्ट मूर्तियों, चित्रों, सज्जित बर्तनों, प्राकृतिक विज्ञान के नमूनों, इजिप्ट की एक ममी और फारस के प्रख्यात कालीनों से सुसज्जित कर खोला गया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए एक प्रेक्षागृह के साथ रवीन्द्र मंच, एक आधुनिक कलादीर्घा व एक खुला थियेटर भी इसमें बनाया गया हैं।
गुड़िया घर पुलिस स्मारक के पास मूक बधिर विद्यालय के अहाते में विभिन्न देशों की प्यारी गुड़ियाँ यहाँ प्रदर्शित हैं (समयः 12 बजे से सात बजे तक)।
- बी एम बिड़ला तारामण्डल
(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- अपने आधुनिक कम्पयूटरयुक्त प्रक्षेपण व्यवस्था के साथ इस ताराघर में श्रव्य व दृश्य शिक्षा व मनोरंजनों के साधनों की अनेखी सुविधा उपलब्घ है। विद्यालयों के दलों के लिये रियायत उपलब्ध है। प्रत्येक महीने के आखिरी बुघवार को यह बंद रहता है।
- गलताजी
एक प्राचीन तार्थस्थल, निचली पहाड़ियों के बीच बगीचों से परे स्थित। मंदिर, मंडप और पवित्र कुंडो के साथ हरियाली युक्त प्राकृतिक दृश्य इसे आनन्ददायक स्थल बना देते हैं। दीवान कृपाराम द्वारा निर्मित उच्चतम चोटी के शिखर पर बना सूर्य देवता का छोटा मंदिर शहर के सारे स्थानों से दिखाई पड़ता है।
- जैन मंदिर
आगरा मार्ग पर बने इस उत्कृष्ट जैन मंदिर की दीवारों पर जयपुर शैली में उन्नीसवीं सदी के अत्यधिक सुंदर चित्र बने हैं।
- मोती डूंगरी और लक्ष्मी नारायण मंदिर
मोती डूंगरी एक निजी पहाड़ी ऊंचाई पर बना किला है जो स्कॉटलैण्ड के किले की तरह निर्मित है। कुछ वर्षों पहले, पहाड़ी पादगिरी पर बना गणेश मंदिर और अद्भुत लक्ष्मी नारायण मंदिर भी उल्लेखनीय है।
स्टैच्यू सर्किल
चक्कर के मध्य सवाई जयसिंह का स्टैच्यू बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से बना हुआ है। इसे जयपुर के संस्थापक को श्रद्धांजलि देने के लिए नई क्षेत्रीय योजना के अंतर्गत बनाया गया है। इस में स्थापित सवाई जयसिंह की भव्यमूर्ति के मूर्तिशिल्पी स्व.महेंद्र कुमार दास हैं।
- अन्य स्थल
आमेर मार्ग पर रामगढ़ मार्ग के चौराहे के पास रानियों की याद में बनी आकर्षक महारानी की कई छतरियां है। मानसागर झील के मध्य, सवाई माधोसिंह प्रथम द्वारा निर्मित जल महल, एक मनोहारी स्थल है। परिष्कृत मंदिरों व बगीचों वाले कनक वृंदावन भवन की पुरातन पूर्णता को विगत समय में पुनर्निर्मित किया गया है। इस सड़क के पश्चिम में गैटोर में शाही शमशान घाट है जिसमें जयपुर के सवाई ईश्वरी सिंह के सिवाय समस्त शासकों के भव्य स्मारक हैं। बारीक नक्काशी व लालित्यपूर्ण आकार से युक्त सवाई जयसिंह द्वितीय की बहुत ही प्रभावशाली छतरी है। प्राकृतिक पृष्ठभूमि से युक्त बगीचे आगरा मार्ग पर दीवारों से घिरे शहर के दक्षिण पूर्वी कोने पर घाटी में फैले हुए हैं।
- गैटोर
सिसोदिया रानी के बाग में फव्वारों, पानी की नहरों, व चित्रित मंडपों के साथ पंक्तिबद्ध बहुस्तरीय बगीचे हैं व बैठकों के कमरे हैं। अन्य बगीचों में, विद्याधर का बाग बहुत ही अच्छे ढ़ग से संरक्षित बाग है, इसमें घने वृक्ष, बहता पानी व खुले मंडप हैं। इसे शहर के नियोजक विद्याधर ने निर्मित किया था।
आमेर
यह कभी सात सदी तक ढूंडार के पुराने राज्य के कच्छवाहा शासकों की राजधानी थी। आमेर और शीला माता मंदिर - लगभग दो शताब्दी पूर्व राजा मान सिंह, मिर्जा राजा जयसिंह और सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित महलों, मंडपों, बगीचों और मंदिरों का एक आकर्षक भवन है। मावठा झील के शान्त पानी से यह महल सीधा उभरता है और वहाँ सुगम रास्ते द्वारा पहुंचा जा सकता है। सिंह पोल और जलेब चौक तक अकसर पर्यटक हाथी पर सवार होकर जाते हैं। चौक के सिरे से सीढ़ियों की पंक्तियाँ उठती हैं, एक शिला माता के मंदिर की ओर जाती है और दूसरी महल के भवन की ओर। यहां स्थापित करने के लिए राजा मानसिंह द्वारा संरक्षक देवी की मूर्ति, जिसकी पूजा हजारों श्रद्धालु करते है, पूर्वी बंगाल (जो अब बंगला देश है) के जेसोर से यहां लाई गई थी। एक दर्शनीय स्तंभों वाला हॉल दीवान-ए-आम और एक दोमंजिला चित्रित प्रवेशद्वार, गणेश पोल आगे के प्रांगण में है। गलियारे के पीछे चारबाग की तरह का एक रमणीय छोटा बगीचा है जिसकी दाई तरफ सुख निवास है और बाई तरफ जसमंदिर। इसमें मुगल व राजपूत वास्तुकला का मिश्रित है, बारीक ढंग से नक्काशी की हुई जाली की चिलमन, बारीक शीशों और गचकारी का कार्य और चित्रित व नक्काशीदार निचली दीवारें । मावठा झील के मध्य में सही अनुपातित मोहन बाड़ी या केसर क्यारी और उसके पूर्वी किनारे पर दिलराम बाग ऊपर बने महलों का मनोहर दृश्य दिखाते है।
पुराना शहर - कभी राजाओं, हस्तशिल्पों व आम जनता का आवास आमेर का पुराना क़स्बा अब खंडहर बन गया है। आकर्षक ढंग से नक्काशीदार व सुनियोजित जगत शिरोमणि मंदिर, मीराबाई से जुड़ा एक कृष्ण मंदिर, नरसिंहजी का पुराना मंदिर व अच्छे ढंग से बना सीढ़ियों वाला कुआँ, पन्ना मियां का कुण्ड समृद्ध अतीत के अवशेष हैं ।
जयगढ़ किला
मध्ययुगीन भारत के कुछ सैनिक इमारतों में से एक। महलों, बगीचों, टांकियों, अन्य भन्डार, शस्त्रागार, एक सुनोयोजित तोप ढलाई-घर, अनेक मंदिर, एक लंबा बुर्ज और एक विशालकाय तोप - जयबाण जो देश की सबसे बड़ी तोपों में से एक है। जयगढ़ के फैले हुए परकोटे, बुर्ज और प्रवेश द्वार पश्चिमी द्वार क्षितिज को छूते हैं. नाहरगढः जयगढ की पहाड़ियों के पीछे स्थित गुलाबी शहर का पहरेदार है - नाहरगढ़ किला। यद्यपि इसका बहुत कुछ हिस्सा ध्वस्त हो गया है, फिर भी सवाई मान सिंह द्वितीय व सवाई माधोसिंह द्वितीय द्वारा बनाई मनोहर इमारतें किले की रौनक बढाती हैं सांगानेर (१२ किलोमीटर) - यह टोंक जाने वाले राजमार्ग पर स्थित है। इसके ध्वस्त महलों के अतिरिक्त, सांगानेर के उत्कृष्ट नक्काशीदार जैन मंदिर है। दो त्रिपोलिया (तीन मुख्य द्वार ) के अवशेषो द्वारा नगर में प्रवेश किया जाता है।
व्यंजन
यहां के स्वादिष्ट व्यंजन पर्यटकों को बहुत रास आते हैं। दाल-बाटी, चूरमा मुख्य व्यंजन है। एमआई रोड पर मन को लुभाने वाली विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ मिलती हैं। चोखी ढाणी में पारम्पिरक सभ्यता के अनुसार भोजन परोसा जाता है। तरह-तरह के व्यंजन परोसे जाते हैं। जैसे कि गतला, खेर सारंगी, बाजरे की रोटी एवं लहसुन-मिर्ची की चटनी। ग्रामीण सभ्यता के अनुसार शर्मा ढाबा में नान, चटनी एवं पनीर मसाला बहुत ही लोकप्रिय है।
खरीदारी के लिए
पर्यटकों के पास अनगिनत वस्तुएँ उपलब्ध हैं खरीदने के लिए। ब्लॉक प्रिंटिंग, बंधिश, रजाई, वस्त्र, पारम्परिक तरीके से बनाए गए सोने एवं चाँदी के गहने मिलते है। जौहरी बाजार के गोपालजी के रास्ते में कई प्रकार के गहने मिलते हैं। संगानेर क्षेत्र हाथ से कारीगरी किए हुए कपड़े पर ब्लॉक प्रिंट की गई थी।
कैसे पहुँचें
हवाई जहाज
खरीदारी के लिए
पर्यटकों के पास अनगिनत वस्तुएँ उपलब्ध हैं खरीदने के लिए। ब्लॉक प्रिंटिंग, बंधिश, रजाई, वस्त्र, पारम्परिक तरीके से बनाए गए सोने एवं चाँदी के गहने मिलते है। जौहरी बाजार के गोपालजी के रास्ते में कई प्रकार के गहने मिलते हैं। संगानेर क्षेत्र हाथ से कारीगरी किए हुए कपड़े पर ब्लॉक प्रिंट की गई थी।
कैसे पहुँचें
हवाई जहाज
जयपुर संगानेर हवाई अड्डा के माध्यम से पहुँच सकते हैं। टैक्सी के मीटर का दाम है 200 रुपए।
ट्रेन
जयपुर स्टेशन दिल्ली से जुड़ा हुआ है। अजमेर शताब्दी एवं दिल्ली-जयपुर एक्सप्रेस के माध्यम से।
मुंबई सेंट्रल- जयपुर एवं अरावली एक्सप्रेस से पहुँच सकते हैं।
राजमार्ग
एनएच-8 दिल्ली जयपुर से जुड़ा हुआ है। जयपुर से 256 किलोमीटर की दूरी से शाहपुरा एवं धारूधेरा के रास्ते से पहुँचते हैं।
ट्रेन
जयपुर स्टेशन दिल्ली से जुड़ा हुआ है। अजमेर शताब्दी एवं दिल्ली-जयपुर एक्सप्रेस के माध्यम से।
मुंबई सेंट्रल- जयपुर एवं अरावली एक्सप्रेस से पहुँच सकते हैं।
राजमार्ग
एनएच-8 दिल्ली जयपुर से जुड़ा हुआ है। जयपुर से 256 किलोमीटर की दूरी से शाहपुरा एवं धारूधेरा के रास्ते से पहुँचते हैं।
राजस्थानी कला : इतिहास का पूरक साधन
राहुल तनेगारिया
इतिहास के साधनों में शिलालेख, पुरालेख और साहित्य के समानान्तर कला भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसके द्वारा हमें मानव की मानसिक प्रवृतियों का ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता वरन् निर्मितियों में उनका कौशल भी दिखलाई देता है। यह कौशल तत्कालीन मानव के विज्ञान तथा तकनीक के साथ-साथ समाज, धर्म, आर्थिक और राजनीतिक विषयों का तथ्यात्मक विवरण प्रदान करने में इतिहास का स्रोत बन जाता है। इसमें स्थापत्या, मूर्ति, चित्र, मुद्रा, वस्राभूषण, श्रृंगार-प्रसाधन, घरेलु उपकरण इत्यादि जैसे कई विषय समाहित है जो पुन: विभिन्न भागों में विभक्त किए जा सकते हैं।
राजस्थानी स्थापत्य कला
राजस्थान में प्राचीन काल से ही हिन्दु, बौद्ध, जैन तथा मध्यकाल से मुस्लिम धर्म के अनुयायियों द्वारा मंदिर, स्तम्भ, मठ, मस्जिद, मकबरे, समाधियों और छतरियों का निर्माण किया जाता रहा है। इनमें कई भग्नावेश के रुप में तथा कुछ सही हालत में अभी भी विद्यमान है। इनमें कला की दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन देवालयों के भग्नावशेष हमें चित्तौड़ के उत्तर में नगरी नामक स्थान पर मिलते हैं। प्राप्त अवशेषों में वैष्णव, बौद्ध तथा जैन धर्म की तक्षण कला झलकती है। तीसरी सदी ईसा पूर्व से पांचवी शताब्दी तक स्थापत्य की विशेषताओं को बतलाने वाले उपकरणों में देवी-देवताओं, यक्ष-यक्षिणियों की कई मूर्तियां, बौद्ध, स्तूप, विशाल प्रस्तर खण्डों की चाहर दीवारी का एक बाड़ा, ३६ फुट और नीचे से १४ फुल चौड़ दीवर कहा जाने वाला "गरुड़ स्तम्भ' यहां भी देखा जा सकता है। १५६७ ई. में अकबर द्वारा चित्तौड़ आक्रमण के समय इस स्तम्भ का उपयोग सैनिक शिविर में प्रकाश करने के लिए किया गया था। गुप्तकाल के पश्चात् कालिका मन्दिर के रुप में विद्यमान चित्तौड़ का प्राचीन "सूर्य मन्दिर' इसी जिले में छोटी सादड़ी का भ्रमरमाता का मन्दिर कोटा में, बाड़ौली का शिव मन्दिर तथा इनमें लगी मूर्तियां तत्कालीन कलाकारों की तक्षण कला के बोध के साथ जन-जीवन की अभिक्रियाओं का संकेत भी प्रदान करती हैं। चित्तौड़ जिले में स्थित मेनाल, डूंगरपुर जिले में अमझेरा, उदयपुर में डबोक के देवालय अवशेषों की शिव, पार्वती, विष्णु, महावीर, भैरव तथा नर्तकियों का शिल्प इनके निर्माण काल के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का क्रमिक इतिहास बतलाता है।
सातवीं शताब्दी से राजस्थान की शिल्पकला में राजपूत प्रशासन का प्रभाव हमें शक्ति और भक्ति के विविध पक्षों द्वारा प्राप्त होता है। जयपुर जिले में स्थित आमानेरी का मन्दिर (हर्षमाता का मंदिर), जोधपुर में ओसिया का सच्चियां माता का मन्दिर, जोधपुर संभाग में किराडू का मंदिर, इत्यादि और भिन्न प्रांतों के प्राचीन मंदिर कला के विविध स्वरों की अभिव्यक्ति संलग्न राजस्थान के सांस्कृतिक इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डालने वाले स्थापत्य के नमूने हैं।
उल्लेखित युग में निर्मित चित्तौड़, कुम्भलगढ़, रणथंभोर, गागरोन, अचलगढ़, गढ़ बिरली (अजमेर का तारागढ़) जालोर, जोधपुर आदि के दुर्ग-स्थापत्य कला में राजपूत स्थापत्य शैली के दर्शन होते हैं। सरक्षा प्रेरित शिल्पकला इन दुर्गों की विशेषता कही जा सकती है जिसका प्रभाव इनमें स्थित मन्दिर शिल्प-मूर्ति लक्षण एवं भवन निर्माण में आसानी से परिलक्षित है। तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् स्थापत्य प्रतीक का अद्वितीय उदाहरण चित्तौड़ का "कीर्ति स्तम्भ' है, जिसमें उत्कीर्म मूर्तियां जहां हिन्दू धर्म का वृहत संग्रहालय कहा जा सकता है। वहां इसकी एक मंजिल पर खुदे फारसी-लेख से स्पष्ट होता है कि स्थापत्य में मुस्लिम लक्ष्ण का प्रभाव पड़ना शुरु होने लगा था।
सत्रहवीं शताब्दी के पश्चात् भी परम्परागत आधारों पर मन्दिर बनते रहे जिनमें मूर्ति शिल्प के अतिरिक्त भित्ति चित्रों की नई परम्परा ने प्रवेश किया जिसका अध्ययन राजस्थानी इतिहास के लिए सहयोगकर है।
मुद्रा कला
राजस्थान के प्राचीन प्रदेश मेवाड़ में मज्झमिका (मध्यमिका) नामधारी चित्तौड़ के पास स्थित नगरी से प्राप्त ताम्रमुद्रा इस क्षेत्र को शिविजनपद घोषित करती है। तत्पश्चात् छठी-सातवीं शताब्दी की स्वर्ण मुद्रा प्राप्त हुई। जनरल कनिंघम को आगरा में मेवाड़ के संस्थापक शासक गुहिल के सिक्के प्राप्त हुए तत्पश्चात ऐसे ही सिक्के औझाजी को भी मिले। इसके उर्ध्वपटल तथा अधोवट के चित्रण से मेवाड़ राजवंश के शैवधर्म के प्रति आस्था का पता चलता है। राणा कुम्भाकालीन (१४३३-१४६८ ई.) सिक्कों में ताम्र मुद्राएं तथा रजत मुद्रा का उल्लेख जनरल कनिंघम ने किया है। इन पर उत्कीर्ण वि.सं. १५१०, १५१२, १५२३ आदि तिथियों ""श्री कुभंलमेरु महाराणा श्री कुभंकर्णस्य'', ""श्री एकलिंगस्य प्रसादात'' और ""श्री'' के वाक्यों सहित भाले और डमरु का बिन्दु चिन्ह बना हुआ है। यह सिक्के वर्गाकृति के जिन्हें "टका' पुकारा जाता था। यह प्रबाव सल्तनत कालीन मुद्रा व्यवस्था को प्रकट करता है जो कि मेवाड़ में राणा सांगा तक प्रचलित रही थी। सांगा के पश्चात् शनै: शनै: मुगलकालीन मुद्रा की छाया हमें मेवाड़ और राजस्थान के तत्कालीन अन्यत्र राज्यों में दिखलाई देती है। सांगा कालीन (१५०९-१५२८ ई.) प्राप्त तीन मुद्राएं ताम्र तथा तीन पीतल की है। इनके उर्ध्वपटल पर नागरी अभिलेख तथा नागरी अंकों में तिथि तथा अधोपटल पर ""सुल्तान विन सुल्तान'' का अभिलेख उत्कीर्ण किया हुआ मिलता है। प्रतीक चिन्हों में स्वास्तिक, सूर्य और चन्द्र प्रदर्शित किये गए हैं। इस प्रकार सांगा के उत्तराधिकारियों राणा रत्नसिंह द्वितीय, राणा विक्रमादित्य, बनवीर आदि की मुद्राओं के संलग्न मुगल-मुद्राओं का प्रचलन भी मेवाड में रहा था जो टका, रुप्य आदि कहलाती थी।
परवर्ती काल में आलमशाही, मेहताशाही, चांदोडी, स्वरुपशाही, भूपालशाही, उदयपुरी, चित्तौड़ी, भीलवाड़ी त्रिशूलिया, फींतरा आदि कई मुद्राएं भिन्न-भिन्न समय में प्रचलित रहीं वहां सामन्तों की मुद्रा में भीण्डरीया पैसा एवं सलूम्बर का ठींगला व पदमशाही नामक ताम्बे का सिक्का जागीर क्षेत्र में चलता था। ब्रिटीश सरकार का "कलदार' भी व्यापार-वाणिज्य में प्रयुक्त किया जाता रहा था। जोधपुर अथवा मारवाड़ प्रदेश के अन्तर्गत प्राचीनकाल में "पंचमार्क' मुद्राओं का प्रचलन रहा था। ईसा की दूसरी शताब्दी में यहां बाहर से आए क्षत्रपों की मुद्रा "द्रम' का प्रचलन हुआ जो लगभग सम्पूर्ण दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान में आर्थिक आधार के साधन-रुप में प्रतिष्ठित हो गई। बांसवाड़ा जिले के सरवानियां गांव से १९११ ई. में प्राप्त वीर दामन की मुद्राएं इसका प्रमाण हैं। प्रतिहार तथा चौहान शासकों के सिक्कों के अलावा मारवाड़ में "फदका' या "फदिया' मुद्राओं का उल्लेख भी हमें प्राप्त होता है।
राजस्थान के अन्य प्राचीन राज्यों में जो सिक्के प्राप्त होते हैं वह सभी उत्तर मुगलकाल या उसके पश्चात् स्थानीय शासकों द्वारा अपने-अपने नाम से प्रचलित कराए हुए मिलते हैं। इनमें जयपुर अथवा ढुंढ़ाड़ प्रदेश में झाड़शाही रामशाही मुहर मुगल बादशाह के के नाम वाले सिक्को में मुम्मदशाही, प्रतापगढ़ के सलीमशाही बांसवाड़ा के लछमनशाही, बून्दी का हाली, कटारशाही, झालावाड़ का मदनशाही, जैसलमैर में अकेशाही व ताम्र मुद्रा - "डोडिया' अलवर का रावशाही आदि मुख्य कहे जा सकते हैं।
मुद्राओं को ढ़ालने वाली टकसालों तथा उनके ठप्पों का भी अध्ययन अपेक्षित है। इनसे तत्कालीन मुद्रा-विज्ञान पर वृहत प्रकाश डाला जा सकता है। मुद्राओं पर उल्लेखित विवरणों द्वारा हमें सत्ता के क्षेत्र विस्तार, शासकों के तिथिक्रम ही नहीं मिलते वरन् इनसे राजनीतिक व्यवहारों का अध्ययन भी किया जा सकता है।
मूर्ति कला
राजस्थान में काले, सफेद, भूरे तथा हल्के सलेटी, हरे, गुलाबी पत्थर से बनी मूर्तियों के अतिरिक्त पीतल या धातु की मूर्तियां भी प्राप्त होती हैं। गंगा नगर जिले के कालीबंगा तथा उदयपुर के निकट आहड़-सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी से बनाई हुई खिलौनाकृति की मूर्तियां भी मिलती हैं। किन्तु आदिकाल से शास्रोक्य मूर्ति कला की दृष्टि से ईसा पूर्व पहली से दूसरी शताब्दी के मध्य निर्मित जयपुर के लालसोट नाम स्थान पर ""बनजारे की छतरी'' नाम से प्रसिद्ध चार वेदिका स्तम्भ मूर्तियों का लक्षण द्रष्टत्य है। पदमक के धर्मचक्र, मृग, मत्स, आदि के अंकन मरहुत तथा अमरावती की कला के समानुरुप हैं। राजस्थान में गुप्त शासकों के प्रभावस्वरुप गुप्त शैली में निर्मित मूर्तियों, आभानेरी, कामवन तथा कोटा में कई स्थलों पर उपलब्ध हुई हैं।
गुप्तोतर काल के पश्चात् राजस्थान में सौराष्ट्र शैली, महागुर्जन शैली एवं महामास शैली का उदय एवं प्रभाव परिलक्षित होता है जिसमें महामास शैली केवल राजस्थान तक ही सीमित रही। इस शैली को मेवाड़ के गुहिल शासकों, जालौर व मण्डोर के प्रतिहार शासकों और शाकम्भरी (सांभर) के चौहान शासकों को संरक्षण प्रदान कर आठवीं से दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इसे विकसित किया।
१५वीं शताब्दी राजस्थान में मूर्तिकला के विकास का स्वर्णकाल था जिसका प्रतीक विजय स्तम्भ (चित्तौड़) की मूर्तियां है। सोलहवी शताब्दी का प्रतिमा शिल्प प्रदर्शन जगदीश मंदिर उदयपुर में देखा जा सकता है। यद्यपि इसके पश्चात् भी मूर्तियां बनी किंतु उस शिल्प वैचिञ्य कुछ भी नहीं है किंतु अठाहरवीं शताब्दी के बाद परम्परावादी शिल्प में पाश्चात्य शैली के लक्षण हमें दिखलाई देने लगते हैं। इसके फलस्वरुप मानव मूर्ति का शिल्प का प्रादूर्भाव राजस्थान में हुआ।
धातु मूर्ति कला
धातु मूर्ति कला को भी राजस्थान में प्रयाप्त प्रश्रय मिला। पूर्व मध्य, मध्य तथा उत्तरमध्य काल में जैन मूर्तियों का यहां बहुतायत में निर्माण हुआ। सिरोही जिले में वसूतगढ़ पिण्डवाड़ा नामक स्थान पर कई धातु प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जिसमें शारदा की मूर्ति शिल्प की दृष्टि से द्रस्टव्य है। भरतपुर, जैसलमेर, उदयपुर के जिले इस तरह के उदाहरण से परिपूर्ण है।
अठाहरवी शताब्दी से मूर्तिकला ने शनै: शनै: एक उद्योग का रुप लेना शुरु कर दिया था। अत: इनमें कलात्मक शैलियों के स्थान पर व्यवसायिकृत स्वरुप झलकने लगा। इसी काल में चित्रकला के प्रति लोगों का रुझान दिखलाई देता है।
चित्रकला
राजस्थान में यों तो अति प्राचीन काल से चित्रकला के प्रति लोगों में रुचि रही थी। मुकन्दरा की पहाड़ियों व अरावली पर्वत श्रेणियों में कुछ शैल चित्रों की खोज इसका प्रमाण है। कोटा के दक्षिण में चम्बल के किनारे, माधोपुर की चट्टानों से, आलनिया नदी से प्राप्त शैल चित्रों का जो ब्योरा मिलता है उससे लगता है कि यह चित्र बगैर किसी प्रशिक्षण के मानव द्वारा वातावरण प्रभावित, स्वाभाविक इच्छा से बनाए गए थे। इनमें मानव एवं जावनरों की आकृतियों का आधिक्य है। कुछ चित्र शिकार के कुछ यन्त्र-तन्त्र के रुप में ज्यामितिक आकार के लिए पूजा और टोना टोटका की दृष्टि से अंकित हैं।
कोटा के जलवाड़ा गांव के पास विलास नदी के कन्या दाह ताल से बैला, हाथी, घोड़ा सहित घुड़सवार एवं हाथी सवार के चित्र मिलें हैं। यह चित्र उस आदिम परम्परा को प्रकट करते हैं आज भी राजस्थान में ""मांडला'' नामक लोक कला के रुप में घर की दीवारों तथा आंगन में बने हुए देखे जा सकते हैं। इस प्रकार इनमें आदिम लोक कला के दर्शन सहित तत्कालीन मानव की आन्तरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति सहज प्राप्त होती है।
कालीबंगा और आहड़ की खुदाई से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों पर किया गया अलंकरण भी प्राचीनतम मानव की लोक कला का परिचय प्रदान करता है। ज्यामितिक आकारों में चौकोर, गोल, जालीदाल, घुमावदार, त्रिकोण तथा समानान्तर रेखाओं के अतिरिक्त काली व सफेद रेखाओं से फूल-पत्ती, पक्षी, खजूर, चौपड़ आदि का चित्रण बर्तनों पर पाया जाता है। उत्खनित-सभ्यता के पश्चात् मिट्टी पर किए जाने वाले लोक अलंकरण कुम्भकारों की कला में निरंतर प्राप्त होते रहते हैं किन्तु चित्रकला का चिन्ह ग्याहरवी शदी के पूर्व नहीं हुआ है।
सर्वप्रथम वि.सं. १११७/१०८० ई. के दो सचित्र ग्रंथ जैसलमेर के जैन भण्डार से प्राप्त होते हैं। औघनिर्युक्ति और दसवैकालिक सूत्रचूर्णी नामक यह हस्तलिखित ग्रन्थ जैन दर्शन से सम्बन्धित है। इसी प्रकार ताड़ एवं भोज पत्र के ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिए बनाये गए लकड़ी के पुस्तक आवरण पर की गई चित्रकारी भी हमें तत्कालीन काल के दृष्टान्त प्रदान करती है।
बारहवी शताब्दी तक निर्मित ऐसी कई चित्र पट्टिकाएं हमें राजस्थान के जैन भण्डारों में उपलब्ध हैं। इन पर जैन साधुओं, वनस्पति, पशु-पक्षी, आदि चित्रित हैं। अजमेर, पाली तथा आबू ऐसे चित्रकारों के मुख्य केन्द्र थे। तत्पशात् आहड़ एवं चित्तौड़ में भी इस प्रकार के सचित्र ग्रंथ बनने आरम्भ हुए। १२६०-१३१७ ई. में लिखा गया ""श्रावक प्रतिक्रमण सूत्रचूर्णि'' नामक ग्रन्थ मेवाड़ शैली (आहड़) का प्रथम उपलब्ध चिन्ह है, जिसके द्वारा राजस्थानी कला के विकास का अध्ययन कर सकते हैं।
ग्याहरवी से पन्द्रहवी शताब्दी तक के उपलब्ध सचित्र ग्रंथों में निशिथचूर्णि, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, नेमिनाथ चरित्र, कला सरित्सागर, कल्पसूत्र (१४८३/१४२६ ई.) कालक कथा, सुपासनाचरियम् (१४८५-१४२८ ई.) रसिकाष्टक (१४३५/१४९२ ई.) तथा गीत गोविन्द आदि हैं। १५वीं शदी तक मेवाड़ शैली की विशेषता में सवाचश्म्, गरुड़ नासिका, परवल की खड़ी फांक से नेत्र, घुमावदार व लम्बी उंगलियां, गुड्डिकार जनसमुदाय, चेहरों पर जकड़न, अलंकरण बाहुल्य, लाल-पीले रंग का अधिक प्रयोग कहे जा सकते हैं।
मेवाड़ के अनुरुप मारवाड़ में भी चित्रकला की परम्परा प्राचीन काल से पनपती रही थी। किंतु महाराणा मोकल से राणा सांगा (१४२१-१५२८ ई.) तक मेवाड़-मारवाड़ कला के राजनीतिक प्रभाव के फलस्वरुप साम्य दिखलाई होता है। राव मालदेव (१५३१-१५६२ ई.) ने पुन: मारवाड़ शैली को प्रश्य प्रदान कर चित्रकारों को इस ओर प्रेरित किया। इस शैली का उदाहरण १५९१ ई. में चित्रित ग्रन्थ उत्तराध्ययन सूत्र है। मारवाड़ शैली के भित्तिचित्रों मे जोधपुर के चोखेला महल को छतों के अन्दर बने चित्र दृष्टव्य हैं।
राजस्थान में मुगल प्रभाव के परिणाम स्वरुप सत्रहवीं शती से मुगल शैली और राजस्थान की परम्परागत राजपूत शैली के समन्वय ने कई प्रांतीय शेलियों को जन्म दिया, इनमें मेवाड़ और मारवाड़ के अतिरिक्त बूंदी, कोटा, जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, किशनगढ़ और नाथद्वारा शैली मुख्य है।
मुगल प्रभाव के फलत: चित्रों के विषय अन्त:पुर की रंगरेलियां, स्रियों के स्नान, होली के खेल, शिकार, बाग-बगीचे, घुड़सवारी, हाथी की सवारी आदि रहे। किन्तु इतिहास के पूरक स्रोत की दृष्चि से इनमें चित्रित समाज का अंकन एवं घटनाओं का चित्रण हमें सत्रहवीं से अठारहवी शताब्दी के अवलोकन की विस्तृत सामग्री प्रदान करता है। उदाहरणत: मारवाड़ शैली में उपलब्ध ""पंचतंत्र'' तथा ""शुकनासिक चरित्र'' में कुम्हार, धोबी, नाई, मजदूर, चिड़ीमार, लकड़हारा, भिश्ती, सुनार, सौदागर, पनिहारी, ग्वाला, माली, किसान आदि से सम्बन्धित जीवन-वृत का चित्रण मिलता है। किशनगढ़ शैली में राधा कृष्ण की प्रेमाभिव्यक्ति के चित्रण मिलते हैं। इस क्रम में बनीठनी का एकल चित्र प्रसिद्ध है। किशनगढ़ शैली में कद व चेहरा लम्बा नाक नुकीली बनाई जाती रही वही विस्तृत चित्रों में दरबारी जीवन की झांकियों का समावेश भी दिखलाई देता है।
मुगल शैली का अधिकतम प्रभाव हमें जयपुर तथा अलवर के चित्रों में मिलता है। बारामासा, राग माला, भागवत आदि के चित्र इसके उदाहरण हैं। १६७१ ई. से मेवाड़ में पुष्टि मार्ग से प्रभावित श्रीनाथ जी के धर्म स्थल नाथद्वारा की कलम का अलग महत्व है। यद्यपि यहां के चित्रों का विषय कृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित रहा है फिर भी जन-जीवन की अभिक्रियाओं का चित्रण भी हमें इनमें सहज दिख जाता है। १९वीं शताब्दी में ब्रिटिश प्रभाव के फलत: राजस्थान में पोट्रेट भी बनने शुरु हुए। यह पोट्रेट तत्कालीन रहन-सहन को अभिव्यक्त करने में इतिहास के अच्छे साधन हैं।
चित्रकला के अन्तर्गत भित्ति चित्रों का आधिक्य हमें अठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से दिखलाई देता है, किन्तु इसके पूर्व भी मन्दिरों और राज प्रासादों में ऐसे चित्रांकन की परम्परा विद्यमान थी। चित्तौड़ के प्राचीन महलों में ऐसे भित्ति चित्र उपलब्ध हैं जो सौलहवीं सदी में बनाए गए थे।
सत्रहवीं शताब्दी के चित्रणों में मोजमाबाद (जयपुर), उदयपुर के महलों तथा अम्बामाता के मंदिर, नाडोल के जैन मंदिन, आमेर (जयपुर) के निकट मावदूमशाह की कब्र के मुख्य गुम्बद के चित्र, जूनागढ़ (बीकानेर), मारोठ के मान मन्दिर गिने जा सकते हैं। अठाहरवीं शताब्दी के चित्रणों में कृष्ण विलास (उदयपुर) आमेर महल की भोजनशाला, गलता के महल, पुण्डरीक जी की हवेली (जयपुर) सूरजमल की छतरी (भरतपुर), झालिम सिंह की हवेली (कोटा) और मोती महल (नाथद्वारा) के भित्ति चित्र मुख्य हैं। यह चित्र आलागीला पद्धति या टेम्परा से बनाए गए थे। शेखावटी, जैसलमेर एवं बीकानेर की हवेलियों में इस प्रकार के भित्ति चित्र अध्ययनार्थ अभी भी देखे जा सकते हैं।
कपड़ो पर की जाने वाली कला में छपाई की चित्रकारी भी कला के इतिहास सहित इतिहास के अन्य अंगों पर प्रकाश डालने में समर्थ हो सकती है। यद्यपि वस्र रंगाई, छपाई, तथा कढ़ाई चित्रकला से प्रत्यक्ष सम्बन्धित नहीं हैं, किन्तु काल विशेष में अपनाई जाने वाली इस तकनीक, विद्या का अध्ययन कलागत तकनीकी इतिहास की उपादेय सामग्री बन सकती है। चांदी और सोने की जरी का काम किए वस्र शामियाने, हाथी, घोड़े तथा बैल की झूले आदि इस अध्ययन के साधन हैं।
धातु एवं काष्ठ कला
इसके अन्तर्गत तोप, बन्दूक, तलवार, म्यान, छुरी, कटारी, आदि अस्र-शस्र भी इतिहास के स्रोत हैं। इनकी बनावट इन पर की गई खुदाई की कला के साथ-साथ इन पर प्राप्त सन् एवं अभिलेख हमें राजनीतिक सूचनाएं प्रदान करते हैं। ऐसी ही तोप का उदाहरण हमें जोधपुर दुर्ग में देखने को मिला जबकि राजस्थान के संग्रहालयों में अभिलेख वाली कई तलवारें प्रदर्शनार्थ भी रखी हुई हैं। पालकी, काठियां, बैलगाड़ी, रथ, लकड़ी की टेबुल, कुर्सियां, कलमदान, सन्दूक आदि भी मनुष्य की अभिवृत्तियों का दिग्दर्शन कराने के साथ तत्कालीन कलाकारों के श्रम और दशाओं का ब्यौरा प्रस्तुत करने में हमारे लिए महत्वपूर्ण स्रोत सामग्री है।
लोककला
अन्तत: लोककला के अन्तर्गत बाद्य यंत्र, लोक संगीत और नाट्य का हवाला देना भी आवश्यक है। यह सभी सांस्कृतिक इतिहास की अमूल्य धरोहरें हैं जो इतिहास का अमूल्य अंग हैं। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक राजस्थान में लोगों का मनोरंजन का साधन लोक नाट्य व नृत्य रहे थे। रास-लीला जैसे नाट्यों के अतिरिक्त प्रदेश में ख्याल, रम्मत, रासधारी, नृत्य, भवाई, ढाला-मारु, तुर्रा-कलंगी या माच तथा आदिवासी गवरी या गौरी नृत्य नाट्य, घूमर, अग्नि नृत्य, कोटा का चकरी नृत्य, डीडवाणा पोकरण के तेराताली नृत्य, मारवाड़ की कच्ची घोड़ी का नृत्य, पाबूजी की फड़ तथा कठपुतली प्रदर्शन के नाम उल्लेखनीय हैं। पाबूजी की फड़ चित्रांकित पर्दे के सहारे प्रदर्शनात्मक विधि द्वारा गाया जाने वाला गेय-नाट्य है। लोक बादणें में नगाड़ा ढ़ोल-ढ़ोलक, मादल, रावण हत्था, पूंगी, बसली, सारंगी, तदूरा, तासा, थाली, झाँझ पत्तर तथा खड़ताल आदि हैं।
1. हल्के भूरे रंगों के (कपिष वर्ण) मिट्टी के बर्तनों पर काले व नीले रंग के चित्र यहां पर बनते थे। मकान पत्थरों से बनाये जाते थे, ईंटों का प्रयोग नहीं होता था। ताम्र उपकरण और आभूषण इस सभ्यता की शोभा बढ़ाते थे।
- ✓ गणेश्वर
- कालीबंगा
- आहड़
- बालाथल
गणेश्वर, राजस्थान के सीकर ज़िला के अंतर्गत नीम-का-थाना तहसील में ताम्रयुगीन संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण स्थल है। गणेश्वर से प्रचुर मात्रा में जो ताम्र सामग्री पायी गयी है, वह भारतीय पुरातत्त्व को राजस्थान की अपूर्व देन है। ताम्रयुगीन सांस्कृतिक केन्द्रों में से यह स्थल प्राचीनतम स्थल है। खेतड़ी ताम्र भण्डार के मध्य में स्थित होने के कारण गणेश्वर का महत्त्व स्वतः ही उजागर हो जाता है। यहाँ के उत्खनन से कई सहस्त्र ताम्र आयुध एवं ताम्र उपकरण प्राप्त हुए हैं। इनमें कुल्हाड़ी, तीर, भाले, सुइयाँ, मछली पकड़ने के काँटे, चूड़ियाँ एवं विविध ताम्र आभूषण प्रमुख हैं। इस सामग्री में 99 प्रतिशत ताँबा है। ताम्र आयुधों के साथ लघु पाषाण उपकरण मिले हैं, जिनसे विदित होता है कि उस समय यहाँ का जीवन भोजन संग्राही अवस्था में था। यहाँ के मकान पत्थर के बनाये जाते थे। पूरी बस्ती को बाढ़ से बचाने के लिए कई बार वृहताकार पत्थर के बाँध भी बनाये गये थे। कांदली उपत्यका में लगभग 300 ऐसे केन्द्रों की खोज़ की जा चुकी हैं, जहाँ गणेश्वर संस्कृति पुष्पित-पल्लवित हुई थी।
2. प्राचीन सभ्यता ‘गिलूण्ड’ के अवशेष किस नदी के किनारे और किस जिले में मिले है ?
- रूपारेल, भरतपुर
- ✓ बनास, राजसमन्द
- लूनी, पाली
- खारी, भीलवाड़ा
आघाटपुर-आयड़ सभ्यता का एक महत्वपूर्ण स्थान राजसमन्द जिले में गिलूण्ड है जो बनास नदी के तट पर बसा है। इस स्थान का उत्खनन सन् १९५९-६० में श्री बी.बी. लाल के निर्देशन में हुआ। तीसरा महत्वपूर्ण स्थान है बालाथल जो उदयपुर जिले के वल्लभनगर तहसील में स्थित है। यह उदयपुर से उत्तर पूर्व लगभग ४० किलोमीटर दूर है जिसका उत्खनन श्री बी.एम. मिश्र के निर्देशन में १९९३-९४ में हुआ। यह टीला बालाथल गांव के पास है जो तीन हेक्टर क्षेत्र में फैला है। इस टीले का उत्तरी आधा भाग सुरक्षित है तथा दक्षिणी आधा भाग एक स्थानीय कृषक द्वारा समतल कर दिया गया है और इस पर खेती होती है। (पुरातत्व विमर्श-जयनारायण पाण्डेय-पृ.४५१)
3. ‘राजस्थान संगीत’ नामक पुस्तक के लेखक -
- विजयसिंह पथिक
- ✓ सागरमल गोपा
- सुमनेश जोशी
- जयनारायण व्यास
4. तारीख-ए-राजस्थान के लेखक थे -
- खाफी खां
- ✓ कालीराय कायस्थ
- ज्वाला सहाय
- मूलचंद मुंशी
5. ‘राजरत्नाकर’ के लेखक थे -
- जीवाधर
- ✓ सदाशिव
- रघुनाथ
- कृष्ण भट्ट
6. जयानक भट्ट रचित ‘पृथ्वीराज विजय’ की भाषा थी -
- फारसी
- डिंगल
- ✓ संस्कृत
- पिंगल
7. ‘ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया’ के लेखक ने राजस्थान के इतिहास को बड़ा योगदान दिया है। इनका नाम था -
- ✓ जेम्स टॉड
- डफ ग्रांट
- हरयन गोल्ज
- जी.एच. ट्रेबर
कर्नल टॉड द्वारा भारत भ्रमण के अनुभव पर आधारित यह पुस्तक 1839 में उनकी मृत्यु (1835) के पश्चात प्रकाशित हुई थी।
8. स्वरूपशाही, चांदोड़ी, शाहआलमी, ढींगला एवं सिक्काएलची किस रियासत के प्रचलित सिक्के थे ?
- अलवर
- डूंगरपुर
- जयपुर
- ✓ मेवाड़
मेवाड़ में मुद्रा का प्रचलन - १८ वीं सदी के पूर्व मेवाड़ में मुगल शासको के नाम वाली “सिक्का एलची’ का प्रचलन था, लेकिन औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य का प्रभाव कम हो जाने के कारण अन्य राज्यों की तरह मेवाड़ में भी राज्य के सिक्के ढ़लने लगे। १७७४ ई. में उदयपुर में एक अन्य टकसाल खोली गई। इसी प्रकार भीलवाड़ा की टकसाल १७ वीं शताब्दी के पूर्व से ही स्थानीय वाणिज्य- व्यापार के लिए “भीलवाड़ी सिक्के’ ढ़ालती थी। बाद में चित्तौड़गढ़, उदयपुर तथा भीलवाड़ा तीनों स्थानों के टकसालों पर शाहआलम (द्वितीय) का नाम खुदा होता था। अतः यह “आलमशाही’ सिक्कों के रुप में प्रसिद्ध हुआ। राणा संग्रामसिंह द्वितीय के काल से इन सिक्कों के स्थान पर कम चाँदी के मेवाड़ी सिक्के का प्रचलन शुरु हो गया। ये सिक्के चित्तौड़ी और उदयपुरी सिक्के कहे गये। आलमशाही सिक्के की कीमत अधिक थी।
१०० आलमशाही सिक्के = १२५ चित्तौड़ी सिक्के
उदयपुरी सिक्के की कीमत चित्तौड़ी से भी कम थी। आंतरिक अशांति, अकाल और मराठा अतिक्रमण के कारण राणा अरिसिंह के काल में चाँदी का उत्पादन कम हो गया। आयात रुक गये। वैसी स्थिति में राज्य- कोषागार में संग्रहित चाँदी से नये सिक्के ढ़ाले गये, जो अरसीशाही सिक्के के नाम से जाने गये। इनका मूल्य था–
१ अरसी शाही सिक्का = १ चित्तौड़ी सिक्का = १ रुपया ४ आना ६ पैसा।
राणा भीम सिंह के काल में मराठे अपनी बकाया राशियों का मूल्य- निर्धारण सालीमशाही सिक्कों के आधार पर करने लगे थे। इनका मूल्य था —
सालीमशाही १ रुपया = चित्तौड़ी १ रुपया ८ आना
आर्थिक कठिनाई के समाधान के लिए सालीमशाही मूल्य के बराबर मूल्य वाले सिक्के का प्रचलन किया गया, जिन्हें “चांदोड़ी- सिक्के’ के रुप में जाना जाता है। उपरोक्त सभी सिक्के चाँदी, तांबा तथा अन्य धातुओं की निश्चित मात्रा को मिलाकर बनाये जाते थे। अनुपात में चाँदी की मात्रा तांबे से बहुत ज्यादा होती थी।
इन सिक्कों के अतिरिक्त त्रिशूलिया, ढ़ीगला तथा भीलाड़ी तोबे के सिक्के भी प्रचलित हुए। १८०५ -१८७० के बीच सलूम्बर जागीर द्वारा “पद्मशाही’ ढ़ीगला सिक्का चलाया गया, वहीं भीण्डर जागीर में महाराजा जोरावरसिंह ने “भीण्डरिया’ चलाया। इन सिक्कों की मान्यता जागीर लेन- देन तक ही सीमित थी। मराठा- अतिक्रमण काल के “मेहता’ प्रधान ने “मेहताशाही’ मुद्रा चलाया, जो बड़ी सीमित संख्या में मिलते हैं।
राणा स्वरुप सिंह ने वैज्ञानिक सिक्का ढ़लवाने का प्रयत्न किया। ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति के बाद नये रुप में स्वरुपशाही स्वर्ण व रजत मुद्राएँ ढ़ाली जाने लगी। जिनका वजन क्रमशः ११६ ग्रेन व १६८ ग्रेन था। १६९ ग्रेन शुद्ध सोने की मुद्रा का उपयोग राज्य- कोष की जमा – पूँजी के रुप में तथा कई शुभ- कार्यों के रुप में होता था। पुनः राज्य कोष में जमा मूल्य की राशि के बराबर चाँदी के सिक्के जारी कर दिये जाते थे। इसी समय में ब्रिटिशों का अनुसरण करते हुए आना, दो आना व आठ आना, जैसे छोटे सिक्के ढ़ाले जाने लगे, जिससे हिसाब- किताब बहुत ही सुविधाजनक हो गया। रुपये- पैसों को चार भागों में बाँटा गया पाव (१/२), आधा (१/२), पूण (१/३) तथा पूरा (१) सांकेतिक अर्थ में इन्हें ।, ।।, ।।। तथा १ लिखा जाता था। पूर्ण इकाई के पश्चात् अंश इकाई लिखने के लिए नाप में s चिन्ह का तथा रुपये – पैसे में o ) चिन्ह का प्रयोग होता था।
ब्रिटिश भारत सरकार के सिक्कों को भी राज्य में वैधानिक मान्यता थी। इन सिक्कों को कल्दार कहा जाता था। मेवाड़ी सिक्कों से इसके मूल्यांतर को बट्टा कहा जाता था। चांदी की मात्रा का निर्धारण इसी बट्टे के आधार पर होता था। उदयपुरी २.५ रुपया को २ रुपये कल्दार के रुप में माना जाता था। १९२८ ई. में नवीन सिक्कों के प्रचलन के बाद तत्कालीन राणा भूपालसिंह ने राज्य में प्रचलित इन प्राचीन सिक्कों के प्रयोग को बंद करवा दिया।
9. राजस्थान राज्य अभिलेखागार यहां स्थित है।
- ✓ बीकानेर
- जयपुर
- अजमेर
- जोधपुर
बीकानेर स्थित राजस्थान राज्य अभिलेखागार देश के सबसे अच्छे और विश्व के चर्चित अभिलेखागारों में से एक है. इस अभिलेखागार की स्थापना 1955 में हुई और यह अपनी अपार व अमूल्य अभिलेख निधि के लिए प्रतिष्ठित है।
10. ‘प्राण मित्रों भले ही गंवाना, पर यह झण्डा न नीचे झुकाना’ नामक प्रसिद्ध गीत के रचयिता थे -
- जयनारायण व्यास
- हीरालाल शास्त्री
- ✓ विजयसिंह पथिक
- तेजकवि
11. सरदार कुदरत सिंह का सम्बन्ध किससे है ?
- ब्ल्यू पोटरी
- ✓ मीनाकारी
- तलवार बाजी
- घुड़सवारी
सरदार कुदरत सिंह मीनाकारी में विशेष उपलब्धि हेतु 1988 में पद्मश्री से सम्मानित हो चुके है।
12. रिडकोर का कार्य है।
- पर्यटन सुविधा झुटाना
- ✓ सड़क निर्माण
- झील संरक्षण
- कन्टेनर संचालन
13. राजस्थान राज्य औद्योगिक विकास एवं विनियोजन निगम लि. (रीको) के उद्देश्यों में शामिल नहीं है-
- उद्योग विकास केन्द्रों की स्थापना करना
- औद्योगिक क्षेत्रों का विकास करना
- ✓ लघु उद्योगों को कच्चे माल की आपूर्ति करना
- मध्यम व बड़े उद्योगों को वित्तीय सहायता देना
14. खेतड़ी का तांबा संयंत्र अमेरिकी कंपनी के सहयोग से और देवारी का जस्ता संयंत्र ब्रिटेन के सहयोग से 60 के दशक में स्थापित किया गया। अब देबारी संयंत्र का अधिकांश हिस्सा इस समूह को बेच दिया गया है।
- ✓ वेदान्ता
- रिलायन्स
- टाटा
- बिड़ला
15. हिन्दुस्तान कॉपर लि. राजस्थान में खनिज तांबे के गलन एवं शोधन का कार्य करने वाला भारत सरकार का सार्वजनिक उपक्रम है। इसका मुख्यालय कहां है?
- दिल्ली
- ✓ कोलकाता
- मुम्बई
- चैन्नई
हिन्दुस्तान कॉपर लिमिटेड की स्थापना कोलकाता में 9 नवम्बर,1967 को हुई थी । यह भारत की एकमात्र शीर्षस्थ एकीकृत बहु इकाई ताम्र उत्पादक कंपनी है जो ताम्र कैथोड, निरंतर ढलाई वायर रॉड और वायर बार के खनन, सज्जीकरण, प्रगालन, परिष्करणन और निर्माण के बहुत सारे कार्य करती है ।
16. 2007 की पशुगणना के अनुसार राजस्थान में मुर्गियों की संख्या लगभग है।
- 30 लाख
- ✓ 50 लाख
- 70 लाख
- 80 लाख
17. फाल्गुन में भरने वाला पशुमेला है -
- चन्द्रभागा पशुमेला, झालरापाटन
- जसवन्त पशुमेला, भरतपुर
- रामदेव पशुमेला, नागौर
- श्री शिवरात्रि पशुमेला, करौली
18. 2007 की पशुगणना में जिस पशु की संख्या में सर्वाधिक प्रतिशत वृद्धि हुई है, वह है -
- गाय
- ✓ बकरी
- भेड़
- भैंस
19. राणा के प्रताप के प्रसिद्ध घोड़े चेतक के वंशज यहां पर तैयार किये जाने की योजना चल रही है
- मनोहर थाना
- ✓ बीकानेर
- उदयपुर
- सांचोर
20. होली के तेरह दिनों बाढ रंग तेरस पर माण्डल कस्बे में यह नृत्य किया जाता है -
- ✓ नाहर
- बिन्दौरी
- चकरी
- घूमर
भीलवाडा से 14 किलोमीटर दूर स्थित माण्डल कस्बे में प्राचीन स्तम्भ मिंदारा पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। यहाँ से कुछ ही दूर मेजा मार्ग पर स्थित प्रसिद्ध जगन्नाथ कछवाह की बतीस खम्भों की विशाल छतरी ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व का स्थल हैं। छह मिलोकमीटर दूर भीलवाडा का प्रसिद्ध पर्यटन स्थल मेजा बांध हैं। होली के तेरह दिन पश्चात रंग तेरस पर आयोजित नाहर नृत्य लोगों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र होता हैं। कहते हैं कि शाहजहाँ के शासनकाल से ही यहाँ यह नृत्य होता चला आ रहा हैं। यहां के तालाब के पाल पर प्राचीन शिव मंदिर स्थित है। जिसे भूतेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।
21. राजस्थान में किस नदी के किनारे सवाई भोज द्वारा निर्मित मंदिर है ?
- मेनाल
- ✓ खारी
- मानसी
- बनास
22. राजस्थान व मध्य प्रदेश के ये जिले पड़ोसी राज्यों से दो विपरीत दिशाओं में सीमा बनाते हैं -
- बाँसवाड़ा, मन्दसौर
- ✓ कोटा, रतलाम
- धौलपुर, ग्वालियर
- झालावाड़, गुना
23. ईरा, चाप और मोरन, किस नदी की सहायक है ?
- बनास
- चम्बल
- लूनी
- ✓ माही
24. जून 2011 में सूखा सम्भाव्य क्षेत्र कार्यक्रम कितने ज़िलों में लागू रहा ?
- 14
- ✓ 11
- 13
- 12
25. स्व- जलधारा कार्यक्रम का उद्देश्य है -
- पर्यटन सुविधा
- ✓ पेयजल सुविधा
- नदी संरक्षण
- सिंचाई सुविधा
ग्रामीण जनता की पेय-जल की समस्या को हल करने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा स्व-जलधारा कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसके अंतर्गत १० प्रतिशत समुदाय या ग्राम-पंचायत की भागीदारी होगी और ९० प्रतिशत केन्द्र सरकार पैसा देगी।
राजस्थानी चित्रकला : एक परिचय
राहुल तोन्गारिया
भारतीय चित्रकला में राजस्थानी चित्रकला का विशिष्ट स्थान है, उसका अपना एक अलग स्वरुप है। यहाँ की इस सम्पन्न चित्रकला के तरफ हमारा ध्यान सर्वप्रथम प्रसिद्ध कलाविद् आनन्दकंटका कुमारस्वामी ने अपनी पुस्तक ठराजपूत पेन्टिग' के माध्यम से दिलाया। कुछ उपलब्ध चित्रों के आधार पर कुमारस्वामी तथा ब्राउन जैसे विद्वानों ने यह धारणा बनाई कि राजस्थानी शैली, राजपूत शैली है तथा नाथद्वारा शैली के चित्र उदयपुर शैली के हैं। परिणामस्वरुप राजस्थानी शैली का स्वतंत्र अस्तित्व बहुत दिनों तक स्वीकार नहीं किया जा सका। इसके अलावा खंडालवाला की रचना ठलीवस फ्राम राजस्थान (मार्ग, भाग-त्ध्, संख्या ३, १९५२) ने पहली बार विद्धानों का ध्यान यहाँ की चित्रकला की उन खास पहलुओं की तरफ खींचा जो इन पर स्पष्ट मुगल प्रभावों को दर्शाता है।वास्तव में राजस्थानी शैली, जिसे शुरु में राजपूत शैली के रुप में जाना गया, का प्रादुर्भाव १५ वीं शती में अपभ्रंश शैली से हुआ। समयान्तर में विद्धानों की गवेषणाओं से राजस्थानी शैली के ये चित्र प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने लगे।
इन चित्रकृतियों पर किसी एक वर्ग विशेष का समष्टि रुप में प्रभाव पड़ना व्यवहारिक नहीं जान पड़ता। धीरे-धीरे यह बात प्रमाणित होती गई कि राजस्थानी शैली को राजपूत शैली में समावेशित नहीं किया जा सकता वरण इसके अन्तर्गत अनेक शैलियों का समन्वय किया जा सकता है। धीरे-धीरे राजस्थानी चित्रकला की एक शैली के बाद दूसरी शैली अपने कुछ क्षेत्रीय प्रभावों व उनपर मुगलों के आंशिक प्रभावों को लिए, स्वतंत्र रुप से अपना पहचान बनाने में सफल हो गयी। इनको हम विभिन्न नामों जैसे मेवाड़ शैली, मारवाड़ शैली, बूंदी शैली, किशानगढ़ शैली, जयपुर शैली, अलवर शैली, कोटा शैली, बीकानेर शैली, नाथ द्वारा शैली आदि के रुप में जाना जाता है। उणियारा तथा आमेर की उपशैलियाँ भी अस्तित्व में आयी जो उसी क्षेत्र की प्रचलित शैलियों का रुपान्तर है।
राजस्थानी चित्रकला की विशेषताएँ
राजस्थानी चित्रकला अपनी कुछ खास विशेषताओं की वज़ह से जानी जाती है।
प्राचीनता
प्राचीनकाल के भग्नावशेषों तथा तक्षणकला, मुद्रा कला तथा मूर्तिकला के कुछ एक नमूनों द्वारा यह स्पष्ट है कि राजस्थान में प्रारंभिक ऐतिहासिक काल से ही चित्रकला का एक सम्पन्न रुप रहा है। वि. से. पूर्व के कुछ राजस्थानी सिक्कों पर अंकित मनुष्य, पशु, पक्षी, सूर्य, चन्द्र, धनुष, बाण, स्तूप, बोधिद्रम, स्वास्तिक, ब्रज पर्वत, नदी आदि प्रतीकों से यहाँ की चित्रकला की प्राचीनता स्पष्ट होती है। वीर संवत् ८४ का बाड़ली-शिलालेख तथा वि. सं. पूर्व तीसरी शताब्दी के माध्यमिक नगरी के दो शिलालेखों से भी संकेतित है कि राजस्थान में बहुत पहले से ही चित्रकला का समृद्ध रुप रहा है। बैराट, रंगमहल तथा आहड़ से प्राप्त सामग्री पर वृक्षावली, रेखावली तथा रेखाओं का अंकन इसके वैभवशाली चित्रकला के अन्य साक्ष्य है।कलात्मकता
राजस्थान भारतीय इतिहास के राजनीतिक उथल-पुथल से बहुत समय तक बचा रहा है अत: यह अपनी प्राचीनता, कलात्मकता तथा मौलिकता को बहुत हद तक संजोए रखने में दूसरे जगहों के अपेक्षाकृत ज्यादा सफल रहा है। इसके अलावा यहाँ का शासक वर्ग भी सदैव से कला प्रेमी रहा है। उन्होने राजस्थान को वीरभूमि तथा युद्ध भूमि के अतिरिक्त ठकथा की सरसता से आप्लावित भूमि' होने का सौभाग्य भी प्रदान किया। इसकी कलात्मकता में अजन्ता शैली का प्रभाव दिखता है जो नि:संदेह प्राचीन तथा व्यापक है। बाद में मुगल शैली का प्रभाव पड़ने से इसे नये रुप में भी स्वीकृती मिल गई।
रंगात्मकता
चटकीले रंगो का प्रयोग राजस्थानी चित्रकला की अपनी विशेषता है। ज्यादातर लाल तथा पीले रंगों का प्रचलन है। ऐसे रंगो का प्रयोग यहाँ के चित्रकथा को एक नया स्वरुप देते है, नई सुन्दरता प्रदान करते है।
विविधता
राजस्थान में चित्रकला की विभिन्न शैलियाँ अपना अलग पहचान बनाती है। सभी शैलियों की कुछ अपनी विशेषताएँ है जो इन्हे दूसरों से अलग करती है। स्थानीय भिन्नताएँ, विविध जीवन शैली तथा अलग अलग भौगोलिक परिस्थितियाँ इन शैलियों को एक-दूसरे से अलग करती है। लेकिन फिर भी इनमें एक तरह का समन्वय भी देखने को मिलता है।
विषय-वस्तु
इस दृष्टिकोण से राजस्थानी चित्रकला को विशुद्ध रुप से भारतीय चित्रकला कहा जा सकता है। यह भारतीय जन-जीवन के विभिन्न रंगो की वर्षा करता है। विषय-वस्तु की विविधता ने यहाँ की चित्रकला शैलियों को एक उत्कृष्ट स्वरुप प्रदान किया। चित्रकारी के विषय-वस्तु में समय के साथ ही एक क्रमिक परिवर्त्तन देखने को मिलता है। शुरु के विषयों में नायक-नायिका तथा श्रीकृष्ण के चरित्र-चित्रण की प्रधानता रही लेकिन बाद में यह कला धार्मिक चित्रों के अंकन से उठकर विविध भावों को प्रस्फुटित करती हुई सामाजिक जीवन का प्रतिनिधित्व करने लगी। यहाँ के चित्रों में आर्थिक समृद्धि की चमक के साथ-साथ दोनों की कला है। शिकार के चित्र, हाथियों का युद्ध, नर्तकियों का अंकन, राजसी व्यक्तियों के छवि चित्र, पतंग उड़ाती, कबूतर उड़ाती तथा शिकार करती हुई स्रियाँ, होली, पनघट व प्याऊ के दृश्यों के चित्रण में यहाँ के कलाकारों ने पूर्ण सफलता के साथ जीवन के उत्साह तथा उल्लास को दर्शाया है।
बारहमासा के चित्रों में विभिन्न महीनों के आधार पर प्रकृति के बदलते स्वरुप को अंकित कर, सूर्योदय के राक्तिमवर्ण राग भैरव के साथ वीणा लिए नारी हरिण सहित दर्शाकर तथा संगीत का आलम्बन लेकर मेघों का स्वरुप बताकर कलाकार ने अपने संगीत-प्रेम तथा प्रकृति-प्रेम का मानव-रुपों के साथ परिचय दिया है। इन चित्रों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कथा, साहित्य व संगीत में कोई भिन्न अभिव्यक्ति नहीं है। प्रकृति की गंध, पुरुषों का वीरत्व तथा वहाँ के रंगीन उल्लासपूर्ण संस्कृति अनूठे ढंग से अंकित है।
स्री -सुन्दरता
राजस्थानी चित्रकला में भारतीय नारी को अति सुन्दर रुप में प्रस्तुत किया गया है। कमल की तरह बड़ी-बड़ी आँखे, लहराते हुए बाल, पारदर्शी कपड़ो से झाक रहे बड़े-बड़े स्तन, पतली कमर, लम्बी तथा घुमावदार ऊँगलियाँ आदि स्री-सुन्दरता को प्रमुखता से इंगित करते है। इन चित्रों से स्रियों द्वारा प्रयुक्त विभिन्न उपलब्ध सोने तथा चाँदी के आभूषण सुन्दरता को चार चाँद लगा देते है। आभूषणों के अलावा उनकी विभिन्न भंगिमाएँ, कार्य-कलाप तथा क्षेत्र विशेष के पहनावे चित्रकला में एक वास्तविकता का आभास देते है।
राजस्थानी चित्रकला का आरम्भ
राजस्थानी चित्रकला अपनी प्राचीनता के लिए जाना जाता है। अनेक प्राचीन साक्ष्य नि:सदेह इसके वैभवशाली आस्तित्व की पुष्टि करते हैं। जब राजस्थान की चित्रकला अपने प्रारंभिक दौर से गु रही थी तब अजन्ता परंम्परा भारत की चित्रकारी में एक नवजीवन का संचार कर रही थी। अरब आक्रमणों के झपेटों से बचने के लिए अनेक कलाकार गुजरात, लाट आदि प्रान्तों को छोड़कर देश के अन्य भागों में बसने लगे थे। जो चित्रकार इधर आये थे उन्होने अजन्ता परम्परा की शैली को स्थानीय शौलियों में स्वाभाविकता के साथ समन्वित किया। उनके तत्वावधान में अनेक चित्रपट तथा चित्रित ग्रंथ बनने लगे जिनमें निशीथचूर्णि, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, नेमिनाथचरित, कथासरित्सागर, उत्तराध्ययन सुत्र, कल्पसूत्र तथा कालककथा विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। अजन्ता परम्परा के गुजराती चित्रकार सर्वप्रथम मेवाड़ तथा मारवाड़ में पहुँचे। इस समन्वय से चित्रकारी की मौलिक विधि में एक नवीनता का संचार हुआ जिसे मडोर द्वार के गोवर्धन-धारण तथा बाडौली तथा नागदा गाँव की मूर्तिकला में सहज ही देखा जा सकता है। राजस्थान की समन्वित शैली के तत्वावधान में अनेक जैन-ग्रंथ चित्रित किये गये। शुरुआती अवधारणा थी कि इन्हें जैन साधुओं ने ही चित्रित किया है अत: इसे ठजैन शैली' कहा जाने लगा लेकिन बाद में पता चला कि इन ग्रंथों को जैनेत्तर चित्रकारों ने भी तैयार किया है तथा कुछ अन्य धार्मिक ग्रंथ जैसे बालगोपालस्तुति, दुर्गासप्तशती, गीतगोविंद आदि भी इसी शैली में चित्रित किये गये हैं तो जैन शैली के नाम की सभी चीनता में सन्देह व्यक्त किया गया। जब प्रथम बार अनेक ऐसे जैन ग्रंथ गुजरात से प्राप्त हुए तब इसे ठगुजरात शैली' कहा जाने लगा। लेकिन शीघ्र ही गुजरात के अलावा पश्चिम भारत के अन्य हिस्सों में दिखे तब इसे पश्चिम भारतीय शैली नाम दिया गया। बाद में इसी शैली के चित्र मालवा, गढ़मांडू, जौनपुर, नेपाल आदि अपश्चिमीय भागों में प्रचुरता से मिलने लगे तब इसके नाम को पुन: बदलने की आवश्यकता महसूस की गई। उस समय का साहित्य को अपभ्रंश साहित्य कहा जाता है। चित्रकला भी उस काल और स्वरुप से अपभ्रंश साहित्य से मेल खाती दिखाई देती है अत: इस शैली को ठअपभ्रंश शैली' कहा जाने लगा तथा शैली की व्यापकता की मर्यादा की रक्षा हो सकी। इस शैली को लोग चाहे जिस नाम से पुकारे इस बात में कोई संदेह नहीं कि इस शैली के चित्रों में गुजरात तथा राजस्थान में कोई भेद नहीं था। वागड़ तथा छप्पन के भाग में गुजरात से आये कलाकार "सोमपुरा" कहलाते है। महाराणा कुम्भा के समय का शिल्पी मंडन गुजरात से ही आकर यहाँ बसा था। उसका नाम आज भी राजस्थानी कला में एक सम्मानित स्थान रखता है। इस शैली का समय ११ वीं शताब्दी से १५ वीं शताब्दी तक माना जाता है। इसी का विकसित रुप वर्त्तमान का राजस्थानी चित्रकारी माना जाता है।
चूकि इसका प्रादुर्भाव अपभ्रंश शैली से हुआ है अत: इनके विषयों में कोई खास अन्तर नहीं पाया जाता पर विधान तथा आलेखन सम्बंधी कुछ बातों में अन्तर है। प्रारंभिक राजस्थानी शैली के रुप में अपभ्रंश शैली की सवाचश्म आँख एक चश्म हो गई तथा आकृति अंकन की रुढिबद्धता से स्वतंत्र होकर कलाकार ने एक नई सांस्कृतिक क्रान्ति को जन्म दिया। चित्र इकहरे कागज के स्थान पर बसली (कई कागजों को चिपका कर बनाई गई तह) पर अंकित होने लगे। अपभ्रंश के लाल, पीले तथा नीले रंगों के साथ-साथ अन्य रंगो का भी समावेश हुआ। विषय-वस्तु में विविधता आ गई। सामाजिक जीवन को चित्रित किया जाने लगा लेकिन उसकी मौलिकता को अक्षुण्ण रखने की कोशिश की गई। दूसरे शब्दों में राजस्थानी शैली अपभ्रंश शैली का ही एक नवीन रुप है जो ९ वी.-१० वीं. शती से कुछ विशेष कारणवश अवनति की ओर चली गई थी।
प्रारंभिक राजस्थानी चित्रों की उत्कृष्टता १५४० ई. के आसपास चित्रित ग्रंथों जिस में मृगावती, लौरचन्दा, चौरपंचाशिका तथा गीतगोविन्द प्रमुख हैं, पृष्ठों पर अंकित हैं। इसके अलावा रागमाला तथा भागवत के पृष्ठ इसकी उत्कृष्टता के परिचायक हैं। मालवा के रसिकप्रिया (१६३४ ई.) से राजस्थानी चित्रकारी में राजसी प्रमाणों का शुरुआत हुआ।
इन चित्रों के सौदर्य से मुगल भी प्रभावित हुए। बादशाह अकबर ने कई हिन्दु चित्रकारों को अपने शाही दरबारियों के समुह में सम्मिलित किया राजपुतों से वैवाहित सम्बन्ध स्थापित हो जाने के कारण दोनों के चित्र शैलियों में परस्पर आदान-प्रदान हुआ। राजस्थानी कलाकारों ने मुगल चित्रों से त्वचा का गुलाबी रंग ग्रहण किया जो किशनगढ़ शैली में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
दूसरी तरफ मुगलों ने राजस्थानी शैली की भाँति वास्तु का अपने चित्रों में प्रयोग किया। इसके अलावा चित्र भूमि में गहराई दर्शाकर नवीन पृष्ठ भूमि तैयार कर चित्रों को सुचारु रुप से संयोजित किया। १६ वी. से १८ वी. व १९ वी. शती तक कला की एक अनुपम धारा सूक्ष्म मिनियेचर रुप में कागज पर अंकित होती रही। इसके अतिरिक्त भित्ति-चित्रण परम्परा को भी राजस्थानी कलाकारों ने नव-जीवन दिया।
हाल के वर्षों में राजस्थानी शब्द का इस्तेमाल विस्तृत परिपेक्ष में होने लगा है। कुछ विद्वानों के मतानुसार राजस्थानी चित्रकला की सीमारेखा राजस्थान तक ही सीमित न रहकर मालवा तथा मध्य भारत तक फैला हुआ है।
राजस्थानी चित्रकला अपनी प्राचीनता के लिए जाना जाता है। अनेक प्राचीन साक्ष्य नि:सदेह इसके वैभवशाली आस्तित्व की पुष्टि करते हैं। जब राजस्थान की चित्रकला अपने प्रारंभिक दौर से गु रही थी तब अजन्ता परंम्परा भारत की चित्रकारी में एक नवजीवन का संचार कर रही थी। अरब आक्रमणों के झपेटों से बचने के लिए अनेक कलाकार गुजरात, लाट आदि प्रान्तों को छोड़कर देश के अन्य भागों में बसने लगे थे। जो चित्रकार इधर आये थे उन्होने अजन्ता परम्परा की शैली को स्थानीय शौलियों में स्वाभाविकता के साथ समन्वित किया। उनके तत्वावधान में अनेक चित्रपट तथा चित्रित ग्रंथ बनने लगे जिनमें निशीथचूर्णि, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, नेमिनाथचरित, कथासरित्सागर, उत्तराध्ययन सुत्र, कल्पसूत्र तथा कालककथा विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। अजन्ता परम्परा के गुजराती चित्रकार सर्वप्रथम मेवाड़ तथा मारवाड़ में पहुँचे। इस समन्वय से चित्रकारी की मौलिक विधि में एक नवीनता का संचार हुआ जिसे मडोर द्वार के गोवर्धन-धारण तथा बाडौली तथा नागदा गाँव की मूर्तिकला में सहज ही देखा जा सकता है। राजस्थान की समन्वित शैली के तत्वावधान में अनेक जैन-ग्रंथ चित्रित किये गये। शुरुआती अवधारणा थी कि इन्हें जैन साधुओं ने ही चित्रित किया है अत: इसे ठजैन शैली' कहा जाने लगा लेकिन बाद में पता चला कि इन ग्रंथों को जैनेत्तर चित्रकारों ने भी तैयार किया है तथा कुछ अन्य धार्मिक ग्रंथ जैसे बालगोपालस्तुति, दुर्गासप्तशती, गीतगोविंद आदि भी इसी शैली में चित्रित किये गये हैं तो जैन शैली के नाम की सभी चीनता में सन्देह व्यक्त किया गया। जब प्रथम बार अनेक ऐसे जैन ग्रंथ गुजरात से प्राप्त हुए तब इसे ठगुजरात शैली' कहा जाने लगा। लेकिन शीघ्र ही गुजरात के अलावा पश्चिम भारत के अन्य हिस्सों में दिखे तब इसे पश्चिम भारतीय शैली नाम दिया गया। बाद में इसी शैली के चित्र मालवा, गढ़मांडू, जौनपुर, नेपाल आदि अपश्चिमीय भागों में प्रचुरता से मिलने लगे तब इसके नाम को पुन: बदलने की आवश्यकता महसूस की गई। उस समय का साहित्य को अपभ्रंश साहित्य कहा जाता है। चित्रकला भी उस काल और स्वरुप से अपभ्रंश साहित्य से मेल खाती दिखाई देती है अत: इस शैली को ठअपभ्रंश शैली' कहा जाने लगा तथा शैली की व्यापकता की मर्यादा की रक्षा हो सकी। इस शैली को लोग चाहे जिस नाम से पुकारे इस बात में कोई संदेह नहीं कि इस शैली के चित्रों में गुजरात तथा राजस्थान में कोई भेद नहीं था। वागड़ तथा छप्पन के भाग में गुजरात से आये कलाकार "सोमपुरा" कहलाते है। महाराणा कुम्भा के समय का शिल्पी मंडन गुजरात से ही आकर यहाँ बसा था। उसका नाम आज भी राजस्थानी कला में एक सम्मानित स्थान रखता है। इस शैली का समय ११ वीं शताब्दी से १५ वीं शताब्दी तक माना जाता है। इसी का विकसित रुप वर्त्तमान का राजस्थानी चित्रकारी माना जाता है।
चूकि इसका प्रादुर्भाव अपभ्रंश शैली से हुआ है अत: इनके विषयों में कोई खास अन्तर नहीं पाया जाता पर विधान तथा आलेखन सम्बंधी कुछ बातों में अन्तर है। प्रारंभिक राजस्थानी शैली के रुप में अपभ्रंश शैली की सवाचश्म आँख एक चश्म हो गई तथा आकृति अंकन की रुढिबद्धता से स्वतंत्र होकर कलाकार ने एक नई सांस्कृतिक क्रान्ति को जन्म दिया। चित्र इकहरे कागज के स्थान पर बसली (कई कागजों को चिपका कर बनाई गई तह) पर अंकित होने लगे। अपभ्रंश के लाल, पीले तथा नीले रंगों के साथ-साथ अन्य रंगो का भी समावेश हुआ। विषय-वस्तु में विविधता आ गई। सामाजिक जीवन को चित्रित किया जाने लगा लेकिन उसकी मौलिकता को अक्षुण्ण रखने की कोशिश की गई। दूसरे शब्दों में राजस्थानी शैली अपभ्रंश शैली का ही एक नवीन रुप है जो ९ वी.-१० वीं. शती से कुछ विशेष कारणवश अवनति की ओर चली गई थी।
प्रारंभिक राजस्थानी चित्रों की उत्कृष्टता १५४० ई. के आसपास चित्रित ग्रंथों जिस में मृगावती, लौरचन्दा, चौरपंचाशिका तथा गीतगोविन्द प्रमुख हैं, पृष्ठों पर अंकित हैं। इसके अलावा रागमाला तथा भागवत के पृष्ठ इसकी उत्कृष्टता के परिचायक हैं। मालवा के रसिकप्रिया (१६३४ ई.) से राजस्थानी चित्रकारी में राजसी प्रमाणों का शुरुआत हुआ।
इन चित्रों के सौदर्य से मुगल भी प्रभावित हुए। बादशाह अकबर ने कई हिन्दु चित्रकारों को अपने शाही दरबारियों के समुह में सम्मिलित किया राजपुतों से वैवाहित सम्बन्ध स्थापित हो जाने के कारण दोनों के चित्र शैलियों में परस्पर आदान-प्रदान हुआ। राजस्थानी कलाकारों ने मुगल चित्रों से त्वचा का गुलाबी रंग ग्रहण किया जो किशनगढ़ शैली में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
दूसरी तरफ मुगलों ने राजस्थानी शैली की भाँति वास्तु का अपने चित्रों में प्रयोग किया। इसके अलावा चित्र भूमि में गहराई दर्शाकर नवीन पृष्ठ भूमि तैयार कर चित्रों को सुचारु रुप से संयोजित किया। १६ वी. से १८ वी. व १९ वी. शती तक कला की एक अनुपम धारा सूक्ष्म मिनियेचर रुप में कागज पर अंकित होती रही। इसके अतिरिक्त भित्ति-चित्रण परम्परा को भी राजस्थानी कलाकारों ने नव-जीवन दिया।
हाल के वर्षों में राजस्थानी शब्द का इस्तेमाल विस्तृत परिपेक्ष में होने लगा है। कुछ विद्वानों के मतानुसार राजस्थानी चित्रकला की सीमारेखा राजस्थान तक ही सीमित न रहकर मालवा तथा मध्य भारत तक फैला हुआ है।
मारवाड़ी शैली
इस शैली का विकास जोधपुर, बीकानेर, नागौर आदि स्थानों में प्रमुखता से हुआ। मेवाड़ की भाँति, उसी काल में मारवाड़ में भी अजन्ता परम्परा की चित्रकला का प्रभाव पड़ा। तारानाथ के अनुसार इस शैली का सम्बन्ध श्रृंगार से है जिसने स्थानीय तथा अजन्ता परम्परा के सामंजस्य द्वारा मारवाड़ शैली को जन्म दिया।
इस शैली का विकास जोधपुर, बीकानेर, नागौर आदि स्थानों में प्रमुखता से हुआ। मेवाड़ की भाँति, उसी काल में मारवाड़ में भी अजन्ता परम्परा की चित्रकला का प्रभाव पड़ा। तारानाथ के अनुसार इस शैली का सम्बन्ध श्रृंगार से है जिसने स्थानीय तथा अजन्ता परम्परा के सामंजस्य द्वारा मारवाड़ शैली को जन्म दिया।
मंडोर के द्वार की कला तथा ६८७ ई. के शिवनाग द्वारा निर्मित धातु की एक मूर्ति जो अब पिंडवाड़ा में है यह सिद्ध करती है कि चित्रकला तथा मूर्तिकला दोनों में मारवाड़ इस समय तक अच्छी प्रगति कर चुका था। लगभग १००० ई. से १५०० ई. के बीच इस शैली में अनेक जैन ग्रंथों को चित्रित किया गया। इस युग के कुछ ताड़पत्र, भोजपत्र आदि पर चित्रित कल्प सूत्रों व अन्य ग्रंथों की प्रतियाँ जोधपुर पुस्तक प्रकाश तथा जैसलमेर जैन भंडार में सुरक्षित हैं।
इस काल के पश्चात् कुछ समय तक मारवाड़ पर मेवाड़ का राजनीतिक प्रभुत्व रहा। महाराणा मोकल के काल से लेकर राणा सांगा के समय तक मारवाड़ में मेवाड़ी शैली के चित्र बनते रहे। बाद में मालदेव का सैनिक प्रभुत्व (१५३१-३६ ई.) इस प्रभाव को कम कर मारवाड़ शैली को फिर एक स्वतंत्र रुप दिया। यह मालदेव की सैनिक रुचि की अभिव्यक्ति, चोखेला महल, जोधपुर की बल्लियों एवं छत्तों के चित्रों से स्पष्ट है। इसमें ठराम-रावण युद्ध' तथा ठसप्तशती' के अनेक दृश्यों को भी चित्रित किया गया है। चेहरों की बनावट भावपूर्ण दिखायी गई है। १५९१ में मारवाड़ शैली में बनी उत्तराध्ययनसूत्र का चित्रण बड़ौदा संग्रहालय में सुरक्षित है।
जब मारवाड़ का सम्बन्ध मुगलों से बढ़ा तो मारवाड़ शैली में मुगल शैली के तत्वो की वृद्धि हुई। १६१० ई. में बने भागवत के चित्रण में हम पाते है कि अर्जुन कृष्ण की वेषभूषा मुगली है परन्तु उनके चेहरों की बनावट स्थानीय है। इसी प्रकार गोपियों की वेषभूषा मारवाड़ी ढंग की है परन्तु उसके गले के आभुषण मुगल ढंग के है। औरंगजेब व अजीत सिंह के काल में मुगल विषयों को भी प्रधानता दी जाने लगी। विजय सिंह और मान सिंह के काल में भक्तिरस तथा श्रृंगाररस के चित्र अधिक तैयार किये गये जिसमें ठनाथचरित्र' ठभागवत', शुकनासिक चरित्र, पंचतंत्र आदि प्रमुख हैं।
इस शैली में लाल तथा पीले रंगो का व्यापक प्रयोग है जो स्थानीय विशेषता है लेकिन बारीक कपड़ों का प्रयोग गुम्बद तथा नोकदार जामा का चित्रण मुगली है। इस शैली में पुरुष व स्रियाँ गठीले आकार की रहती है। पुरुषों के गलमुच्छ तथा ऊँची पगड़ी दिखाई जाती है तथा स्रियों के वस्रों में लाल रंग के फुदने का प्रयोग किया जाता है। १८ वीं सदी से सामाजिक जीवन के हर पहलू के चित्र ज्यादा मिलने लगते है। उदाहरणार्थ पंचतंत्र तथा शुकनासिक चरित्र आदि में कुम्हार, धोबी, मजदूर, लकड़हारा, चिड़ीमार, नाई, भिश्ती, सुनार, सौदागर, पनिहारी, ग्वाला, माली, किसान आदि का चित्रण मिलता है। इन चित्रों में सुनहरे रंगों को प्रयोग मुगल शैली से प्रभावित है।
इस काल के पश्चात् कुछ समय तक मारवाड़ पर मेवाड़ का राजनीतिक प्रभुत्व रहा। महाराणा मोकल के काल से लेकर राणा सांगा के समय तक मारवाड़ में मेवाड़ी शैली के चित्र बनते रहे। बाद में मालदेव का सैनिक प्रभुत्व (१५३१-३६ ई.) इस प्रभाव को कम कर मारवाड़ शैली को फिर एक स्वतंत्र रुप दिया। यह मालदेव की सैनिक रुचि की अभिव्यक्ति, चोखेला महल, जोधपुर की बल्लियों एवं छत्तों के चित्रों से स्पष्ट है। इसमें ठराम-रावण युद्ध' तथा ठसप्तशती' के अनेक दृश्यों को भी चित्रित किया गया है। चेहरों की बनावट भावपूर्ण दिखायी गई है। १५९१ में मारवाड़ शैली में बनी उत्तराध्ययनसूत्र का चित्रण बड़ौदा संग्रहालय में सुरक्षित है।
जब मारवाड़ का सम्बन्ध मुगलों से बढ़ा तो मारवाड़ शैली में मुगल शैली के तत्वो की वृद्धि हुई। १६१० ई. में बने भागवत के चित्रण में हम पाते है कि अर्जुन कृष्ण की वेषभूषा मुगली है परन्तु उनके चेहरों की बनावट स्थानीय है। इसी प्रकार गोपियों की वेषभूषा मारवाड़ी ढंग की है परन्तु उसके गले के आभुषण मुगल ढंग के है। औरंगजेब व अजीत सिंह के काल में मुगल विषयों को भी प्रधानता दी जाने लगी। विजय सिंह और मान सिंह के काल में भक्तिरस तथा श्रृंगाररस के चित्र अधिक तैयार किये गये जिसमें ठनाथचरित्र' ठभागवत', शुकनासिक चरित्र, पंचतंत्र आदि प्रमुख हैं।
इस शैली में लाल तथा पीले रंगो का व्यापक प्रयोग है जो स्थानीय विशेषता है लेकिन बारीक कपड़ों का प्रयोग गुम्बद तथा नोकदार जामा का चित्रण मुगली है। इस शैली में पुरुष व स्रियाँ गठीले आकार की रहती है। पुरुषों के गलमुच्छ तथा ऊँची पगड़ी दिखाई जाती है तथा स्रियों के वस्रों में लाल रंग के फुदने का प्रयोग किया जाता है। १८ वीं सदी से सामाजिक जीवन के हर पहलू के चित्र ज्यादा मिलने लगते है। उदाहरणार्थ पंचतंत्र तथा शुकनासिक चरित्र आदि में कुम्हार, धोबी, मजदूर, लकड़हारा, चिड़ीमार, नाई, भिश्ती, सुनार, सौदागर, पनिहारी, ग्वाला, माली, किसान आदि का चित्रण मिलता है। इन चित्रों में सुनहरे रंगों को प्रयोग मुगल शैली से प्रभावित है।
किशनगढ़ शैली
जोधपुर से वंशीय सम्बन्ध होने तथा जयपुर से निकट होते हुए भी किशनगढ़ में एक स्वतंत्र शैली का विकास हुआ। सुन्दरता की दृष्टि से इस शैली के चित्र विश्व-विख्यात हैं। अन्य स्थानों की भाँति यहाँ भी प्राचीन काल से चित्र बनते रहे। किशानगढ़ राज्य के संस्थापक किशन सिंह कृष्ण के अनन्योपासक थे। इसके पश्चात् सहसमल, जगमल व रुपसिंह ने यहाँ शासन किया। मानसिंह व राजसिंह (१७०६-४८) ने यहाँ की कलाशैली के पुष्कल सहयोग दिया। परन्तु किशानगढ़ शैली का समृद्ध काल राजसिंह के पुत्र सामन्त सिंह (१६९९-१७६४) से जो नागरीदारा के नाम से आधिक विख्यात हैं, से आरंम्भ होता है। नागरीदारा की शैली में वैष्णव धर्म के प्रति श्रद्धा, चित्रकला के प्रति अभिरुचि तथा अपनी प्रेयसी ठवणी-ठणी' से प्रेम का चित्रण महत्वपूर्ण है। कविहृदय सावन्त सिंह नायिका वणी-ठणी से प्रेरित होकर अपना राज्य छोड़ ठवणी-ठणी' को साथ लेकर वृन्दावन में आकर बस गये और नागर उपनाम से नागर सम्मुचय की रचना की। नागरीदास की वैष्णव धर्म में इतनी श्रद्धा थी और उनका गायिका वणी ठणी से प्रेम उस कोटि का था कि वे अपने पारस्परिक प्रेम में राधाकृष्ण की अनुभूति करने लगे थे। उनदोनों के चित्र इसी भाव को व्यक्त करते है। चित्रित सुकोमला वणी-ठणी को ठभारतीय मोनालिसा' नाम से अभिहित किया गया। काव्यसंग्रह के आधार पर चित्रों के सृजन कर श्रेय नागरी दास के ही समकालीन कलाकार निहालचन्द को है। ठवणी-ठणी' में कोकिल कंठी नायिका की दीर्घ नासिका, कजरारे नयन, कपोलों पर फैले केशराशि के सात दिखलाया गया है। इस प्रकार इस शैली में हम कला, प्रेम और भक्ति का सर्वाणीण सामंजस्य पाते है। निहालचन्द के अलावा सूरजमल इस समय का प्रमुख चित्रकार था। अन्य शैलियों की तरह इस शैली में भी ठगीत-गोविन्द' का चित्रण हुआ।
जोधपुर से वंशीय सम्बन्ध होने तथा जयपुर से निकट होते हुए भी किशनगढ़ में एक स्वतंत्र शैली का विकास हुआ। सुन्दरता की दृष्टि से इस शैली के चित्र विश्व-विख्यात हैं। अन्य स्थानों की भाँति यहाँ भी प्राचीन काल से चित्र बनते रहे। किशानगढ़ राज्य के संस्थापक किशन सिंह कृष्ण के अनन्योपासक थे। इसके पश्चात् सहसमल, जगमल व रुपसिंह ने यहाँ शासन किया। मानसिंह व राजसिंह (१७०६-४८) ने यहाँ की कलाशैली के पुष्कल सहयोग दिया। परन्तु किशानगढ़ शैली का समृद्ध काल राजसिंह के पुत्र सामन्त सिंह (१६९९-१७६४) से जो नागरीदारा के नाम से आधिक विख्यात हैं, से आरंम्भ होता है। नागरीदारा की शैली में वैष्णव धर्म के प्रति श्रद्धा, चित्रकला के प्रति अभिरुचि तथा अपनी प्रेयसी ठवणी-ठणी' से प्रेम का चित्रण महत्वपूर्ण है। कविहृदय सावन्त सिंह नायिका वणी-ठणी से प्रेरित होकर अपना राज्य छोड़ ठवणी-ठणी' को साथ लेकर वृन्दावन में आकर बस गये और नागर उपनाम से नागर सम्मुचय की रचना की। नागरीदास की वैष्णव धर्म में इतनी श्रद्धा थी और उनका गायिका वणी ठणी से प्रेम उस कोटि का था कि वे अपने पारस्परिक प्रेम में राधाकृष्ण की अनुभूति करने लगे थे। उनदोनों के चित्र इसी भाव को व्यक्त करते है। चित्रित सुकोमला वणी-ठणी को ठभारतीय मोनालिसा' नाम से अभिहित किया गया। काव्यसंग्रह के आधार पर चित्रों के सृजन कर श्रेय नागरी दास के ही समकालीन कलाकार निहालचन्द को है। ठवणी-ठणी' में कोकिल कंठी नायिका की दीर्घ नासिका, कजरारे नयन, कपोलों पर फैले केशराशि के सात दिखलाया गया है। इस प्रकार इस शैली में हम कला, प्रेम और भक्ति का सर्वाणीण सामंजस्य पाते है। निहालचन्द के अलावा सूरजमल इस समय का प्रमुख चित्रकार था। अन्य शैलियों की तरह इस शैली में भी ठगीत-गोविन्द' का चित्रण हुआ।
इस शैली के चेहरे लम्बे, कद लम्बा तथा नाक नुकीली रहती है। नारी नवयौवना, लज्जा से झुका पतली व लम्बी है। धनुषाकार भ्रू-रेखा, खंजन के सदृश नयन तथा गौरवर्ण है। अधर पतले व हिगुली रंग के हैं। हाथ मेहंदी से रचे तथा महावर से रचे पैर है। नाक में मोती से युक्त नथ पहने, उच्च वक्ष स्थल पर पारदर्शी छपी चुन्नी पहने रुप यौवना सौदर्य की पराकाष्ठा है। नायक पारदर्शक जामे मे खेत ९ मूंगिया पगड़ी पहने प्रेम का आहवान से करता है। मानव रुपों के साथ प्रकृति भी सफलता से अंकित है। स्थानीय गोदोला तालाब तथा किशनगढ़ के नगर को दूर से दिखाया जाना इस शैली की अन्य विशेषता है। चित्रों को गुलाबी व हरे छींटदार हाशियों से बाँधा गया है। चित्रों में दिखती वेषभूषा फर्रुखसियर कालीन है। इन विशेषताओं को हम वृक्षों की घनी पत्रावली अट्टालिकाओं तथा दरवारी जीवन की रात की झांकियों, सांझी के चित्रो तथा नागरीदास से सम्बद्ध वृन्दावन के चित्रों में देख सकते है।
बीकानेर शैली
मारवाड़ शैली से सम्बंधित बीकानेर शैली का समृद्ध रुप अनूपसिंह के शासन काल में मिलता है। उस समय के प्रसिद्ध कलाकारों में रामलाल, अजीरजा, हसन आदि के नाम विशेषत रुप से उल्लेखनीय हैं। इस शैली में पंजाब की कलम का प्रभाव भी देखा गया है क्यों कि अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण बीकानेर उत्तरी प्रदेशों से प्रभावित रहा है। लेकिन दक्षिण से अपेक्षतया दूर होने के बाबजूद यहाँ फब्वारों, दरबार के दिखावों आदि में दक्षिण शैली का प्रभाव मिलता है क्यों कि यहाँ के शासकों की नियुक्ति दक्षिण में बहुत समय तक रही।
मारवाड़ शैली से सम्बंधित बीकानेर शैली का समृद्ध रुप अनूपसिंह के शासन काल में मिलता है। उस समय के प्रसिद्ध कलाकारों में रामलाल, अजीरजा, हसन आदि के नाम विशेषत रुप से उल्लेखनीय हैं। इस शैली में पंजाब की कलम का प्रभाव भी देखा गया है क्यों कि अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण बीकानेर उत्तरी प्रदेशों से प्रभावित रहा है। लेकिन दक्षिण से अपेक्षतया दूर होने के बाबजूद यहाँ फब्वारों, दरबार के दिखावों आदि में दक्षिण शैली का प्रभाव मिलता है क्यों कि यहाँ के शासकों की नियुक्ति दक्षिण में बहुत समय तक रही।
हाड़ौती शैली/बूंदी व कोटा शैली
राजस्थानी चित्रकला को बूंदी व कोटा चित्रशैली ने भी अनूठे रंगों से युक्त स्वर्मिण संयोजन प्रदान किया है। प्रारंभिक काल में राजनीतिक कारणों से बूंदी कला पर मेवाड़ शैली का प्रभाव स्पष्ट रुप से परिलक्षित होता है। इस स्थिति को स्पष्ट व्यक्त करने वाले चित्रों में रागमाला (१६२५ ई.) तथा भैरवी रागिनी उल्लेखनीय है।
राजस्थानी चित्रकला को बूंदी व कोटा चित्रशैली ने भी अनूठे रंगों से युक्त स्वर्मिण संयोजन प्रदान किया है। प्रारंभिक काल में राजनीतिक कारणों से बूंदी कला पर मेवाड़ शैली का प्रभाव स्पष्ट रुप से परिलक्षित होता है। इस स्थिति को स्पष्ट व्यक्त करने वाले चित्रों में रागमाला (१६२५ ई.) तथा भैरवी रागिनी उल्लेखनीय है।
इस शैली का विकास राव सुरजन सिंह (१५५४-८५) के समय के आरम्भ हो जाता है। उन्होने मुगलों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया था अत: धीरे-धीरे चित्रकला की पद्धति में एक नया मोड़ आना शुरु हो जाता है। दीपक राग तथा भैरव रागिनी के चित्र राव रतन सिंह (१६०७-३१) के समय में निर्मित हुए। राव रतन सिंह चूकि जहाँगीर का कृपा पात्र था, तथा उसके बाद राव माधो सिंह के काल में जो शाहजहाँ के प्रभाव में था, चित्र कला के क्षेत्र में भी मुगल प्रभाव निरन्तर बढ़ता गया। चित्रों में बाग, फव्वारे, फूलों की कतार, तारों भरी राते आदि का समावेश मुगल ढंग से किया जाने लगा। भाव सिंह (१६५८-८१) भी काव्य व कला प्रेमी शासक था। राग- रागिनियों का चित्रण इनके समय में हुआ। राजा अनिरुद्ध के समय दक्षिण युद्धों के फलस्वरुप बूंदी शैली में दक्षिण कला के तत्वों का सम्मिलित हुआ। बूंदी शैली के उन्नयन में यहाँ के शासक राव राजाराम सिंह (१८२१-८९) का अभूतपूर्व सहयोग रहा। बूंदी महल के ठछत्र महल' नामक प्रकोष्ठ में उन्होने भित्ति-चित्रो का निर्माण करवाया।
बूंदी चित्रों में पटोलाक्ष, नुकीली नाक, मोटे गाल, छोटे कद तथा लाल पीले रंग की प्राचुर्यता स्थानीय विशेषताओं का द्योतक है जबकि गुम्बद का प्रयोग और बारीक कपड़ों का अंकन मुगली है। स्रियों की वेशगुषा मेवाड़ी शैली की है। वे काले रंग के लहगे व लाल चुनरी में हैं। पुरुषाकृतियाँ नील व गौर वर्ण में हृष्ट-पुष्ट हैं, दाढ़ी व मूँछो से युक्त चेहरा भारी चिबुक वाला है। वास्तुचित्रण प्रकृति के मध्य है। घुमावदार छतरियों व लाल पर्दो से युक्त वातायन बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं। केलों के कुज अन्तराल को समृद्ध करते हैं।
बूंदी चित्रों का वैभव चित्रशाला, बड़े महाराज का महल, दिगम्बर जैन गंदिर, बूंदी कोतवाली, अन्य कई हवेलियों तथा बावड़ियों में बिखरा हुआ है।
कोटा में भी राजनीतिक स्वतंत्रता से नवीन शैली का आरम्भ होता है। वल्लभ सम्प्रदाय जिसका प्रभाव यहाँ १८ वीं शती के प्रारम्भिक चरण में पड़ा, में राधा कृष्ण का अंकन विशेष रुप से हुआ। परन्तु कोटा शैली अपनी स्वतंत्र अस्तित्व न रखकर बूंदी शैली का ही अनुकरण करती है। उदाहरणार्थ जालिम सिंह की हवेली में चित्रित नायिका हू-ब-हू बूंदी नायिका की नकल कही जा सकती है। आगे चलकर भी कोटा शैली बूंदी शैली से अलग न हो सकी। कोटा के कला प्रेमी शासक उम्मेद सिंह (१७७१-१८२०) की शिकार में अत्यधिक रुचि थी अत: उसके काल में शिकार से सम्बद्ध चित्र अधिक निर्मित हुए। आक्रामक चीता व राजा उम्मेद सिंह का शिकार करते हुए चित्र बहुत सजीव है। चित्रों में प्रकृति की सधनता जंगल का भयावह दृश्य उपस्थित करती है। कोटा के उत्तम चित्र देवताजी की हवेली, झालाजी की हवेली व राजमहल से प्राप्त होते हैं।
बूंदी चित्रों का वैभव चित्रशाला, बड़े महाराज का महल, दिगम्बर जैन गंदिर, बूंदी कोतवाली, अन्य कई हवेलियों तथा बावड़ियों में बिखरा हुआ है।
कोटा में भी राजनीतिक स्वतंत्रता से नवीन शैली का आरम्भ होता है। वल्लभ सम्प्रदाय जिसका प्रभाव यहाँ १८ वीं शती के प्रारम्भिक चरण में पड़ा, में राधा कृष्ण का अंकन विशेष रुप से हुआ। परन्तु कोटा शैली अपनी स्वतंत्र अस्तित्व न रखकर बूंदी शैली का ही अनुकरण करती है। उदाहरणार्थ जालिम सिंह की हवेली में चित्रित नायिका हू-ब-हू बूंदी नायिका की नकल कही जा सकती है। आगे चलकर भी कोटा शैली बूंदी शैली से अलग न हो सकी। कोटा के कला प्रेमी शासक उम्मेद सिंह (१७७१-१८२०) की शिकार में अत्यधिक रुचि थी अत: उसके काल में शिकार से सम्बद्ध चित्र अधिक निर्मित हुए। आक्रामक चीता व राजा उम्मेद सिंह का शिकार करते हुए चित्र बहुत सजीव है। चित्रों में प्रकृति की सधनता जंगल का भयावह दृश्य उपस्थित करती है। कोटा के उत्तम चित्र देवताजी की हवेली, झालाजी की हवेली व राजमहल से प्राप्त होते हैं।
ढूंढ़ार शैली / जयपुर शैली
जयपुर शैली का विकास आमेर शैली से हुआ। मुगल शैली के प्रभाव का आधित्य इस शैली की विशेषता है। जयपुर के महाराजाओं पर मुगल जीवन तथा नीति की छाप विशेष रुप से रही है। अकबर के आमेर के राजा भारमल की पुत्री से विवाहोपरान्त सम्बन्धों में और प्रगाढ़ता आयी।
शुरुआती चित्र परम्परा भाऊपुरा रैनबाल की छवरी, भारभल की छवरी (कालियादमन, मल्लयोद्धा), आमेर महल व वैराट की छतरियों में भित्तियों पर (वंशी बजाते कृष्ण) तथा कागजों पर प्राप्त होती है। बाद में राजा जयसिंह (१६२१-६७) तथा सवाई जयसिंह (१६९९-१७४३) ने इस शैली को प्रश्रय दिया। राजा सवाई जयसिंह ने अपने दरबार में मोहम्मद शाह व साहिबराम चितेरो को प्रश्रय दिया। इन कलाकारों ने सुन्दर व्यक्ति, चित्रों व पशु-पक्षियों की लड़ाई सम्बंधी अनेक बड़े आकार के चित्र बनाए। सवाई माधो सिंह प्रथम (१७५०-६७) के समय में अलंकरणों में रंग न भरकर मोती, लाख व लकड़ियाँ की मणियों को चिपकाकर चित्रण कार्य हुआ। इसी समय माधोनिवास, सिसोदिनी महल, गलता मंदिर व सिटी पैलेस में सुन्दर भिति चित्रों का निर्माण हुआ। सवाई प्रताप सिंह (१७७९-१८०३) जो स्वयं पुष्टि मार्गी कवि थे, के समय में कृष्ण लीला, नायिका भेद, राग-रागिनी, ॠतुवर्णन, भागवतपुराण, दुर्गासप्तसती से सम्बंधित चित्र सृजित हुए। महाराज जगतसिंह के समय में पुण्डरीक हवेली के भित्ति चित्र, विश्व-प्रसिद्ध ठकृष्ण का गोवर्धन-धारण' नामक चित्र रासमण्डल के चित्रों का निर्माण हुआ। पोथीखाने के आसावरी रागिणी के चित्र व उसी मंडल के अन्य रागों के चित्रों में स्थानीय शैली की प्रधानता दिखाई देती है। कलाकार ने आसावरी रागिणी के चित्र में शबरी के केशों, उसके अल्प कपड़ों, आभूषणों और चन्दन के वृक्ष के चित्रण में जयपुर शैली की वास्तविकता को निभाया है। इसी तरह पोथीखाना के १७ वीं शताब्दी के ठभागवत' चित्रों में जो लाहोरे के एक खत्री द्वारा तैयार करवाये गये थे, स्थानीय विशेषताओं का अच्छा दिग्दर्शन है। १८ वीं शाताब्दी की ठभागवत' में रंगों की चटक मुगली है। चित्रों में द्वारिका का चित्रण जयपुर नगर की रचना के आधार पर किया गया है और कृष्ण-अर्जुन की वेषभूषा मुगली है। १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जयपुर शैली पर पाश्चात्य प्रभाव पड़ना शुरु हो जाता है। जयपुर शैली के चित्र गातिमय रेखाओं से मुक्त, शान्तिप्रदायक वर्णा में अंकित है। आकृतियाँ की भरभार होते हुए भी चेहरे भावयुक्त है। मुगल प्रभाव से चित्रों में छाया, प्रकाश व परदा का मुक्त प्रयोग हुआ है। आकृतियाँ सामान्य कद की हैं। आभूषणों में मुगल प्रभाव स्पष्ट दिखायी देता है। स्रियों की वेशभूषा में भी मुगल प्रभाव स्पष्ट है। उनके अधोवस्र में घेरदार घाघरा ऊपर से बाँधा जाता है और पायजामा तथा छोटी ओढ़नी पहनाई जाती है जो मुगल परम्परा के अनुकूल है। पैरो में पायजेब व जुतियाँ है। चेहरों को चिकनाहट और गौरवर्ण फारसी शैली के अनुकूल है। वह अपने भाव मोटे अधरों से व्यक्त करती है। पुरुष के सिर पर पगड़ी,घेरदार चुन्नटी जामा, ढ़ीली मोरी के पाजामें, पैरों में लम्बी नोक की जूतियाँ हैं।
आज भी जयपुर में हाथी-दाँत पर लघु चित्र व बारह-मासा आदि का चित्रण कर उसे निर्यात किया जाता है। भित्ति चित्रण परंपरा भी अभी अस्तित्व में है।
अलवर शैली
यह शैली मुगल शैली तथा जयपुर शैली का सम्मिश्रण माना जा सकता है। यह चित्र औरंगजेब के काल से लेकर बाद के मुगल कालीन सम्राटों तथा कम्पनी काल तक प्रचुर संख्या में मिलते हैं। जब औरंगजेब ने अपने दरबार से सभी कलात्मक प्रवृत्तियों का तिरस्कार करना शुरु किया ते राजस्थान की तरफ आने वाले कलाकारों का प्रथम दल अलवर में आ टिका, क्योंकि कि मुगल दरबार से यह निकटतम राज्य था। उस क्षेत्र में मुगल शैली का प्रभाव वैसे तो पहले से ही था, पर इस स्थिति में यह प्रभाव और भी बढ़ गया।
इस शैली में राजपूती वैभव, विलासिता, रामलीला, शिव आदि का अंकन हुआ है। नर्त्तकियों के थिरकन से युक्त चित्र बहुतायक में निर्मित हुए। मुख्य रुप से चित्रण कार्य स्क्रोल व हाथी-दाँत की पट्टियों पर हुआ। कुछ विद्धानों ने उपर्युक्त शैलियों के अतिरिक्त कुछ अन्य शौलियों के भी अस्तित्व को स्वीकार किया है। ये शैलियाँ मुख्य तथा स्थानीय प्रभाव के कारण मुख्य शैलियाँ से कुछ अलग पहचान बनाती है।
यह शैली मुगल शैली तथा जयपुर शैली का सम्मिश्रण माना जा सकता है। यह चित्र औरंगजेब के काल से लेकर बाद के मुगल कालीन सम्राटों तथा कम्पनी काल तक प्रचुर संख्या में मिलते हैं। जब औरंगजेब ने अपने दरबार से सभी कलात्मक प्रवृत्तियों का तिरस्कार करना शुरु किया ते राजस्थान की तरफ आने वाले कलाकारों का प्रथम दल अलवर में आ टिका, क्योंकि कि मुगल दरबार से यह निकटतम राज्य था। उस क्षेत्र में मुगल शैली का प्रभाव वैसे तो पहले से ही था, पर इस स्थिति में यह प्रभाव और भी बढ़ गया।
इस शैली में राजपूती वैभव, विलासिता, रामलीला, शिव आदि का अंकन हुआ है। नर्त्तकियों के थिरकन से युक्त चित्र बहुतायक में निर्मित हुए। मुख्य रुप से चित्रण कार्य स्क्रोल व हाथी-दाँत की पट्टियों पर हुआ। कुछ विद्धानों ने उपर्युक्त शैलियों के अतिरिक्त कुछ अन्य शौलियों के भी अस्तित्व को स्वीकार किया है। ये शैलियाँ मुख्य तथा स्थानीय प्रभाव के कारण मुख्य शैलियाँ से कुछ अलग पहचान बनाती है।
आमेर शैली
अन्य देशी रियासतों से आमेर का इतिहास अलग रहा है। यहाँ की चित्रकारी में तुर्की तथा मुगल प्रभाव अधिक दीखते है जो इसे एक स्वतंत्र स्थान देती है।
अन्य देशी रियासतों से आमेर का इतिहास अलग रहा है। यहाँ की चित्रकारी में तुर्की तथा मुगल प्रभाव अधिक दीखते है जो इसे एक स्वतंत्र स्थान देती है।
उणियारा शैली
अपनी आँखों की खास बनावट के कारण यह शैली जयपुर शैली से थोड़ी अलग है। इसमें आँखे इस तरह बनाई जाती थी मानो उसे तस्वीर पर जमा कर बनाया गया हो।
अपनी आँखों की खास बनावट के कारण यह शैली जयपुर शैली से थोड़ी अलग है। इसमें आँखे इस तरह बनाई जाती थी मानो उसे तस्वीर पर जमा कर बनाया गया हो।
डूंगरपूर उपशैली
इस शैली में पुरुषों के चेहरे मेवाड़ शैली से बिल्कुल भिन्न है और पंगड़ी का बन्धेज भी अटपटी से मेल नहीं खाता। स्रियों की वेषभूषा में भी बागड़ीपन है।
इस शैली में पुरुषों के चेहरे मेवाड़ शैली से बिल्कुल भिन्न है और पंगड़ी का बन्धेज भी अटपटी से मेल नहीं खाता। स्रियों की वेषभूषा में भी बागड़ीपन है।
देवगढ़ उपशैली
देवगढ़ में बडी संख्या में ऐसे चित्र मिले हैं जिनमें मारवाड़ी और मेवाड़ी कलमों का समावेश है। यह भिन्नता विशेषत: भौगोलिक स्थिति के कारण देखी गई है।
देवगढ़ में बडी संख्या में ऐसे चित्र मिले हैं जिनमें मारवाड़ी और मेवाड़ी कलमों का समावेश है। यह भिन्नता विशेषत: भौगोलिक स्थिति के कारण देखी गई है।
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