Thursday, September 12, 2013

RAJASTHAN GK - 3

राजस्थानी कला : इतिहास का पूरक साधन

राहुल तनेगारिया
इतिहास के साधनों में शिलालेख, पुरालेख और साहित्य के समानान्तर कला भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसके द्वारा हमें मानव की मानसिक प्रवृतियों का ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता वरन् निर्मितियों में उनका कौशल भी दिखलाई देता है। यह कौशल तत्कालीन मानव के विज्ञान तथा तकनीक के साथ-साथ समाज, धर्म, आर्थिक और राजनीतिक विषयों का तथ्यात्मक विवरण प्रदान करने में इतिहास का स्रोत बन जाता है। इसमें स्थापत्या, मूर्ति, चित्र, मुद्रा, वस्राभूषण, श्रृंगार-प्रसाधन, घरेलु उपकरण इत्यादि जैसे कई विषय समाहित है जो पुन: विभिन्न भागों में विभक्त किए जा सकते हैं।


राजस्थानी स्थापत्य कला
राजस्थान में प्राचीन काल से ही हिन्दु, बौद्ध, जैन तथा मध्यकाल से मुस्लिम धर्म के अनुयायियों द्वारा मंदिर, स्तम्भ, मठ, मस्जिद, मकबरे, समाधियों और छतरियों का निर्माण किया जाता रहा है। इनमें कई भग्नावेश के रुप में तथा कुछ सही हालत में अभी भी विद्यमान है। इनमें कला की दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन देवालयों के भग्नावशेष हमें चित्तौड़ के उत्तर में नगरी नामक स्थान पर मिलते हैं। प्राप्त अवशेषों में वैष्णव, बौद्ध तथा जैन धर्म की तक्षण कला झलकती है। तीसरी सदी ईसा पूर्व से पांचवी शताब्दी तक स्थापत्य की विशेषताओं को बतलाने वाले उपकरणों में देवी-देवताओं, यक्ष-यक्षिणियों की कई मूर्तियां, बौद्ध, स्तूप, विशाल प्रस्तर खण्डों की चाहर दीवारी का एक बाड़ा, ३६ फुट और नीचे से १४ फुल चौड़ दीवर कहा जाने वाला "गरुड़ स्तम्भ' यहां भी देखा जा सकता है। १५६७ ई. में अकबर द्वारा चित्तौड़ आक्रमण के समय इस स्तम्भ का उपयोग सैनिक शिविर में प्रकाश करने के लिए किया गया था। गुप्तकाल के पश्चात् कालिका मन्दिर के रुप में विद्यमान चित्तौड़ का प्राचीन "सूर्य मन्दिर' इसी जिले में छोटी सादड़ी का भ्रमरमाता का मन्दिर कोटा में, बाड़ौली का शिव मन्दिर तथा इनमें लगी मूर्तियां तत्कालीन कलाकारों की तक्षण कला के बोध के साथ जन-जीवन की अभिक्रियाओं का संकेत भी प्रदान करती हैं। चित्तौड़ जिले में स्थित मेनाल, डूंगरपुर जिले में अमझेरा, उदयपुर में डबोक के देवालय अवशेषों की शिव, पार्वती, विष्णु, महावीर, भैरव तथा नर्तकियों का शिल्प इनके निर्माण काल के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का क्रमिक इतिहास बतलाता है।

सातवीं शताब्दी से राजस्थान की शिल्पकला में राजपूत प्रशासन का प्रभाव हमें शक्ति और भक्ति के विविध पक्षों द्वारा प्राप्त होता है। जयपुर जिले में स्थित आमानेरी का मन्दिर (हर्षमाता का मंदिर), जोधपुर में ओसिया का सच्चियां माता का मन्दिर, जोधपुर संभाग में किराडू का मंदिर, इत्यादि और भिन्न प्रांतों के प्राचीन मंदिर कला के विविध स्वरों की अभिव्यक्ति संलग्न राजस्थान के सांस्कृतिक इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डालने वाले स्थापत्य के नमूने हैं।

उल्लेखित युग में निर्मित चित्तौड़, कुम्भलगढ़, रणथंभोर, गागरोन, अचलगढ़, गढ़ बिरली (अजमेर का तारागढ़) जालोर, जोधपुर आदि के दुर्ग-स्थापत्य कला में राजपूत स्थापत्य शैली के दर्शन होते हैं। सरक्षा प्रेरित शिल्पकला इन दुर्गों की विशेषता कही जा सकती है जिसका प्रभाव इनमें स्थित मन्दिर शिल्प-मूर्ति लक्षण एवं भवन निर्माण में आसानी से परिलक्षित है। तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् स्थापत्य प्रतीक का अद्वितीय उदाहरण चित्तौड़ का "कीर्ति स्तम्भ' है, जिसमें उत्कीर्म मूर्तियां जहां हिन्दू धर्म का वृहत संग्रहालय कहा जा सकता है। वहां इसकी एक मंजिल पर खुदे फारसी-लेख से स्पष्ट होता है कि स्थापत्य में मुस्लिम लक्ष्ण का प्रभाव पड़ना शुरु होने लगा था।

सत्रहवीं शताब्दी के पश्चात् भी परम्परागत आधारों पर मन्दिर बनते रहे जिनमें मूर्ति शिल्प के अतिरिक्त भित्ति चित्रों की नई परम्परा ने प्रवेश किया जिसका अध्ययन राजस्थानी इतिहास के लिए सहयोगकर है।
मुद्रा कला

राजस्थान के प्राचीन प्रदेश मेवाड़ में मज्झमिका (मध्यमिका) नामधारी चित्तौड़ के पास स्थित नगरी से प्राप्त ताम्रमुद्रा इस क्षेत्र को शिविजनपद घोषित करती है। तत्पश्चात् छठी-सातवीं शताब्दी की स्वर्ण मुद्रा प्राप्त हुई। जनरल कनिंघम को आगरा में मेवाड़ के संस्थापक शासक गुहिल के सिक्के प्राप्त हुए तत्पश्चात ऐसे ही सिक्के औझाजी को भी मिले। इसके उर्ध्वपटल तथा अधोवट के चित्रण से मेवाड़ राजवंश के शैवधर्म के प्रति आस्था का पता चलता है। राणा कुम्भाकालीन (१४३३-१४६८ ई.) सिक्कों में ताम्र मुद्राएं तथा रजत मुद्रा का उल्लेख जनरल कनिंघम ने किया है। इन पर उत्कीर्ण वि.सं. १५१०, १५१२, १५२३ आदि तिथियों ""श्री कुभंलमेरु महाराणा श्री कुभंकर्णस्य'', ""श्री एकलिंगस्य प्रसादात'' और ""श्री'' के वाक्यों सहित भाले और डमरु का बिन्दु चिन्ह बना हुआ है। यह सिक्के वर्गाकृति के जिन्हें "टका' पुकारा जाता था। यह प्रबाव सल्तनत कालीन मुद्रा व्यवस्था को प्रकट करता है जो कि मेवाड़ में राणा सांगा तक प्रचलित रही थी। सांगा के पश्चात् शनै: शनै: मुगलकालीन मुद्रा की छाया हमें मेवाड़ और राजस्थान के तत्कालीन अन्यत्र राज्यों में दिखलाई देती है। सांगा कालीन (१५०९-१५२८ ई.) प्राप्त तीन मुद्राएं ताम्र तथा तीन पीतल की है। इनके उर्ध्वपटल पर नागरी अभिलेख तथा नागरी अंकों में तिथि तथा अधोपटल पर ""सुल्तान विन सुल्तान'' का अभिलेख उत्कीर्ण किया हुआ मिलता है। प्रतीक चिन्हों में स्वास्तिक, सूर्य और चन्द्र प्रदर्शित किये गए हैं। इस प्रकार सांगा के उत्तराधिकारियों राणा रत्नसिंह द्वितीय, राणा विक्रमादित्य, बनवीर आदि की मुद्राओं के संलग्न मुगल-मुद्राओं का प्रचलन भी मेवाड में रहा था जो टका, रुप्य आदि कहलाती थी।

परवर्ती काल में आलमशाही, मेहताशाही, चांदोडी, स्वरुपशाही, भूपालशाही, उदयपुरी, चित्तौड़ी, भीलवाड़ी त्रिशूलिया, फींतरा आदि कई मुद्राएं भिन्न-भिन्न समय में प्रचलित रहीं वहां सामन्तों की मुद्रा में भीण्डरीया पैसा एवं सलूम्बर का ठींगला व पदमशाही नामक ताम्बे का सिक्का जागीर क्षेत्र में चलता था। ब्रिटीश सरकार का "कलदार' भी व्यापार-वाणिज्य में प्रयुक्त किया जाता रहा था। जोधपुर अथवा मारवाड़ प्रदेश के अन्तर्गत प्राचीनकाल में "पंचमार्क' मुद्राओं का प्रचलन रहा था। ईसा की दूसरी शताब्दी में यहां बाहर से आए क्षत्रपों की मुद्रा "द्रम' का प्रचलन हुआ जो लगभग सम्पूर्ण दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान में आर्थिक आधार के साधन-रुप में प्रतिष्ठित हो गई। बांसवाड़ा जिले के सरवानियां गांव से १९११ ई. में प्राप्त वीर दामन की मुद्राएं इसका प्रमाण हैं। प्रतिहार तथा चौहान शासकों के सिक्कों के अलावा मारवाड़ में "फदका' या "फदिया' मुद्राओं का उल्लेख भी हमें प्राप्त होता है।

राजस्थान के अन्य प्राचीन राज्यों में जो सिक्के प्राप्त होते हैं वह सभी उत्तर मुगलकाल या उसके पश्चात् स्थानीय शासकों द्वारा अपने-अपने नाम से प्रचलित कराए हुए मिलते हैं। इनमें जयपुर अथवा ढुंढ़ाड़ प्रदेश में झाड़शाही रामशाही मुहर मुगल बादशाह के के नाम वाले सिक्को में मुम्मदशाही, प्रतापगढ़ के सलीमशाही बांसवाड़ा के लछमनशाही, बून्दी का हाली, कटारशाही, झालावाड़ का मदनशाही, जैसलमैर में अकेशाही व ताम्र मुद्रा - "डोडिया' अलवर का रावशाही आदि मुख्य कहे जा सकते हैं।
मुद्राओं को ढ़ालने वाली टकसालों तथा उनके ठप्पों का भी अध्ययन अपेक्षित है। इनसे तत्कालीन मुद्रा-विज्ञान पर वृहत प्रकाश डाला जा सकता है। मुद्राओं पर उल्लेखित विवरणों द्वारा हमें सत्ता के क्षेत्र विस्तार, शासकों के तिथिक्रम ही नहीं मिलते वरन् इनसे राजनीतिक व्यवहारों का अध्ययन भी किया जा सकता है।

मूर्ति कला

राजस्थान में काले, सफेद, भूरे तथा हल्के सलेटी, हरे, गुलाबी पत्थर से बनी मूर्तियों के अतिरिक्त पीतल या धातु की मूर्तियां भी प्राप्त होती हैं। गंगा नगर जिले के कालीबंगा तथा उदयपुर के निकट आहड़-सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी से बनाई हुई खिलौनाकृति की मूर्तियां भी मिलती हैं। किन्तु आदिकाल से शास्रोक्य मूर्ति कला की दृष्टि से ईसा पूर्व पहली से दूसरी शताब्दी के मध्य निर्मित जयपुर के लालसोट नाम स्थान पर ""बनजारे की छतरी'' नाम से प्रसिद्ध चार वेदिका स्तम्भ मूर्तियों का लक्षण द्रष्टत्य है। पदमक के धर्मचक्र, मृग, मत्स, आदि के अंकन मरहुत तथा अमरावती की कला के समानुरुप हैं। राजस्थान में गुप्त शासकों के प्रभावस्वरुप गुप्त शैली में निर्मित मूर्तियों, आभानेरी, कामवन तथा कोटा में कई स्थलों पर उपलब्ध हुई हैं।

गुप्तोतर काल के पश्चात् राजस्थान में सौराष्ट्र शैली, महागुर्जन शैली एवं महामास शैली का उदय एवं प्रभाव परिलक्षित होता है जिसमें महामास शैली केवल राजस्थान तक ही सीमित रही। इस शैली को मेवाड़ के गुहिल शासकों, जालौर व मण्डोर के प्रतिहार शासकों और शाकम्भरी (सांभर) के चौहान शासकों को संरक्षण प्रदान कर आठवीं से दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इसे विकसित किया।

१५वीं शताब्दी राजस्थान में मूर्तिकला के विकास का स्वर्णकाल था जिसका प्रतीक विजय स्तम्भ (चित्तौड़) की मूर्तियां है। सोलहवी शताब्दी का प्रतिमा शिल्प प्रदर्शन जगदीश मंदिर उदयपुर में देखा जा सकता है। यद्यपि इसके पश्चात् भी मूर्तियां बनी किंतु उस शिल्प वैचिञ्य कुछ भी नहीं है किंतु अठाहरवीं शताब्दी के बाद परम्परावादी शिल्प में पाश्चात्य शैली के लक्षण हमें दिखलाई देने लगते हैं। इसके फलस्वरुप मानव मूर्ति का शिल्प का प्रादूर्भाव राजस्थान में हुआ।

धातु मूर्ति कला

धातु मूर्ति कला को भी राजस्थान में प्रयाप्त प्रश्रय मिला। पूर्व मध्य, मध्य तथा उत्तरमध्य काल में जैन मूर्तियों का यहां बहुतायत में निर्माण हुआ। सिरोही जिले में वसूतगढ़ पिण्डवाड़ा नामक स्थान पर कई धातु प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जिसमें शारदा की मूर्ति शिल्प की दृष्टि से द्रस्टव्य है। भरतपुर, जैसलमेर, उदयपुर के जिले इस तरह के उदाहरण से परिपूर्ण है।

अठाहरवी शताब्दी से मूर्तिकला ने शनै: शनै: एक उद्योग का रुप लेना शुरु कर दिया था। अत: इनमें कलात्मक शैलियों के स्थान पर व्यवसायिकृत स्वरुप झलकने लगा। इसी काल में चित्रकला के प्रति लोगों का रुझान दिखलाई देता है।

चित्रकला

राजस्थान में यों तो अति प्राचीन काल से चित्रकला के प्रति लोगों में रुचि रही थी। मुकन्दरा की पहाड़ियों व अरावली पर्वत श्रेणियों में कुछ शैल चित्रों की खोज इसका प्रमाण है। कोटा के दक्षिण में चम्बल के किनारे, माधोपुर की चट्टानों से, आलनिया नदी से प्राप्त शैल चित्रों का जो ब्योरा मिलता है उससे लगता है कि यह चित्र बगैर किसी प्रशिक्षण के मानव द्वारा वातावरण प्रभावित, स्वाभाविक इच्छा से बनाए गए थे। इनमें मानव एवं जावनरों की आकृतियों का आधिक्य है। कुछ चित्र शिकार के कुछ यन्त्र-तन्त्र के रुप में ज्यामितिक आकार के लिए पूजा और टोना टोटका की दृष्टि से अंकित हैं।

कोटा के जलवाड़ा गांव के पास विलास नदी के कन्या दाह ताल से बैला, हाथी, घोड़ा सहित घुड़सवार एवं हाथी सवार के चित्र मिलें हैं। यह चित्र उस आदिम परम्परा को प्रकट करते हैं आज भी राजस्थान में ""मांडला'' नामक लोक कला के रुप में घर की दीवारों तथा आंगन में बने हुए देखे जा सकते हैं। इस प्रकार इनमें आदिम लोक कला के दर्शन सहित तत्कालीन मानव की आन्तरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति सहज प्राप्त होती है।

कालीबंगा और आहड़ की खुदाई से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों पर किया गया अलंकरण भी प्राचीनतम मानव की लोक कला का परिचय प्रदान करता है। ज्यामितिक आकारों में चौकोर, गोल, जालीदाल, घुमावदार, त्रिकोण तथा समानान्तर रेखाओं के अतिरिक्त काली व सफेद रेखाओं से फूल-पत्ती, पक्षी, खजूर, चौपड़ आदि का चित्रण बर्तनों पर पाया जाता है। उत्खनित-सभ्यता के पश्चात् मिट्टी पर किए जाने वाले लोक अलंकरण कुम्भकारों की कला में निरंतर प्राप्त होते रहते हैं किन्तु चित्रकला का चिन्ह ग्याहरवी शदी के पूर्व नहीं हुआ है।

सर्वप्रथम वि.सं. १११७/१०८० ई. के दो सचित्र ग्रंथ जैसलमेर के जैन भण्डार से प्राप्त होते हैं। औघनिर्युक्ति और दसवैकालिक सूत्रचूर्णी नामक यह हस्तलिखित ग्रन्थ जैन दर्शन से सम्बन्धित है। इसी प्रकार ताड़ एवं भोज पत्र के ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिए बनाये गए लकड़ी के पुस्तक आवरण पर की गई चित्रकारी भी हमें तत्कालीन काल के दृष्टान्त प्रदान करती है।

बारहवी शताब्दी तक निर्मित ऐसी कई चित्र पट्टिकाएं हमें राजस्थान के जैन भण्डारों में उपलब्ध हैं। इन पर जैन साधुओं, वनस्पति, पशु-पक्षी, आदि चित्रित हैं। अजमेर, पाली तथा आबू ऐसे चित्रकारों के मुख्य केन्द्र थे। तत्पशात् आहड़ एवं चित्तौड़ में भी इस प्रकार के सचित्र ग्रंथ बनने आरम्भ हुए। १२६०-१३१७ ई. में लिखा गया ""श्रावक प्रतिक्रमण सूत्रचूर्णि'' नामक ग्रन्थ मेवाड़ शैली (आहड़) का प्रथम उपलब्ध चिन्ह है, जिसके द्वारा राजस्थानी कला के विकास का अध्ययन कर सकते हैं।

ग्याहरवी से पन्द्रहवी शताब्दी तक के उपलब्ध सचित्र ग्रंथों में निशिथचूर्णि, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, नेमिनाथ चरित्र, कला सरित्सागर, कल्पसूत्र (१४८३/१४२६ ई.) कालक कथा, सुपासनाचरियम् (१४८५-१४२८ ई.) रसिकाष्टक (१४३५/१४९२ ई.) तथा गीत गोविन्द आदि हैं। १५वीं शदी तक मेवाड़ शैली की विशेषता में सवाचश्म्, गरुड़ नासिका, परवल की खड़ी फांक से नेत्र, घुमावदार व लम्बी उंगलियां, गुड्डिकार जनसमुदाय, चेहरों पर जकड़न, अलंकरण बाहुल्य, लाल-पीले रंग का अधिक प्रयोग कहे जा सकते हैं।

मेवाड़ के अनुरुप मारवाड़ में भी चित्रकला की परम्परा प्राचीन काल से पनपती रही थी। किंतु महाराणा मोकल से राणा सांगा (१४२१-१५२८ ई.) तक मेवाड़-मारवाड़ कला के राजनीतिक प्रभाव के फलस्वरुप साम्य दिखलाई होता है। राव मालदेव (१५३१-१५६२ ई.) ने पुन: मारवाड़ शैली को प्रश्य प्रदान कर चित्रकारों को इस ओर प्रेरित किया। इस शैली का उदाहरण १५९१ ई. में चित्रित ग्रन्थ उत्तराध्ययन सूत्र है। मारवाड़ शैली के भित्तिचित्रों मे जोधपुर के चोखेला महल को छतों के अन्दर बने चित्र दृष्टव्य हैं।

राजस्थान में मुगल प्रभाव के परिणाम स्वरुप सत्रहवीं शती से मुगल शैली और राजस्थान की परम्परागत राजपूत शैली के समन्वय ने कई प्रांतीय शेलियों को जन्म दिया, इनमें मेवाड़ और मारवाड़ के अतिरिक्त बूंदी, कोटा, जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, किशनगढ़ और नाथद्वारा शैली मुख्य है।

मुगल प्रभाव के फलत: चित्रों के विषय अन्त:पुर की रंगरेलियां, स्रियों के स्नान, होली के खेल, शिकार, बाग-बगीचे, घुड़सवारी, हाथी की सवारी आदि रहे। किन्तु इतिहास के पूरक स्रोत की दृष्चि से इनमें चित्रित समाज का अंकन एवं घटनाओं का चित्रण हमें सत्रहवीं से अठारहवी शताब्दी के अवलोकन की विस्तृत सामग्री प्रदान करता है। उदाहरणत: मारवाड़ शैली में उपलब्ध ""पंचतंत्र'' तथा ""शुकनासिक चरित्र'' में कुम्हार, धोबी, नाई, मजदूर, चिड़ीमार, लकड़हारा, भिश्ती, सुनार, सौदागर, पनिहारी, ग्वाला, माली, किसान आदि से सम्बन्धित जीवन-वृत का चित्रण मिलता है। किशनगढ़ शैली में राधा कृष्ण की प्रेमाभिव्यक्ति के चित्रण मिलते हैं। इस क्रम में बनीठनी का एकल चित्र प्रसिद्ध है। किशनगढ़ शैली में कद व चेहरा लम्बा नाक नुकीली बनाई जाती रही वही विस्तृत चित्रों में दरबारी जीवन की झांकियों का समावेश भी दिखलाई देता है।

मुगल शैली का अधिकतम प्रभाव हमें जयपुर तथा अलवर के चित्रों में मिलता है। बारामासा, राग माला, भागवत आदि के चित्र इसके उदाहरण हैं। १६७१ ई. से मेवाड़ में पुष्टि मार्ग से प्रभावित श्रीनाथ जी के धर्म स्थल नाथद्वारा की कलम का अलग महत्व है। यद्यपि यहां के चित्रों का विषय कृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित रहा है फिर भी जन-जीवन की अभिक्रियाओं का चित्रण भी हमें इनमें सहज दिख जाता है। १९वीं शताब्दी में ब्रिटिश प्रभाव के फलत: राजस्थान में पोट्रेट भी बनने शुरु हुए। यह पोट्रेट तत्कालीन रहन-सहन को अभिव्यक्त करने में इतिहास के अच्छे साधन हैं।

चित्रकला के अन्तर्गत भित्ति चित्रों का आधिक्य हमें अठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से दिखलाई देता है, किन्तु इसके पूर्व भी मन्दिरों और राज प्रासादों में ऐसे चित्रांकन की परम्परा विद्यमान थी। चित्तौड़ के प्राचीन महलों में ऐसे भित्ति चित्र उपलब्ध हैं जो सौलहवीं सदी में बनाए गए थे।

सत्रहवीं शताब्दी के चित्रणों में मोजमाबाद (जयपुर), उदयपुर के महलों तथा अम्बामाता के मंदिर, नाडोल के जैन मंदिन, आमेर (जयपुर) के निकट मावदूमशाह की कब्र के मुख्य गुम्बद के चित्र, जूनागढ़ (बीकानेर), मारोठ के मान मन्दिर गिने जा सकते हैं। अठाहरवीं शताब्दी के चित्रणों में कृष्ण विलास (उदयपुर) आमेर महल की भोजनशाला, गलता के महल, पुण्डरीक जी की हवेली (जयपुर) सूरजमल की छतरी (भरतपुर), झालिम सिंह की हवेली (कोटा) और मोती महल (नाथद्वारा) के भित्ति चित्र मुख्य हैं। यह चित्र आलागीला पद्धति या टेम्परा से बनाए गए थे। शेखावटी, जैसलमेर एवं बीकानेर की हवेलियों में इस प्रकार के भित्ति चित्र अध्ययनार्थ अभी भी देखे जा सकते हैं।

कपड़ो पर की जाने वाली कला में छपाई की चित्रकारी भी कला के इतिहास सहित इतिहास के अन्य अंगों पर प्रकाश डालने में समर्थ हो सकती है। यद्यपि वस्र रंगाई, छपाई, तथा कढ़ाई चित्रकला से प्रत्यक्ष सम्बन्धित नहीं हैं, किन्तु काल विशेष में अपनाई जाने वाली इस तकनीक, विद्या का अध्ययन कलागत तकनीकी इतिहास की उपादेय सामग्री बन सकती है। चांदी और सोने की जरी का काम किए वस्र शामियाने, हाथी, घोड़े तथा बैल की झूले आदि इस अध्ययन के साधन हैं।

धातु एवं काष्ठ कला

इसके अन्तर्गत तोप, बन्दूक, तलवार, म्यान, छुरी, कटारी, आदि अस्र-शस्र भी इतिहास के स्रोत हैं। इनकी बनावट इन पर की गई खुदाई की कला के साथ-साथ इन पर प्राप्त सन् एवं अभिलेख हमें राजनीतिक सूचनाएं प्रदान करते हैं। ऐसी ही तोप का उदाहरण हमें जोधपुर दुर्ग में देखने को मिला जबकि राजस्थान के संग्रहालयों में अभिलेख वाली कई तलवारें प्रदर्शनार्थ भी रखी हुई हैं। पालकी, काठियां, बैलगाड़ी, रथ, लकड़ी की टेबुल, कुर्सियां, कलमदान, सन्दूक आदि भी मनुष्य की अभिवृत्तियों का दिग्दर्शन कराने के साथ तत्कालीन कलाकारों के श्रम और दशाओं का ब्यौरा प्रस्तुत करने में हमारे लिए महत्वपूर्ण स्रोत सामग्री है।

लोककला

अन्तत: लोककला के अन्तर्गत बाद्य यंत्र, लोक संगीत और नाट्य का हवाला देना भी आवश्यक है। यह सभी सांस्कृतिक इतिहास की अमूल्य धरोहरें हैं जो इतिहास का अमूल्य अंग हैं। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक राजस्थान में लोगों का मनोरंजन का साधन लोक नाट्य व नृत्य रहे थे। रास-लीला जैसे नाट्यों के अतिरिक्त प्रदेश में ख्याल, रम्मत, रासधारी, नृत्य, भवाई, ढाला-मारु, तुर्रा-कलंगी या माच तथा आदिवासी गवरी या गौरी नृत्य नाट्य, घूमर, अग्नि नृत्य, कोटा का चकरी नृत्य, डीडवाणा पोकरण के तेराताली नृत्य, मारवाड़ की कच्ची घोड़ी का नृत्य, पाबूजी की फड़ तथा कठपुतली प्रदर्शन के नाम उल्लेखनीय हैं। पाबूजी की फड़ चित्रांकित पर्दे के सहारे प्रदर्शनात्मक विधि द्वारा गाया जाने वाला गेय-नाट्य है। लोक बादणें में नगाड़ा ढ़ोल-ढ़ोलक, मादल, रावण हत्था, पूंगी, बसली, सारंगी, तदूरा, तासा, थाली, झाँझ पत्तर तथा खड़ताल आदि हैं।

राजस्थानी रहन - सहन एवं मनोरंजन

राहुल तनेगारिया
जहाँ एक ओर किसी भी देश के निवासियों का रहन - सहन तत्क्षेत्रिय जलवायु तथा परम्परा से प्रभावित होता है, वहीं दूसरी ओर विभिन्न वर्गों में भी रहन - सहन, खान - पान, वेश -भूषा में येन - केन - प्रकारेण विवधता पाई जाती है। व्यवसाय एवं काम - काज की व्यस्तता से भी वसन , भोजन आदि में असमानता आती है। अभिजात्य वर्ग अपनी वेश - भूषा तथा खान - पान के विषय में सतर्क रहता है, जबकि जन - साधारण इन पर विशेष धयान नहीं देता। उच्च वर्ग में अच्छा पहनावा और चटक - मटक के आभूषण प्रतिष्ठा - सूचक माने जाते हैं, इनमें अवसर के अनिरुप परिवर्तन तथा परिवर्धन अपेक्षित रहता है। समाज का जन मानस विशेषत: अपनी वेश - भूषा तथा खान - पान में एकरुपता रखता है। ऐसे थोड़े ही अवसर आते हैं जब हम उसके रहन - सहन में न्यूनाधिक अन्तर देखते हैं। अन्तत: जीवनक्रम में एक वर्ग से दूसरे वर्ग में परम्परा बन जाती है जो हमारी संस्कृति का एक अनूठा पक्ष हैं।


भोजन
प्राचीनकाल में राजस्थानी भोजन प्राकृतिक वस्तुओं पर आधारित थे, तब लोग आग के प्रयोग से अनभिज्ञ थे। नित अपने अनुभवों के आधार पर कन्द, मूल, फल, माँस तथा वन में उपजने वाली अन्य वस्तुएँ, जो शरीर के लिए अनुकूल पड़ती थीं; खाते थे। आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व भोज्य पदार्थों में यव, गेहूँ, चावल, माँस, दूध आदि प्रचलित हुए जिन्हें आमिष और निरामिष भोजन करने वाले प्रयोग में लाते थे। पशुओं के माँस का प्रयोग भी खूब होता था, जिसकी प्रमाणिकता प्राचीन खण्डहरों से प्राप्त प्रस्तर देते हैं। समय के प्रवाह के साथ - साथ आहारिक एवँ माँसादि पदार्थों के बनाने की विधियों में विविधता आती गयी। उत्पादन में भी अनेक प्रयोग किये गये जिससे धान्य, दालें, पेय पदार्थ आदि में वृद्धि होती रही। कालीबंगा, आहड़, गिलूँड़, बैराठ, रंगमहल, साँभर आदि स्थलों से प्राप्त भाण्डों की किस्मों के अनेक स्वरुप भोजन के पदार्थों तथा उसकी विशेष विधियों पर प्रकाश ड़ालते हैं।
शिलालेखों तथा साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त प्रमाणों के अनुसार भोजन के सम्बन्ध में लगभग १०वीं शताब्दी तक राजस्थान का निवासी सादा तथा मर्यादित था। साधारण वर्ग तथा उच्च वर्ग के खाद्य तथा पेय पदार्थों के स्तर में बहुत बड़ा अन्तर नहीं था। रोटी, दाल, राब, तेल, दही, दूध, घी, लापसी, मट्ठा, घाट, गुड़, घूघरी, खिचड़ी, आदि सभी की भोज्य सामग्री थी। माँसाहार भी प्रचलित था, परन्तु ज्यों - ज्यों अन्नोत्पादन में वृद्धि होती गयी, माँस का प्रयोग घटता गया। उच्च वर्ग तथा वन में रहने वालों के अलावा कृषिजीवी तथा नगर निवासियों में माँस भोजन का उतना प्रचलन नहीं था। ब्राह्मणों और जैनों में माँस का प्रयोग निषिद्ध था। इन्हें भोजन की शुद्धता और निर्मलता पर अधिक ध्यान देना होता था। उत्सवों तथा पर्वों पर अनेक मिष्ठान्नों का प्रयोग होता था। हेमचन्द्र ने लिखा है जिनमें मोदक, पूये, हलुवा, खीर, तिलकुट आदि मुख्य हैं। पूड़ी, पापड़, दहीबड़े का जिक्र मानसोल्लास में मिलता है जिससे खाद्य - पदार्थों में रस और रुचि का संवर्धन होता था। इन लेखकों के अनुसार व्यंजनों के भी अनेक प्रकार बताये हैं जिन्हें तेल, घी और लोंग एवं अनेक मसालों से मिक्षित कर स्वादिष्ट बनाया जाता था। उच्च वर्ग तथा मध्यम वर्ग के लोगों में उनका अधिकाधिक उपयोग होता था।
मध्ययुग में भी खान - पान की वही प्राचीन परम्परा राजस्थान में प्रचलित थी और विशेष रुप से साधारण स्तर के लोगों में राब, रोटी, दाल, छाछ आदि का ही प्रचलन होता था। परन्तु उच्च स्तर के समाज में, जैसा कि अमरसार और राजविनोद के लेखकों ने लिखा है, गेहूँ, चना और दालों से अनेक खाद्य वस्तुएँ बनती थीं जिनमें हलुवा, फैनी, घेवर खाजा तथा लड्डू प्रमुख थे। मोदक के भी अनेक प्रकार थे जो दूध, मावा, आदि से बनाते थे और उनका नाम भी उनके अनुकूल होते थे। जैसे दही से बनने वाले दधि - मोदक, केसर के प्रयोग से बनने वाले केसर - मोदक, बीजों से बनने वाले बीज - मोदक आदि। सूरज प्रकाश के लेखक ने अचारों का उल्लेख किया है जो फलों व सब्जियों को कस कर बनाये जाते थे। चावल को भी दाल, दूध, घी व शक्कर के साथ खाया जाता था। इस प्रकार गेहूँ व चावल से कई प्रकार के मिष्ठान्न बनते थे जो विवाहोत्सव पर प्रचलित थे। पद्मिनी चौपाई में उल्लेखित है कि राजस्थान में भोजन के अन्त में मट्ठे का प्रयोग प्राय: होता था जो आज भी प्रचलित है।
मध्ययुग में राजपूत समाज अग्रणी था, जिसमें आखेट एक मनोरंजन का एक साधन बन चुका था। इससे प्राप्त पशुओं के माँस को एक शौर्य द्योतक प्रतीक माना जाता था जिसे बड़े चाव से खाया जाता था। आखेट वर्णन तथा अभय विलास जैसे काव्य ग्रन्थों में सूअर, शेर, खरगोश और हिरणों के शिकार का बड़ा रोचक वर्णन मिलता है तथा ऐसे अवसरों में माँस को अनेक प्रकार से तैयार कर दावतों के आयोजनों का उल्लेख इन लेखकों ने किया है जिनमें कबाब, पुलाव, कोरमा आदि प्रमुख हैं। प्याज, अदरख, नींबू, लहसुन आदि प्रयुक्त मसाले माँसाहारियों के चाव की चीज होती थी जिन्हें साधारण स्तर के माँसभोजी भी काम में लाते थे। अकबरी जलेबी, खुरासानी खिचड़ी, बाबर बड़ी, पकोड़ी और मूँगोड़ी का प्रचलन मुगली प्रभाव से राजस्थान में खूब पनपा जिनका प्रयोग माँसाहारी और शाकाहारी बड़े चाव से करते थे। भोजन के सम्बन्ध में समन्वय की प्रकिया राजस्थान में खूब देखी जाती है।
राजस्थानी समाज में भोजन की विधि में अत्यन्त पवित्रता, शुद्धता और संयम का बड़ा महत्व रहा है। भोजन के पूर्व स्नान करना अथवा हाथ, मुँह व पैर धोना आवश्यक था। ब्राह्मण तो भोजन के पूर्व स्नान कर चौके में भोजन करते थे। अपने हाथ से पकाया हुआ भोजन विशेष शुद्ध माना जाता था। समृद्ध परिवारों में चाँदी और सोने से मढ़े चौकटे भोजन परोसने के लिए रखे जाते थे जिन पर चाँदी की थाली व कटोरे होते थे। साधारण लोग पत्तल, दोने व पीतल व काँसे के थालों का प्रयोग करते थे। मिट्टी व काठ के बर्तनों का प्रयोग भोजन में एक बार ही माना गया है, परन्तु ग्रामीण भोजन बनाने में मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग आज भी खूब करते हैं जो कि यहाँ के प्राचीन परम्परा के अनुरुप है।
मनुची के अनुसार, भोजन के उपरान्त राजस्थान में समृद्ध लोग पान चबाते हैं जिनमें खैर, चूना, सुपारी के अतिरिक्त सुगंधित द्रव्य भी मिलाते हैं। आगे उल्लेख मिलता है कि पान को उपहार के रुप में देना सम्मानसूचक है। देशीनाममाला में कहा गया है कि ताँबूल तैयार करना और उनका वितरण करना बहुधा दासियाँ करती थीं। राजा - महाराजाओं तथा रानियों के दरबारों में होली, दीपावली तथा अन्य अवसरों पर पान के बीड़े वितरित होते थे और उनके आगंतुकों को सम्मानित किया जाता था। प्राचीन परम्परा के अनुसार पान आज भी इतना व्यापक है कि इसका प्रयोग साधारण से साधारण व्यक्ति भी करता हैं।



परिधान
भोजन की ही भाँति परिधान भी जीवन - क्रम का एक अति महत्वपूर्ण अंग है। विभिन्न क्षेत्रों के निवासियों की वेश - भूषा तत्क्षेत्रीय जलवायु और उपलब्ध पदार्थों से सम्बन्धित होती है। वह संस्कृति का भी द्योतक है, क्योंकि उसमें एकरुपता और मौलिकता के ऐसे तत्वों का समावेश था जो कि विदेशी सम्पर्क या आदान - प्रदान की प्रक्रिया की संभावना बने रहने पर भी उसके मूल तत्व नष्ट नहीं होते। या यूँ कहें कि उनके सुदृढ़ प्रारुप ने बाह्य प्रभावों को अपने रंग में सराबोर कर दिया। राजस्थान की वेश - भूषा का सांस्कृतिक पक्ष इतना प्रबल है कि सदियों के गु जाने पर और विदेशी प्रभाव होते रहने पर भी यहाँ की वेश - भूषा अपनी विशेषताओं को स्थिर रखने में सफल रही है।
पुरुष परिधान
कालीबंगा और आहड़ सभ्यता के युग से ही राजस्थान में सूती वस्रों का प्रयोग मिलता है। रुई कातने के चक्र और तकली, जो उत्खनन से प्राप्त हुए हैं; इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि उस युग के लोग रुई के वस्रों का प्रयोग करते थे। बैराठ व रंगमहल में भी इसके प्रमाण मिलते हैं जिनसे स्पष्ट है कि साधारण लोग अधोवस्र (धोती) तथा उत्तरीय वस्र, जो कंधे के ऊपर से होकर दाहिने हाथ के नीचे से जाता था, प्रयुक्त करते थे। यहाँ के खिलौनों को देखने से पता चलता है कि छोटे बच्चे प्राय: नग्न रहते थे। जंगली जातियाँ बहुत कम वस्रों का प्रयोग करती थीं। वे ठंड से बचने के लिए पशुओं के चर्म का प्रयोग करते थे। इसी का उपयोग साधुओं के लिए भी होता था। इन वस्रों के उपयोग की यह सारी परिपाटी आज भी राजस्थान के प्रत्येक गाँव में देखी जा सकती है जहाँ बहुधा धोती व ऊपर ओढ़ने के "पछेवड़े" के सिवाय अन्य वस्रों का प्रयोग कम किया जाता है। सर्दी में अंगरखी का पहनना भी प्राचीन परम्परा के अनुकूल है जिसमें कपड़े के बटन व आगे से बंद करने की "कसें" होती हैं जो बंधन का सीधा - सादा ढ़ंग है।
इस युग में आगे बढ़ने पर मंदिरों की वेटिकाएँ मिलती हैं जो गुप्तकाल से लेकर १५ वीं सदी तक की हैं, पुरुषों की वेशभूषा पर प्रकाश ड़ालती हैं। गुप्तोत्तर काल की कल्याणपुर की मूर्तियाँ तथा चित्तौड़ के कीर्तीस्तम्भ की मूर्तियाँ वेश - भूषा में अनेक परिवर्तन की कहानी प्रस्तुत करती हैं। पुरुषों में छपे हुए तथा काम वाले वस्रों को पहनने का चाव था। सिर पर गोलाकार मोटी पगड़ी पल्लों को लटका कर पहनी जाती थी। धोती घुटने तक और अंगरखी जाँधों तक होती थी। मूर्तियों में ऊनी वस्रों की मोटाई से एवं बारीक कपड़ो को तथा रेशमी वस्रों को बारीकि से बतलाया गया है। विवध व्यवसाय करने वालों के पहनावों में भेद भी था, जैसे शिकारी केवल धोती पहने हुए हैं तो किसान व श्रमिक केवल लंगोटी के ढ़ंग की ऊँची बाँधवाली धोती और चादर काम में लाते थे। व्यापारियों में धोती, लंबा अंगरखा, पहनने का रिवाज था। सैनिक जाँघिया या छोटी धोती, छोटी पगड़ी और कमरबन्द का प्रयोग करते थे। मल्ल केवल कच्छा पहनते थे तो सन्यासी उत्तरीय और कौपीन।
समकालीन देवताओं की मूर्तियों से संभ्रान्त परिवार एवं राजा - महाराजाओं के पहनावे को जाना जा सकता है। दिलवाड़ा के मंदिर अथवा सास - बहू के मंदिर एवं कीर्तीस्तम्भ की देवताओं की मूर्तियों में कामदार धोती और दोनों किनारों से झूलता हुआ बारीक दुपट्टे का अंकन है जो राजपरिवार के परिधान के ढ़ंग का द्योतक है। युद्ध में जाने वाले उच्च वर्ग के लोग शरीर को लंबी अंगरक्षी से सुशोभित करते थे और सिर पर चमकीली मोटी और मुकुट वाली पगड़ी पहनते थे। राजस्थान में चित्रित कई कल्पसूत्र वहाँ के साधारण व्यक्ति से लेकर राजा - महाराजाओं के परिधानों को इंगित करते हैं। इनमें राजाओं के मुकुट और पल्ले वाली पगड़ियाँ, दुपट्टे, कसीदा की गई धोतियाँ और मोटे अंगरखे बड़े रोचक प्रतीत होते हैं।
इन परिधानों में विविधता एवं परिवर्तन मुगलों के सम्पर्क से आया, विशेष रुप से उच्च वर्ग में। कुछ साहित्य ग्रन्थों, परवानों तथा चित्रित ग्रन्थों से इस बात का अच्छा परिज्ञान मिलता है। पगड़ियों में कई शैलियो की पगड़ियाँ देखने को मिलती हैं जिनमें अटपटी, अमरशाही, उदेहशाही, खंजरशाही, शाहजहाँशाही मुख्य हैं। विविध पेशे के लोगों में पगड़ी के पेंच और आकार में परिवर्तन आता जो प्रत्येत व्यक्ति की जाति का बोधक होता था। सुनार आँटे वाली पगड़ी पहनते थे तो बनजारे मोटी पट्टेदार पगड़ी काम में लाते थे। ॠतु के अनुकूल रंगीन पगड़ियाँ पहनने का रिवाज था। मोठड़े की पगड़ी विवाहोत्सव पर पहनी जाती थी तो लहरिया श्रावण में चाव से काम में लाया जाता था। दशहरे के अवसर पर मदील बाँधी जाती थी। फूल - पत्ती की छपाई वाली पगड़ी होली पर काम में लाते थे। पगड़ी को चमकीला बनाने के लिए तुर्रे, सरपेच, बालाबन्दी , धुगधुगी, गोसपेच, पछेवड़ी, लटकन, फतेपेच आदि का प्रयोग होता था। ये पगड़ियाँ प्राय: तंजेब, डोरिया और मलमल की होती थीं। चीरा और फेंटा भी उच्च वर्ग के लोग बाँधते थे। वस्रों में पगड़ी का महत्वपूर्ण स्थान था। अपने गौरव की रक्षा के लिए आज भी राजस्थान में यह कहावत प्रचलित है कि "पगडी की लाज रखना" इसी तरह पगड़ी को उतार कर फेंक देना यहाँ अपमान का सूचक माना जाता है। अत: आज भी प्राचीन संस्कृति के वाहक नंगे सिर घर के बाहर कभी नहीं निकलते। इसी तरह पगड़ी को ढ़ँग से बाँधकर बाहर निकलना शिष्टता के अन्तर्गत आता है। राजस्थान में इसका प्रयोग धूप - ताप से सिर की रक्षा के साथ - साथ व्यक्ति की सामाजिक स्थिति और धार्मिक भावना को व्यक्त करने के लिए भी किया जाता है। राजस्थानी नरेशों और मुगलों (शासकों) के बीच होने वाले आदान - प्रदान में पगड़ी का मुख्य स्थान था। आज भी राजस्थान में पगड़ी द्वारा विवाहादि में सम्मान देने की व्यवस्था है।
पगड़ी की भाँति "अंगरक्षी" जो साधारण लोग भी पहनते थे; में समयानुकूल परिवर्तन आया और उसे विविध नामों से पुकारा जाने लगा। यह परिवर्तन भी मुगलों के दरबार से आदान - प्रदान का ही परिणाम था। यहाँ के अनेक राजा, महाराजा, राजकुमार, सैनिक अधिकारी और साहूकार मुगल दरबार और राज्य में जाते थे या इनकी छावनियों में रहते थे, वे मुगल परिधानों का प्रयोग करने लगे। इस अभिजात वर्ग की वेश - भूषा को कुछ अंशों में साधारण स्तर के व्यक्तियों ने भी अपना लिया, क्योंकि यह प्रतिष्ठासूचक मानी जाने लगी। "अंगरक्षी" को विविध ढ़ंग से तथा आकार से बनाया जाने लगा जिन्हें तनसुख, दुतई, गाबा, गदर, मिरजाई, डोढी, कानो, डगला आदि कहते थे। सर्दी के मौसम में इनमें रुई भी डाली जाती थी। इनको चमकीला बनाने के लिए इन पर गोटा - किनारी व कसीदे तथा छपाई का भी प्रयोग होता था। अनेक प्रकार के रंगीन कपड़ों से इन्हें बनाया जाता था। ये कुछ घुटने तक और कुछ घुटने के नीचे तक घेरदार होते थे। कुछ वस्र चुस्त और कुछ ढ़ीले सीये जाते थे। इन वस्रों पर गोट लगाकर अलंकृत करने की परम्परा थी। जाली के वस्र गर्मियों में पहनते थे। मलमल की पोशाक शरीर की झलक दिखाने में आकर्षक लगती थी जिसे सम्पन्न व्यक्ति पहनते थे। वक्ष - स्थल के कुछ भाग को खुला रखा जाता था जो शिष्टाचार के विरुद्ध नहीं समझा जाता था। रंग - बिरंगे फूँदनों से इन परिधानों को बाँधना अच्छा समझा जाता था। रुमाल भी रंग - बिरंगे तथा कसीदे या छपाई वाले होते थे जिन्हें गले में बाँधा जाता था। कटिबन्ध भी अनेक प्रकार की लम्बाई - चौड़ाई के होते थे जो लगभग २ फूट से लेकर १० हाथ लम्बे एवं एक फूट चौड़े होते थे। इनमें कटार, बरछा, तथा कभी - कभी खाद्य सामग्री तथा रुपये - पैसे रख दिए जाते थे। कंधों पर शरद ॠतु में खेस, शाल, पामड़ी डाल दिये जाते थे। इन पर भी कलावस्तुु एवं कसीदे का काम रहता था। आभिजात्यवर्ग लंबी अंगरखी पर पाजामा पहनते थे और साधारण मुसलमान भी इसको दैनिक प्रयोग में लाते थे।
स्री परिधान
कालीबंगा या आहड़ आदि स्थानों की प्रागैतिहासिक युग की वेश - भूषा, जिसका प्रयोग स्रियाँ करती थीं; बड़ी साधारण थीं। यहाँ की खुदाई से प्राप्त मिट्टी के खिलौने, "जंतर" पर बनी मूर्तियों से प्रमाणित होता है कि उस काल में स्रियाँ केवल अधोभाग को ढ़ँकने के लिए छोटी साड़ी का प्रयोग करती थीं। आर्यों के राजस्थान प्रवेश ने इस प्रकार के पहनावे में कुछ परिवर्तन किया जो शुंग - कालीन तथा गुप्त तथा गुप्तोत्तर काल की मूर्तियों से स्पष्ट है। इनमें स्रियाँ साड़ी को कर्धनी से बाँधती थीं और ऊपर तक सिर को ढ्ँकती थीं। स्तनों को कपड़े से ढ़ँक कर उसे पीठ से बाँध लिया करती थीं। कई यक्षी मूर्तियाँ स्री वेश - भूषा को स्पष्ट करती हैं जिनमें ओढ़नी से सिर ढ़ँका मिलता है और साड़ी घुटने तक चली जाती है। आगे चलकर स्री परिधान में साड़ी को नीचे तक लटकाकर ऊपर कंधों तक ले जाया जाता था और स्तनों को छोटी कंचुकी से ढ़ँका जाता था। प्रारम्भिक मध्यकाल में स्रियाँ प्राय: लहँगे का प्रयोग करने लगीं जो राजस्थान में "घाघरा" के नाम से प्रसिद्ध है। स्रियों की वेश - भूषा में अलंकरण, छपाई और कसीदे का काम भी पूर्व मध्यकाल में प्रचलित हो गया था। इसका स्वरुप आज भी हम घुमक्कड़ जाति के स्रियों में और आदिवासियों की महिलाओं में देखते हैं। यही ढ़ंग हमें मथुरा से मिली मूर्तियों में देखने को मिलती है, इनमें स्रियों के परिधान में साड़ी, ओढनी, लहँगा तथा कंचुकी या चोली सम्मिलित हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से यह काल बड़े महत्व का है। साड़ी पहनने तथा सिर को ओढ़नी से ढ़ँकने तथा कपड़ों की सजावट में मूल स्थानीय तत्व हैं और बाह्य से कुछ विदेशी प्रभाव भी हैं। इन परिधानों के सांस्कृतिक नाम कुवलयमाला, धर्मबिन्दु, उपमितिभाव, प्रपंचक तथा कथाकोष में भी मिलते हैं।
विजय - स्तम्भ, कुंभश्याम मंदिर, जगदीश मंदिर तथा अनेक समकालीन साहित्य और इतिहास के ग्रन्थ मध्यकालीन स्रियों के वेश - भूषा के अध्ययन के अच्छे साधन हैं। तब स्रियों के परिधानों में डिजायन एवं भड़कीलापन अधिक था। विजयस्तम्भ की मूर्तियों को देखने से लगता है कि कंचुकी वैकल्पिक थी। कुछ मूर्तियाँ बिना कंचुकी के भी हैं और कुछ में वक्षस्थल ढ़ँकने के लिए एक लम्बे वस्र का प्रयोग हुआ है। ज्यों - ज्यों समय बीतते जाता है, कंचुकी तथा काँचली का स्वरुप बदल जाता है और वह लम्बी आस्तीनों वाली उदर के नीचे तक बढ़ जाती है जिसे कुर्ती कहते हैं। इनमें तंजेब, कसीदा, गोटा - किनारी, मगजी, गोट आदि का काम रहता है। कुछ चमकीले वस्र की और कुछ छपाई व रंगाई की कंचुकियाँ होती हैं। आज भी मारवाड़ में ऐसी लंबी कुर्तियों का खूब प्रचलन है। कल्पसूत्र के चित्रों में स्रियों को अधोवस्र और ओढ़नी से ढ़ँका बतलाया गया है। ओढ़नियों के पल्लु कई डिजायन के बनते थे जिनको दोनों ओर कंधे से लटकाया जाता था। कुछ सती स्तम्भों में उत्कीर्ण मूर्तियाँ एक लंबी साड़ी में देखी जाती हैं जो नीचे से ऊपर तक शरीर को ढ़ँकती हैं। ऐसी साड़ियाँ घूँघट निकालने में सुविधाजनक रहती हैं। आज भी राजस्थान मे घूँघट का रिवाज प्रचलित है। अधोवस्र प्रारम्भ में कमर से लपेटा जाता था जो परिवर्किद्धत होकर घाघरा तथा घेरदार कलियों का घाघरा बन गया। इसका छोटा रुप लहंगा कहलाता है। इन तीनों प्रकार के परिधानों पर सुनहरी व रुपहरी छपाई होती ती जिसे गोटा - किनारा तथा सलमे के काम से आकर्षक बनाया जाता था। राजस्थान में आज भी कपड़ों पर इस प्रकार का काम बड़ी कारीगरी से होता है। साड़ियों के विविध नाम प्रचलित थे जिन्हें चोल, निचोल, पट, दुकूल, अंसुक, वसन, चीर - पटोरी, चोरसो, ओड़नी, चूँदड़ी, धोरीवाला, साड़ी आदि कहते हैं।
कुछ चित्रित ग्रन्थों तथा मूर्तियों से साधारण स्तर की स्रियों की वेश - भूषा का पता चलता है। विजयस्तम्भ में शबरी केवल छोटी घघरी में उत्कीर्ण है, अन्य वस्रों का प्रयोग नहीं है। ऐसा ही रागिनी चित्र में भीलनी का अंकन है। आर्षरामायण में शूपंनखा को भद्दी व मोटी साड़ी और छोटे घाघरे में चित्रित किया गया है। कादम्बरी में पत्रवाहक स्री के केवल गागरा और कंचुकी में तथा विधवा को भूरी साड़ी और काला लहंगा एवं कत्थई चोसी में चित्रित किया गया है। भक्तमाल में मीरा को पीली भोती से चित्रित किया गया है। राजपूतों के हरम में कुछ दासियां लम्बा कुरता व सलवार व पाजामे का भी प्रयोग करती थीं जो मुगलों का ही अनुकरण था।
स्रियों के परिधानों के लिए प्रचलित कपड़ों में जामदानी, किमखाब, टसर, छींट मलमल, मखमल, पारचा, मसरु, चिक, इलायची, महमूदी चिक, मीर - ए - बादला, नौरंगशाही, बहादुरशाही, फरुखशाही छींट, बाफ्टा, मोमजामा, गंगाजली, आदि प्रमुख थे। उच्चवर्गीय स्रियाँ अपने चयन में इन कपड़ों को वरीयता देती थीं, परन्तु साधारण वर्ग की स्रियाँ लट्ठे व छींट के वस्रों से ही संतोष कर लेती थीं। ॠतु और अवसरानुकूल रंग - बिरंगे व चटकीले परिधानों के चाव स्रियों में अवश्य था जो अपनी - अपनी हैसियत के अनुसार बढिया और घटिया कि के कपड़े बनवाते थे। चूँदड़ी और लहरिया राजस्थान की प्रमुख साड़ी रही है जिसका प्रयोग हर स्तर की स्रियाँ आज भी करती हैं - गोया उच्चवर्ग में आधुनिक कपड़े अधिक प्रिय हो रहे हैं।
केश - विन्यास
जैसे अजन्ता, एलोरा एवं खजुराहो के चित्रों और मूर्तियों में केश - विन्यास के कई प्रकार मिलते हैं, उसी प्रकार राजस्थान के रंगमहल, देलवाड़ा, नागदा, जगत, चित्तौड़ एवं जगदीश मंदिर की नारी - मूर्तियों से तथा चित्रित ग्रन्थों में विवध केशविन्यास के अनेक रुप निरुपित किये जा सकते हैं। केशों को जूड़े व वेणियों द्वारा प्रसाधित किया जाता था। इनमें पुष्प, पत्तियों एवं मोतियों की लड़ी से सुसज्जित करना शोभनीय माना जाता था। केशों की अग्रभाग की पट्टियों को कड़ा रखने के लिए गोंद और "घासा" नामक लेप का प्रयोग होता था, जिससे उनमें एक चमक दिखाई देती थी। अभिजातवर्ग की स्रियों के केश विन्यास का काम सेविकाएँ करती थीं। अन्त: पुर में ऐसी स्रियों को विशेष रुप से रखा जाता था जो राज - परिवार की स्रियों के केश विन्यास का ध्यान रखती थीं। केशों को लम्बा बढ़ाना अच्छा समझा जाता था और उनमें कई प्रकार के सुगन्धित तेल ड़ालकर सुरभित किया जाता था। जहाँ प्रसाधन की विशेष प्रकार की सामग्री साधारण वर्ग की स्रियों के लिए उपलब्ध नहीं थी वहाँ सादा वेणी बनाना विवाहित स्रियों के लिए अनिवार्य था, क्योंकी इसमें धार्मिक भावना निहित रहती थी। राजस्थान में खुले केशों से बाहर निकलना स्रियों के लिए अशोभनीय माना जाता रहा है। नागदा की पार्वती की मूर्ति, कुंभश्याम मंदिर की नर्तिकाओं का दल तथा विजय स्तम्भ की अनेक देवी व स्रियों की मूर्तियों के प्रदर्शन बेजोड़ हैं। केश विन्यास की विवधता का मूलाधार तात्कालीन नागरिकों की सुरुचि और कला - विलास का परिणाम था।
स्री आभूषण
राजस्थान का प्राचीनकालीन मानव सौन्दर्य - प्रेमी रहा है। शरीर को सुन्दर और आकर्षक बनाने के लिए विशेष रुप से स्रियाँ अनेक प्रकार आभूषणों को प्रयोग करती थीं। कालीबंगा तथा आहड़ सभ्यता के युग की स्रियाँ मृणमय तथा चमकीले पत्थरों की मणियों के आभूषण पहनती थीं। कुछ शुंगकालीन मिट्टी के खिलौनों तथा फलकों से पता चलता है कि स्रियाँ हाथों में चूड़ियाँ व कड़े, पैरों में खड़वे और गले में लटकने वाले हार पहनती थीं। स्रियाँ सोने, चाँदी, मोती और रत्न के आभूषणों में रुचि रखती थीं। साधारण स्तर की स्रियाँ काँसे, पीतल, ताँबा, कौड़ी, सीप अथवा मूँगे के गहनों से ही सन्तोष कर लेती थीं। हाथी दाँत से बने गहनों का भी उपयोग होता था। हमारे युग में भी आदिवासी व घुमक्कड़ जाति की स्रियां इस प्रकार के आभूषण पहनती हैं। पाँव में तो पीतल की पिंजणियाँ एडी से लगाकर घुटने के नीचे तक आदिवासी क्षेत्र में देखी जाती हैं। समरादित्य कथा, कुवलयमाला आदि साहित्यिक ग्रन्थों में सिर पर बाँधे जाने वाले आभूषणों को चूड़ारत्न और गले और छाती पर लटकने वाले आभूषणों को दूसूरुल्लक, पत्रलता, मषीश्ना, कंठुका, आमुक्तावली आदि कहा गया है। फ्यूमश्रीचरय् में वर्णित है कि पद्मश्री को जब विवाह के लिए सजाया गया तो पाँवों में नूपुर, कानों में कुंडल और सिर पर मुकुट से सजाया गया था। प्रसिद्ध सरस्वती की मूर्ती जो दिल्ली म्यूजियम में तथा बीकानेर में हैं ; ऊपर वर्णित आभूषणों से अलंकृत है। इनके अतिरिक्त वह दो व चार लड़ी की हार, जिन्हें राजस्थान में हँसला कहते हैं तथा बाजूबंद, कर्णकुंडल, कर्धनी (कंदोरा) अंगूलयिका, मेखला, केयूर आदि विविध आभूषणों से सुशोभित है। इन आभूषणों का अंकन राजस्थान की पूर्व मध्यकालीन मूर्तिकला में खूब देखने को मिलता है।
मध्यकाल से २०वीं सदी तक आकर अलंकारों के विविध रुप विकसित हो गये। समकालीन साहित्य, मूर्ति और चित्रकला में स्रियों के आभूषणों का सुन्दर चित्रण हुआ है। ओसियाँ, नागदा, देलवाड़ा क ुंभलगढ़ आदि स्थानों की मूर्तियों में कुंडल, हार, बाजूबन्ध, कंकण, नुपूर, मुद्रिका के अनेक रुप तथा आकार निर्धारित हैं। विशलेषण करने पर एक - एक आभूषण की पच्चीसों डिजाइनें मिलेंगी। आर्षरामायण, सूरजप्रकाश, कल्पसूत्र आदि चित्रित ग्रन्थों में भी इनके विविध रुपों का प्रतिपादन हुआ है। ज्यों - ज्यों समय आगे बढ़ता है, इन आभूषणों के रुप और नाम भी स्थानीय विशेषता ले लेते हैं। सिर में बाँधे जानेवाले जेवर को बोर, शीशफूल ,रखड़ी और टिकड़ा नाम पुरालेखों में अंकित हैं। उन्हीं में गले तथा छाती के जेवरों में तुलसी, बजट्टी, हालरो, हाँसली, तिमणियाँ, पोत, चन्द्रहार, कंठमाला, हाँकर, चंपकली, हंसहार, सरी, कंठी, झालरों के तोल और मूल्यों का लेखा है। ये आभूषण सोने, चाँदी, मोती के बनते थे और अनेक रत्नजड़ित होते थे। कानों के आभूषणों में कर्णफूल, पीपलपत्रा, फूलझुमका, तथा अंगोट्या, झेला, लटकन आदि होते थे। हाथों में कड़ा, कंकण, गरी, चाँट, गजरा, चूड़ी तथा उंगलियों में बींटी, दामणा, हथपान, छड़ा, वींछिया तथा पैरों में कड़ा, लंगर पायल, पायजेब, नूपुर, घुँघरु झाँझर, नेवरी आदि पहने जाते थे। नाक को नथ, वारी, काँटा, चूनी, टोप आदि से सुसज्जित किया जाता था। कमर में कंदोरा और कर्धनी का प्रयोग होता था। जूड़े में बहुमूल्य रत्न या चाँदी - सोने की घूँघरियाँ लटकाई जाती थीं।
इन सभी आभूषणों को साधारण स्तर की स्रियाँ भी पहनती थीं, केवल अंतर था तो धातु का। इनकी विविधता शिल्प की दरबारी प्रभाव का परिणाम था। मुगल -सम्पर्क से आभूषणों में विलक्षणता का प्रवेश स्वाभाविक था। अलंकारों का बाहुल्य उस समय की कला की उत्कृष्ट स्थिती एवं उस समय के समाज की सौन्दर्य रुचि पर प्रकाश डालता है और आर्थिक वैभव का परिज्ञान उनके द्वारा होता है। आज भी राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में आभूषणों के प्रति प्रेम है जिसके कारण इनके शिल्पी सर्वत्र फैले हुए हैं। इसी वर्ग के शिल्पी रत्नों के जड़ने तथा बारीकी का काम करने में नगरों में पाये जाते हैं। एक प्रकार से राजस्थान की भौतिक संस्कृति को आभूषणों के निर्माण- क्रम और वैविद्धय द्वारा आँका जा सकता है।
आमोद - प्रमोद
जिस प्रकार भारतीय समाज में प्राचीनकाल से आमोद - प्रमोद का विशिष्ट स्थान रहा है, उसी प्रकार से राजस्थान में भी प्रत्येक युग में उसका महत्व देखा गया है। कालीबंगा, रंगमहल आदि के उत्खनन से पता चलता है, मिट्टी के खिलौनें जैसे चकरी, गाड़ी, गुड़िया गोलियाँ आदि बच्चों के खेलने के साधन थे और इसलिए इस युग में आखेट वैसे तो क्षुधापूर्ति से सम्बन्धित था, परन्तु कौतुकवश भी शिकार का आयोजन अवश्य मनोरंजन का साधन रहा होगा। रेड की खुदाई तथा रंगमहल के उत्खनन में हाथी, घोड़े, पक्षी, काठी वाले ऊँट, पहिये और खिलौने इस बात के प्रमाण हैं कि वे बच्चों के मनोरंजन के साधन थे। आगे चलकर मनोरंजन के सम्बन्ध में उपमितिभाव प्रपमचकथा, रत्नावली आदि ग्रन्थों में कई उत्सवों का उल्लेख है जो नाचना, गाना, झूलना आदि मनोरंजन के अन्तर्गत आते हैं। विविध आयोजनों में गीत - संगीत को प्रधानता दी जाती थी जिनमें स्री - पुरुष समान रुप से भाग लेते थे। मृगया के लिए भी इस युग में कई लोग सम्मिलित होते थे।
मध्यकाल तक आते - आते समाज में अनेक प्रकार की मनोविनोद सम्बन्धी क्रीडाओं का प्रचलन हो गया। उत्कीर्ण कला के तथा चित्रकला के आदर्शों से पता चलता है कि मल्लयुद्ध, मुक्केबाजी ,घुड़दौड़ आदि बड़े लोकप्रिय व्यायाम थे जिनको स्री - पुरुष बड़ी संख्या में एकत्रित होकर देखते थे। द्वन्द युद्ध और धनुष बाण चलाना सार्वजनिक रुप से मनोरंजन के रुप में देखा जाता था। कई खिलाड़ियों को राजकीय रुप में सेवा में रखा जाता था और जब उनकी कुश्ती या प्रदर्शन समाप्त हो जाता था तो उन्हें पारितोषक द्वारा सम्मानित करने की प्रथा थी। महाराणा अमरसिंह और राजसिंह को ऐसे आयोजनों में बड़ी रुचि थी। हाथियों की लड़ाई तथा सूअर, चीता, और शेरों की लड़ाई में राजा महाराजा बड़ी रुचि लेते थे और उसको देखने के लिए नागरिकों की भीड़ उमड़ पड़ती थीं। दशहरे पर भैंसे को वेधने की दौड़ लोगों को बड़ी रोचक लगती थी। नारद, वात्स्यायन, बाण और डंडी ने जिस पशु युद्धों तथा पक्षियों की लड़ाईयों का उल्लेख किया है, उनका राजस्थानी दरबार में मध्य युग में खूब प्रचलन था। कई युद्ध - प्रिय व्यक्ति शेर का शिकार उसके सामने आकर करते थे। बाघसिंह का स्मारक इसी बात का प्रमाण है। अन्यथा वन्य पशुओं का शिकार राजकीय क्रीडा थी जिसको राजपरिवार के व्यक्ति ही कर सकता थे। शिकारियों का डेरा कई दिनों तक लगा रहता था जब शेर घेरे से निकल जाता था। शिकार सम्पादन हो जाने पर बड़ी दावतें होती थीं और बड़ा उल्लास मनाया जाता था। इन राज्यों में शिकार की सम्पूर्ण व्यवस्था दरोगा - ए - शिकार या अमीरे - शिकार देखता था। कभी -कभी इसमें रानियाँ भी भाग लेती थीं और इनके मचान पर समुचित पर्दे का प्रबन्ध रहता था।
मुगलों के सम्पर्क में आकर कई क्रीडाओं का समावेश स्थानीय क्रीडाओं में हुआ। इनमें मौलिक रुप से मुगल दरबार से उद्धृत की गई। इनमें से पट्टेबाजी, कबूतरबाजी, मुंगेबाजी, बटेरबाजी, तीतरबाजी, मेढ़ायुद्ध आदि में निम्नवर्ग का समाज ज्यादा रुचि लेता था और उसी वर्ग के लोग उन पशु - पक्षियों को पालते थे व प्रशिक्षण देते थे। ये पशु और पक्षी कभी - कभी ऐसे लड़ते थे कि वे खून से लथपथ हो जाते थे। मेढे भी परस्पर सर के टकराव से ऐसे लड़ते थे कि उनके भिड़ने से बड़ा शोर होता था और कभी - कभी उनकी खोपड़ियाँ फट जाया करती थीं। इनको देखने के लिए सभी वर्ग और आयु के लोग इकट्ठा हो जाया करते थे। तैरना और झूलना भी सार्वजनिक मनोरंजन थे जिनमें भाग लेकर या देखकर बालक, वृद्ध, पुरुष और स्रियाँ आनन्द का अनुभव करते थे। मतंगों को दो सिरों से तेल में भिगोकर और जलाकर करतब जिखाये जाते थे जिसका आयोजन रात्रि को होता था। लट्टबाजी, पट्टेबाजी, तलवारबाजी भी उत्तेजक खेल होते थे जिनमें शहरी युवक भाग लेते थे और दर्शक बड़े उल्लास से देखकर उनका हौसला बढ़ाते थे। चोगन का खेल राजपूत सरदारों में अधिक प्रचलित था।
पतंगबाजी भी मध्यकाल से अति लोकप्रिय मनोरंजन का साधन रहा है। दिल्ली में सम्भवत: मुगल बादशाहों के समय से इसका आरम्भ हुआ। शाह आलम प्रथम से इसको लोकप्रियता प्राप्त हुई और पीछे लखनऊ के नवाबों ने तथा वहाँ के निवासियों ने इसमें बड़ी रुचि ली। राजस्थान में पहले प्राय: "आकाश दीपकों" को उड़ाने की प्रथा थी जो मनोरंजन का धार्मिक एवं सामाजिक पक्ष था। मुगल सम्पर्क से पतंग के उड़ाने में कई परिवर्तन आये और जयपुर इस शौक का गढ़ बन गया। अन्त: पुर में भी इसे उड़ाया जाता था जिसमें केवल महिलाएँ भाग लेती थीं। जयपुर में आज भी बालक से लेकर बूढ़े तक पतंग उड़ाते हैं। राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में भी इसका महत्व है। पतंग उड़ाने की धार्मिक परम्परा यह है कि जयपुर में इसे संक्रान्ति के पर्व पर और उदयपुर में निर्जला एकादशी पर उड़ाया जाता है। नवविवाहित पति - पत्नी पतंग का पूजन कर उड़ाते हैं और घर की प्रथम पतंग पूजनोपरान्त घर का मुखिया उड़ाता है। यह प्रथा जयपुर में व्यापक रुप में देखी गई है।
व्यवसायी लोग भी नगर - नगर और गांव - गाँव घूमकर प्रजागण का मनोरंजन करते हैं जिनमें सपेरे, मदारी, जादूगर, नट, भाण्ड आदि मुख्य हैं। ये कहीं चौक या चौराहों और गलियों में अपना तमाशा दिखाते हैं और इनके इर्द - गिर्द आसपास के बच्चे व स्रियाँ जमा हो जाते हैं और इनके खेल को बड़ी रुचि से देखते हैं। कौटिल्य ने तथा बाण ने ऐसे ही मनोरंजनों का वर्णन किया है जो राजस्थान में आज भी प्रचलित है। उनके रुप और सज्जा में अवश्य भेद है।
जोधपुर के भागवत पुराण के चित्रों में कृष्ण के माध्यम से कई लौकिक खेलों का चित्रण मिलता है। एक चित्र में कृष्ण और उनके साथी इधर - उधर छिपते हैं और एक ग्वाला उन्हें ढूँढ़ता है। दूसरे चित्र में एक ग्वाला आँखें मुँदवाता है और दूसरे छिपते हैं और फिर वह उन्हें ढूँढ़ता है। इसी तरह एक चित्र में एक ग्वाला घोड़ा बनता है और उस पर दूसरा बैठकर गेंद का ठप्पा लगाता है और दूसरे गेंद को झेलते हैं। इसी तरह एक में कई लड़के वृक्ष की डाली को फेंककर ढूँढ़ने के लिए नीचे छोड़ते हैं। ये खेल लौकिक भाषा में क्रमश: लुका - छिपी, आँख - मिचौनी, घोड़ा - दड़ी और डाल कुदावणी कहलाते हैं। मारदड़ी भी बड़ा रोचक खेल है जिसे बालक और स्रियाँ खेलती हैं। लट्टू, चकरी और गोली फेंकने के खेल बालकों में प्रचलित थे।
घर में या एक स्थान पर बैठकर खेले जाने वाले खेलों में शतरंज अभिजात वर्ग में अधिक लोकप्रिय था। पहले इसे यूरोप में धर्मयोद्धा द्वारा और बाद में मुस्लिम देशों में खेला जाने लगा। छावनियों में सिपाही इसे बड़े चाव से खेलते थे जब इनको विश्राम में या शत्रु को ताक में एक मुकाम पर कई दिनों पड़ा रहना पड़ता था। इसमें ऊँट, घोड़े हाथी व प्यादे तथा बादशाह व वजीर के मोहरों के माध्यम से विविध खंडों पर दो व्यक्तियों से' चाल 'चलकर खेला जाता है। यह खेल शाही अभिरुचि से सम्बन्धित होने से तथा विपक्षी को कूटनीतिक चालों से पराजित करने की भावना से खेलने के कारण विचारकों एवं राजनीति में रुचि लेने वाले खेलने लगे। राजस्थान में इसे वजीर, मुसाहिब, सैन्य संचालक विशेष रुप से खेलते थे।
चौपड़, चौसर आदि कपड़े के बने बिसात पर खेला जाता रहा है जिसे पति - पत्नी या कोई चार या दो व्यक्ति खेलते हैं। इसमें पासों से या कौड़ियों को फेंक कर गोटियों को पीटा जाता है और इसी से हार - जीत का निर्णय होता है। ताश, गंजीफा, चरभर, नार - छारी और ज्ञान - चोपड़ भी लोकप्रिय खेल हैं जिन्हें विश्राम में खेला जाता है। खिलाड़ी बारी - बारी से अपना पत्ता चलते हैं और ताश या गंजीफे में तुरप से निर्णय होता है। चरभर, नार - छारी और ज्ञान - चोपड़ कौड़ियों से या इमली के बीजों की बित्तुओं से अथवा विविध रंग के पत्थरों से खेला जाता है। ज्ञान - चौपड़ की विशिष्ट बिसात होती है और हार - जीत, पाप - पुण्य के कोष्ठकों पर चाल चलकर तय की जाती है।

ये खेल मुक्त: मनोरंजन के साधन हैं प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को आपस में मिलने - जुलने का अवसर मिलता है। खेल - कूद में जात - पाँत का भेद - भाव नहीं रहता जो समाज में सामञ्जस्य एवं सद्भाव उत्पन्न करने का अच्छा अवसर प्रदान करता है। ऊपर वर्णित कई खेल प्राचीनकाल से चले आये हैं जिनमें एक विशुद्ध परम्परा दिखाई पड़ती है। कई खेलों का सम्बन्ध धार्मिक पर्वों और उत्सवों के साथ इतना जुड़ा है कि समाज में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सतत् उनका सांस्कृतिक धरोहर के रुप में माना जाता है। कई मनोरंजन के साधन राष्ट्रीय स्तर के या सार्वजनिक होने से देश में राष्ट्रीयता को बल देते हैं। ये खेल - कूद के साधन अपने ढंग से जन -जीवन को एकसूत्र में बाँधकर सांस्कृतिक जीवन में रोचकता का संचार करते हैं। आमोद - प्रमोद की विविधता धार्मिक और सामाजिक विचारधारा में सम्नवय की भावना को पुष्ट बनाती है। राजस्थान में आज भी ऐसे खेल गाँवों में खेले जाते हैं - जैसे, गेंद फेंकना या मारना, झूलना, काठ की गुड़िया से खेलना आदि, जिनका वर्णन वेदों में, पुराणों और प्राचीन साहित्य के ग्रन्थों में मिलता है। पशु - युद्ध, मल्ल - युद्ध तथा मृग्या जैसे मनोरंजन के साधन राजस्थान में प्राचीनकाल से प्रचलित रहे हैं जिनके द्वारा एक युग से दूसरे युग में शौर्य और पुरुषार्थ को बढ़ावा मिला है। ये साधन समाज को कठिन परिश्रम के उपरान्त विश्राम भी देते हैं और व्यक्तियों को सर्वदा स्वस्थ और स्फूर्तिवान बनाये रखते हैं। राजस्थान सरकार इस दिशा में पूर्ण प्रयत्नशील है जिससे लौकिक मनोरंजन के साधन प्राणवान बने रहें।

प्रागैतिहासिक राजस्थान की विशेषताएँ

राहुल तनेगारिया

ऐतिहासिक स्रोत तथा भारतीय सभ्यता के विकास में राजस्थान का योगदान - कालीबंगा व आहड़ का सांस्कृतिक राजस्थान का योगदान - कालीबंगा वा आहड़ का सांस्कृतिक महत्व

मानव सभ्यता का इतिहास वस्तुत: मानव के विकास का इतिहास है। इस दिशा में जो महत्वपूर्ण खोज हुई हैं, उनके अनुसार ऐसा अनुमान किया जाता है कि लगभग अस्सी करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर जीवन के चिह्म प्रकट होने लगे थे। मनुष्य अपने प्रारम्भिक जीवन में पशुवत् था। इस पशुवत् जीवन से ऊपर उठने के लिए उसने हजारों वर्ष लिए। मनुष्य के हजारों वर्ष के इस विकास का लिपिबद्ध और क्रमागत प्रमाणिक इतिहास प्राप्त नहीं हैं। इसलिए इस युग के इतिहासकारों ने प्रागैतिहासिक युग की संज्ञा दी है।

प्रागैतिहासिक युग के मानव ने अपने जीवन-यापन व जीवन रक्षा हेतु जिन पदार्थों से बने हथियार व औज़ारों व अन्य उपरकरणों का प्रयोग किया था और विश्व व भारत के विभिन्न भागों में अवशेष के रुप में अथवा उत्खन्न के फलस्वरुप उपलब्ध हुए हैं। उनके आधार पर प्रागैतिहासिक काल को चार क्रमिक सोपानों में विभक्त किया जाता है :








(क) आदिम पाषाणकाल;
(ख) पूर्व पाषाणकाल;
(ग) उत्तर पाषाणकाल;
(घ) धातुकाल; धातुकाल पुन: तीन भागों में बाटें गये है :

(घ.१) ताम्र युग;

(घ.२) कांस्य युग;

(घ.३) लौह युग;

राजस्थान के प्रागैतिहासिक काल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित हैं -

प्रागैतिहासिक राजस्थान के ऐतिहासिक स्रोत एवं विशेषताएँ : 



राजस्थान में प्रस्तर युग के स्रोत एवं विशेषताएँ :
राजस्थान में प्रस्तर युगीन मानव के निवास का पता उन उपलब्ध प्रस्तर हथियारों व औज़ारों से लगता है जो वर्तमान में बांसवाड़ा, डूँगरपुर, उदयपुर, भीलवाड़ा, बूंदी, कोटा, झालावाड़, जयपुर आदि जिलों में 'बनाल' गम्भीरी, बेडच, बाधन तथा चम्बल नदियों की घाटियों व तटवर्ती स्थानों से उपलब्ध हुए हैं। ये हथियार व औज़ार जिनका प्रयोग प्रस्तर युगीन मानव करते थे वे कटुता या अत्यन्त भध्दे, भौण्डे व अनगढ़ थे। इस प्रकार के अवशेषों से प्राप्ति स्थलों में निम्नांकित उल्लेखनीय हैं :

(क)
गम्भीरी नदी के तट पर चितौड़गढ़ जिले में नगरी, खीट, ब्यावर, खेड़ा, बड़ी, अयनार, ऊणचा, देवजडी, हीसेजी सा खेड़ा, बूले खेड़ा आदि स्थान;
(ख)
चम्बल, और बामनीनदी के तट पर भैंसरड़िगड़ व नगधार स्थान;
(ग)
बनास नदी के तट पर भीलवड़ा जिलें में हमीरगढ़, स्वरुपगंज, मंडदिया, बीगोद, जहाजपुर, खुटियास। देवली, मंगरपि, दुरिया, गोगाखेड़ा, पुर, पटला, संद, कुगरिया, गिलूड आदि स्थान;
(घ)
लूणी नदी के तट पर जोधपुर में;
(च)
गुहिया और बाँडी नदी की घाटी में सिंगारी व पाली स्थान, मारवाड़ में पीचरु, भाँडेल, धनवासनी, सजिता, धनेरी, भेटान्दा, दुन्दास, गोलियो, पीपाड़, खीमसर, उम्मेद-नगर आदि स्थान;
(छ)
बनास नदी के तट पर तैंरु जिले में भुवाणा, हीरो, जगन्नाथपुरा, लियालपुरा, पच्चर, तरावट, गोगासला, भरनी, आदि स्थान;
(ज)
गागारोन (जिला झालाबाड़), गोविन्दगढ़ (अजमेर ज़िले में सागरमती नदी तट पर), कोकानी (कोटा ज़िले में परवन नदी तट पर), आदि अन्य स्थान।
 
विशेषताएँ - भारतीय पुरातत्व का सर्वेक्षण (१९५८-६०) के आधार पर सत्यप्रकाश व दशरथ शर्मा ने उपर्युक्त स्रोतों के आधार पर राजस्थान में प्रस्तरयुगीन मानव की सभ्यता पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि "प्रस्तर युगीन मानव का राजस्थान में आहार शिकार किए हुए बनैले जानवरों का मांस आदि प्रकृति द्वारा उपजाए क़ंद, मूल, फल आदि थे। इस काल का मनुष्य अपने मृतकों को जानवरों पक्षियों और मछलियों के लिए मैदान या पानी में फेंक दिया करता था।"
 राजस्थान में प्रागैतिहासिक प्रस्तर-धातु युग 
स्तोत्र
गोपीनाथ शर्मा ने राजस्थान में प्रस्तर धातु युग के प्रमुख स्रोत उखन्न से उपलब्ध दो केन्द्रों - कालीबंगा तथा आहड़ का उल्लेख करते हुए अपना मत व्यक्त किया है कि -"अब तक जो हमने राजस्थान के बारे में जानने का मार्ग ढूँढ़ा वह तमपूर्ण था। आगे चल कर मानव इन स्तरों से आगे बढ़ा और राजस्थानी सभ्यता की गोधूली की आभा स्पष्ट दिखाई देने लगी। ॠग्वेद काल से शायद सदियों पूर्व 'आहड़' (उदयपुर के निकट) तथा हृषद्वती और सरस्वती (गंगानगर के निकट) नदियों के काँठे (किनारे) जीवन लहरें मारता हुआ दिखाई देने लगा। इन काँठों पर मानव-संस्कृति सक्रिय थी और कुछ अंश में हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की सभ्यता के समकक्ष तथा समकालीन सी थी। आज से पाँच छ: हज़ार वर्ष पूर्व इन नदी घाटियों में बसकर मानव पशु पालने, भाण्डे बनाने, खिलौने तैयार करने, मकान-निर्माण करने आदि कलाओं को जान गया था। इस सुंदर अतीत को समझने के लिए कालीबंगा व आधारपुर (आहड़) में उपलब्ध सामग्री का अध्ययन करना होगा।" 
 


कालीबंगा का सांस्कृतिक महत्व व राजस्थान का मानव सभ्यता के विकास में योगदान :
सरस्वती तट पर कालीबंगा - राजस्थान के गंगानगर ज़िले में स्थित कालीबंगा स्थान पर उखन्न द्वारा (१९६१ ई. के मध्य किए गए) २६ फ़िट ऊँची पश्चिमी थेड़ी (टीले) से प्राप्त अवशेषों से विदित होता है कि लगभग ४५०० वर्ष पूर्व यहाँ सरस्वती नदी के किनारे हड़प्पा कालीन सभ्यता फल-फूल रही थी। कालीबंगा गंगानगर ज़िले में सूरतगढ़ के निकट स्थित है। यह स्थान प्राचीन काल की नदी सरस्वती (जो कालांतर में सूख कर लुप्त हो गई थी) के तट पर स्थित था। यह नदी अब घग्घर नदी के रुप में है। सतलज उत्तरी राजस्थान में समाहित होती थी। सूरतगढ़ के निकट नहर-भादरा क्षेत्र में सरस्वती व हृषद्वती का संगम स्थल था। स्वंय सिंधु नदी अपनी विशालता के कारण वर्षा ॠतु में समुद्र जैसा रुप धारण कर लेती थी जो उसके नामकरण से स्पष्ट है। हमारे देश भारत में "र्तृधर सभ्यता" का मूलत: उद्भव विकास एवं प्रसार "सप्तसिन्धव" प्रदेश में हुआ तथा सरस्वती उपत्यका का उसमें विशिष्ट योगदान है। सरस्वती उपत्यका (घाटी) सरस्वती एवं हृषद्वती के मध्य स्थित "ब्रह्मवर्त" का पवित्र प्रदेश था जो मनु के अनुसार "देवनिर्मित" था। धनधान्य से परिपूर्ण इस क्षेत्र में वैदिक ॠचाओं का उद्बोधन भी हुआ। सरस्वती (वर्तमान में घग्घर) नदियों में उत्तम थी तथा गिरि से समुद्र में प्रवेश करती थी। ॠग्वेद (सप्तम मण्डल, २/९५) में कहा गया है-"एकाचतत् सरस्वती नदी नाम शुचिर्यतौ। गिरभ्य: आसमुद्रात।।" सतलज उत्तरी राजस्थान में सरस्वती में समाहित होती थी।
सी.एप. ओल्डन C.F. OLDEN ) ने ऐतिहासिक और भौगोलिक तथ्यों के आधार पर बताया कि घग्घर हकरा नदी के घाट पर ॠग्वेद में बहने वाली नदी सरस्वती 'हृषद्वती' थी। तब सतलज व यमुना नदियाँ अपने वर्तमान पाटों में प्रवाहित न होकर घग्घर व हसरा के पाटों में बहती थीं।
महाभारत काल तक सरस्वती लुप्त हो चुकी थी और १३वीं शती तक सतलज, व्यास में मिल गई थी। पानी की मात्र कम होने से सरस्वती रेतीले भाग में सूख गई थी। ओल्डन महोदय के अनुसार सतलज और यमुना के बीच कई छोटी-बड़ी नदियाँ निकलती हैं। इनमें चौतंग, मारकंडा, सरस्वती आदि थी। ये नदियाँ आज भी वर्षा ॠतु में प्रवाहित होती हैं। राजस्थान के निकट ये नदियाँ निकल कर एक बड़ी नदी घग्घर का रुप ले लेती हैं। आग चलकर यह नदी पाकिस्तान में हकरा, वाहिद, नारा नामों से जानी जाती है। ये नदियाँ आज सूखी हुई हैं - किन्तु इनका मार्ग राजस्थान से लेकर करांची और पूर्व कच्छ की खाड़ी तक देखा जा सकता है।
वाकणकर महाशय के अनुसार सरस्वती नदी के तट पर २०० से अधिक नगर बसे थे, जो हड़प्पाकालीन हैं। इस कारण इसे 'सिंधुघाटी की सभ्यता' के स्थान पर 'सरस्वती नदी की सभ्यता' कहना चाहिए। मूलत: घग्घर-हकरा ही प्राचीन सरस्वती नदी थी जो सतलज और यमुना के संयुक्त गुजरात तरु बहती थी जिसका पाट (चौड़ाई) ब्रह्मपुत्र नदी से बढ़कर ८ कि.मी. था। वाकणकर के अनुसार सरस्वती नदी २ लाख ५० हजार वर्ष पूर्व नागौर, लूनासर, आसियाँ, डीडवाना होते हुए लूणी से मिलती थी जहाँ से वह पूर्व में कच्छ का रण नानूरण जल सरोवर होकर लोथल के निकट संभात की काढ़ी में गिरती थी, किंतु ४०,००० वर्ष पूर्व पहले भूचाल आया जिसके कारण सरस्वती नदी मार्ग परिवर्तन कर घग्घर नदी के मार्ग से होते हुए हनुमानगढ़ और सूरतगढ़ के बहावलपुर क्षेत्र में सिंधु नदी के समानान्तर बहती हुई कच्छ के मैदान में समुद्र से मिल जाती थी। महाभारत काल में कौरव-पाण्डव युद्ध इसी के तट पर लड़ा गया। इसी काल में सरस्वती के विलुप्त होने पर यमुना गंगा में मिलने लगी।

कालीबंगा से प्राप्त प्रागैतिहासिक हड़प्पा (सिंधु घाटी) सभ्यता के स्रोत के रुप में अवशेष :




१९२२ ई. में राखलदास बैनजी एवं दयाराम साहनी के नेतृत्व में मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा (अब पाकिस्तान में लरकाना जिले में स्थित) के उत्पन्न द्वारा हड़प्पा या सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष मिले थे जिनसे ४५०० वर्ष पूर्व की प्राचीन सभ्यता का पता चला था। बाद में इस सभ्यता के लगभग १०० केन्द्रों का पता चला जिनमें राजस्थान का कालीबंगा क्षेत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मोहनजोदड़ो व हड़प्पा के बाद हड़प्पा संस्कृति का कालीबंगा तीसरा बड़ा नगर सिद्ध हुआ है। जिसके एक टीले के उत्खनन द्वारा निम्नांकित अवशेष स्रोत के रुप में मिले हैं जिनकी विशेषताएँ भारतीय सभ्यता के विकास में उनका योगदान स्पष्ट करती हैं -

(क) ताँबे के औज़ार व मूर्तियाँ
कालीबंगा में उत्खन्न से प्राप्त अवशेषों में ताँबे (धातु) से निर्मित औज़ार, हथियार व मूर्तियाँ मिली हैं, जो यह प्रकट करती है कि मानव प्रस्तर युग से ताम्रयुग में प्रवेश कर चुका था।

(ख) अंकित मुहरें
कालीबंगा से सिंधु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता की मिट्टी पर बनी मुहरें मिली हैं, जिन पर वृषभ व अन्य पशुओं के चित्र व र्तृधव लिपि में अंकित लेख है जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। वह लिपि दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी।

(ग) ताँबे या मिट्टी की बनी मूर्तियाँ, पशु-पक्षी व मानव कृतियाँ
मिली हैं जो मोहनजोदड़ो व हड़प्पा के समान हैं। पशुओं में बैल, बंदर व पक्षियों की मूर्तियाँ मिली हैं जो पशु-पालन, व कृषि में बैल का उपयोग किया जाना प्रकट करता है।

(घ) तोल के बाट
पत्थर से बने तोलने के बाट का उपयोग करना मानव सीख गया था।

(च) बर्तन
मिट्टी के विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े बर्तन भी प्राप्त हुए हैं जिन पर चित्रांकन भी किया हुआ है। यह प्रकट करता है कि बर्तन बनाने हेतु 'चारु' का प्रयोग होने लगा था तथा चित्रांकन से कलात्मक प्रवृत्ति व्यक्त करता है।

(छ) आभूषण
अनेक प्रकार के स्री व पुरुषों द्वारा प्रयुक्त होने वाले काँच, सीप, शंख, घोंघों आदि से निर्मित आभूषण भी मिलें हैं जैसे कंगन, चूड़ियाँ आदि।

(ज) नगर नियोजन
मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की भाँति कालीबंगा में भी सूर्य से तपी हुई ईटों से बने मकान, दरवाज़े, चौड़ी सड़कें, कुएँ, नालियाँ आदि पूर्व योजना के अनुसार निर्मित हैं जो तत्कालीन मानव की नगर-नियोजन, सफ़ाई-व्यवस्था, पेयजल व्यवस्था आदि पर प्रकाश डालते हैं।

(झ) कृषि-कार्य संबंधी अवशेष
कालीबंगा से प्राप्त हल से अंकित रेखाएँ भी प्राप्त हुई हैं जो यह सिद्ध करती हैं कि यहाँ का मानव कृषि कार्य भी करता था। इसकी पुष्टि बैल व अन्य पालतू पशुओं की मूर्तियों से भी होती हैं। बैल व बारहसिंघ की अस्थियों भी प्राप्त हुई हैं। बैलगाड़ी के खिलौने भी मिले हैं।

(ट) खिलौने
धातु व मिट्टी के खिलौने भी मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की भाँति यहाँ से प्राप्त हुए हैं जो बच्चों के मनोरंजन के प्रति आकर्षण प्रकट करते हैं।

(ठ) धर्म संबंधी अवशेष
मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की भाँति कालीबंगा से मातृदेवी की मूर्ति नहीं मिली है। इसके स्थान पर आयाताकार वर्तुलाकार व अंडाकार अग्निवेदियाँ तथा बैल, बारसिंघे की हड्डियाँ यह प्रकट करती है कि यहाँ का मानव यज्ञ में पशु-बलि भी देता था।

(ड) दुर्ग (किला)
सिंधु घाटी सभ्यता के अन्य केन्द्रो से भिन्न कालीबंगा में एक विशाल दुर्ग के अवशेष भी मिले हैं जो यहाँ के मानव द्वारा अपनाए गए सुरक्षात्मक उपायों का प्रमाण है।

उपर्युक्त अवशेषों के स्रोतों के रुप में कालीबंगा व सिंधु-घाटी सभ्यता में अपना विशिष्ट स्थान है। कुछ पुरातत्वेत्ता तो सरस्वती तट पर बसे होने के कारण कालीबंगा सभ्यता को 'सरस्वती घाटी सभ्यता' कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं क्योंकि यहाँ का मानव प्रागैतिहासिक काल में हड़प्पा सभ्यता से भी कई दृष्टि से उन्नत था। खेती करने का ज्ञान होना, दुर्ग बना कर सुरक्षा करना, यज्ञ करना आदि इसी उन्नत दशा के सूचक हैं। वस्तुत: कालीबंगा का प्रागैतिहासिक सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में यथेष्ट योगदान रहा है।

आहड़ का सांस्कृतिक महत्व

आहड़कालीन संस्कृति की स्थिति
राजस्थान में प्राचीन मेवाड़ क्षेत्र का पुरातत्व की दृष्टि से अलग ही महत्व है। इस क्षेत्र की नदियों के तटों पर पाषाण कालीन (प्रस्तर युग) संस्कृतियों के अवशेष के अतिरिक्त अनेक स्थानों पर आहड़कालीन संस्कृतियों के अवशेष भी पाए गए हैं जिनकी पृथक विशेषता है। प्राचीन मेवाड़ में आहड़ (उदयपुर) के समान सभ्यता का विकास मुख्यत: बनास और उसकी सहायक नदियों आहड़, बाग, पिण्ड, बेड़च, गम्भीरी, कोठारी, मानसी, खारी व अन्य छोटी नदियों के किनारे हुआ है इसलिए पुरातत्ववेत्ता इस सभ्यता को बनास घाटी की सभ्यता के नाम से भी पुकारते हैं।
आहड़ को प्राचीन काल में 'ताम्रवती' (ताँबावती) नगरी के नाम से भी पुकारा जाता रहा है। इसका कारण यहाँ हुए ताम्र उपकरणों का विकास ही है। अन्य स्थानों पर भी जहाँ ताँबा पाया गया है। इस संस्कृति के अवशेष मिल हैं। जिन स्थानों पर इस सभ्यता के अवशेष मिले हैं वे 'धूल कोट' के रुप में थे जिन्होंने लम्बे समय तक सभ्यता के अवशेषों को अपने गर्भ में सुरक्षित सँजोए रहता है।
पुरातत्ववेत्ता हंसमुख धीरजलाल सांकलिया महोदय के अनुसार तीन ओर से अरावली पर्वतमालाओं से राजस्थान का यह भाग बनास और उसकी सहायक नदियों तथा नालों के जल से पूरित वन-सम्पदा एवं खनिज सम्पदा से भरपूर, उत्तम वर्षा व संतुलित जलवायु से युक्त होने के कारण प्राचीनकाल से ही प्रागैतिहासिक मानव का आवास-स्थल रहा है। उत्खन्न कार्य आहड़ में योजनाबद्ध रुप से १९५२-१९५६ के मध्य राजस्थान के राजकीय संग्रहालय एवं पुरातत्व विभाग के तत्कालीन अधीरक्षक रत्नचंद अग्रवाल द्वारा करवाया गया था।

आहड़ सभ्यता के केन्द्र व काल
प्रारम्भ में इस स्थान पर पाए गए अवशेषों से आधार पर कार्बन - १४ को आधार मानते हुए इस सभ्यता का काल ईसा से पूर्व १२०० से १८०० वर्ष माना गया। १९५६ के बाद भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने बनास तथा उसकी सहायक नदियों के किनारे सर्वेक्षण कार्य प्रारम्भ किया जिसके फलस्वरुप उदयपुर, चितौड़गढ़, भीलवाड़ा, अजमेर तथा अन्य ज़िलों में भी लगभग ४० से अधिक स्थानों पर आहड़ के समकालीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए।
१९६० में बी.बी. लाल ने उदयपुर के दक्षिणोत्तर में ७२ कि.मी. दूर बनास के किनारे 'गिलूंड' में आहड़ समकालीन संस्कृति के अवशेषों को खोज निकाला। बनास धारी में आहड़कालीन संस्कृति के अवशेषों के एक के बाद एक निरन्तर मिलते रहने से प्रेरित होकर १९६८ में सांगलिया महोदय के नेतृत्व में विशाल पैमाने पर सामूहिक खोज का आयोजन किया गया। इस खोज हल में राजस्थान पुरातत्व विभाग के तत्कालीन निरक्षक एस.पी. श्रीवास्तव, आॅस्ट्रेलिया के मेलबोर्न विश्वविद्यालय के विलियम कुलीसेन, काजी, निक्सन तथा राजस्थान पुरातत्व विभाग के चक्रवर्ती विजयकुमार और सम्मिलित थे। इस दल ने अपने शोध-सर्वेक्षण से सिद्ध किया कि आहड़ कालीन संस्कृति के अवशेष राजस्थान के उदयपुर, चितौड़गढ़, भीलवाड़ा, अजमेर, टौंक और जयपुर ज़िले में तो उपलब्ध है ही, साथ ही इसी के आधार पर राजस्थान के पुरातत्व विभाग के कोटपूतली, नीम का थाना व गणेश्वर में उत्खनन कार्य कराया जहाँ O.C.P.B.R.P और N.B.P. चित्रित लाल व काले मटभाण्डों, सफ़ेद माँडने व चित्रित ग्रेवियर प्राप्त हुए हैं। १९७९ चितौड़गढ़ राजकीय संग्रहालय के परीक्षक कन्हैयालाल मीणा ने पुन: बनास व उसकी सहायक नदियों के किनारे पर आहड़कालीन संस्कृति का शोध-सर्वेक्षण किया जिससे इन शोध-केन्द्रों की संख्या लगभग ६० हो गई है। मीणा को सर्वेक्षण में चित्तौड़गढ़ के 'पिण्ड' ग्राम में 'ताँबे' की प्राचीन कुल्हाड़ी मिली। भीलवाड़ा में भी सर्वेक्षण किया गया। इन केन्द्रों से विभिन्न प्रकार के अनेक अवशेष उपलब्ध हुए है।




स्रोत-सामग्री अवशेषों के आधार पर आहड़-संस्कृति की विशेषताएँ :
उत्खनन स्थल
आहड़, उदयपुर के निकट वह कस्बा है जहाँ पर लगभग ४,००० वर्ष पूर्व प्रस्तर युगीन-मानव के रहने के तथ्य मिले हैं। आहड़ के दो टीलों की डॉ. सांकलिया (पूना विश्वविद्यालय) तथा राजस्थान सरकार द्वारा खुदाई की गई थी। आहड़ का एक अन्य नाम 'ताम्रवती' (ताँबानगरी) भी था जो यहाँ ताँबे के औज़ारों के बनने का केन्द्र प्रमाणित होता है। १०वीं - ११वीं शताब्दी में इसे 'आधारपुर' या 'आधारदुर्ग' के नाम से जाना जाता था जिसे स्थानीय भाषा में 'धूलकोट' कहा जाता था। ये 'धूलकोट' प्राचीन नगरी के अवशेषों को अपने गर्भ में छिपाए हुए थे। बड़ा 'धूलकोट' १५०० फ़िट लम्बा और ४५ फ़िट ऊँचा है जिससे खाइयाँ खोद कर कई अवशेष प्राप्त हुए हैं तथा बस्तियों के कई स्तर मिलें हैं।

बस्तियों के स्तर
पहले स्तर में कुछ मिट्टी की दीवारें मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े तथा पत्थर के ढेर प्राप्त हुए हैं। दूसरे स्तर की बस्ती से जो प्रथम स्तर पर ही बसी है, कुछ कूट कर तैयार की गई है दीवारें और मिट्टी के बर्तन के टुकड़े मिले हैं। तीसरी बस्ती में कुछ चित्रित बर्तन और उनका घरों में प्रयोग होना प्रमाणित होता है। चौथी बस्ती के स्तर में एक बर्तन से दो ताँबे की कुल्हाड़ियाँ मिली हैं। इस प्रकार इन स्तरों पर उत्तरोत्तर चार और बस्तियों के स्तर मिले हैं। जिनमें मकान बनाने की पद्धति, बर्तन बनाने की विधि आदि में परिवर्तन दिखाई देता है। ये सभी स्तर एक-दूसरे स्तर पर बनते और बिगड़ते गए जो हमें आहड़ की ऐतिहासिकता समझने में बड़े सहायक हैं। ये समूची बस्तियाँ 'आहड़-नदी की सभ्यता' कही जाती हैं।

विभिन्न बस्तियों के अवशेष
आहड़ की खुदाई में कई घरों की स्थिति का पता चला है। सबसे प्रथम बस्ती नदी के ऊपरी भाग की भूमि पर बसी थी जिस पर उत्तरोत्तर बस्तियाँ बनती चली गई। यहाँ के के मुलायम काले पत्थरों से मकान बनाए गए थे। नदी के तट सेलाई गई मिट्टी से मकानों को बनाया जाता था। यहाँ बड़े कमरों की लम्बाई - चौड़ाई ३३ न् २० फ़िट तक चौड़ी होती थी। इनकी छतें बाँसे से ढकी जाती थीं। मकानों के फ़र्श को काली मिट्टी के साथ नदी का बालू को मिलाकर बनाया जाता था। कुछ मकानों में २ या ३ चूहे और एक मकान में तो ६ चूहों की संख्या भी देखी गई। इससे पता चलता है कि आहड़ में बड़े भाण्डें भी गड़े हुए मिले हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में 'गोरी' या 'कोठे' कहा जाता है। इस संख्या से प्राचीन आहड़ की समृद्धि भी प्रमाणित होती है।
आहड़ के द्वितीय काल की खुदाई में ताँबे की मूद्राएँ और तीन मुहरें प्राप्त हुई हैं। इनमें कुछ मुद्राएँ अस्पष्ट हैं किंतु एक मुद्रा में त्रिशूल खुदा हुआ है और दूसरी में खड़ा हुआ 'अपोलो' है जिसके हाथों में तीर तथा तरकस हैं। इस मुद्रा के किनारे यूनानी भाषा में कुछ लिखा हुआ है जिससे इसका काल दूसरी सदी ईसा पूर्व आँका जाता है। कई मकानों की रक्षार्थ स्फटिक पत्थरों के बड़े टुकड़े काम में लाए जाते थे और उन्हीं से पत्थर के औज़ार बनाए जाते थे। यहाँ की सभ्यता के प्रथम चरण से सम्बन्धित प्रस्तर के छीलने, छेद करने तथा काटने के औज़ार पाए कुछ ऐसे औज़ार चतुष्कोण, गोल व बेडौल आकृति के मिले हैं जो आकार में छोटे हैं किन्तु जिनके एक या दो किनारे बड़े तेज दिखाई देते हैं।

औज़ार वा आभूषण
चारों ओर उभरे तथा पैने किनारों के उपकरण भी यहाँ मिले हैं जो चमड़े या हड्डी छीलने के प्रयोग में लाए जाते होगें। इसके अतिरिक्त यहाँ से प्राप्त अवशेषों में पत्थरों के गोले शिलाएँ, गदाएँ, ओखलियाँ आदि भी मिले हैं। मूल्यवान पत्थरों जैसे गोमेद, स्फटिक आदि से आहड़ निवासी गोल मणियाँ बनाते थे। ऐसी मणियों के साथ काँच, पक्की-मिट्टी, सीप और हड्डी के गोलाकार छेद वाले अंडे भी लाए जाते थे। इनको सुरक्षित करने हेतु मिट्टी के बर्तनों या टोकरियों का प्रयोग किया जाता था। इनका आभूषण बनाने में उपयोग किया जाता था तथा ताबीज़ की तरह लटकाने के लिए किया जाता था। इनके ऊपर सजावट का काम भी किया जाता था। आधार में ये गोल, चपटे, चतुष्कोण व षट्कोण होते थे। ये अवशेष आहड़ सभ्यता के दूसरे चरण की ज्ञात होती है।

मूर्तियाँ व पूजा-सामग्री
अन्य अवशेषों में चमड़े के टुकड़े, मिट्टी के पूजा-पात्र। चूड़ियाँ तथा खिलौने हैं। पूजा-पात्रों के किनारे ऊँचे व नीचे होने से ज्ञात होता है कि इनमें दीपक रखने की व्यवस्था की जाती थी। खिलौनों में बैल, हाथी, चक्र आदि प्रमुख है। ये अवशेष आहड़-सभ्यता से समृद्ध काल १८००ई. से पू. से १२०० ई.पू. से संबद्ध है। इस युग का मानव कच्ची मिट्टी के ढलवाँ छतों वाले मकान बना कर रहता था तथा वह मांसाहारी था किंतु आगे चलकर वह गेहूँ का आहार करने लगा था। इस काल में लौह धातु का प्रयोग किया जाने लगा था।

कृषि व बर्तन बनाने की कला
आहड़ सभ्यता के लोग कृषि से परिचित थे। यहाँ से मिलने वाले बड़े-बड़े भाण्डे तथा अन्न पीसने के पत्थर प्रमाणित करते हैं कि ये लोग अन्न उत्पादन करते थे और उसको पका कर खाते थे। एक बड़ कमरे में जो बड़ी-बड़ी भट्टियाँ मिली हैं वह सामूहिक भोज की पुष्टि करती हैं। इस भाग में वर्षा अधिक होने और नदी पास में होने से सिंचाई की सुविधा यह सिद्ध करती है कि वहाँ भोजन सामग्री प्रभूत मात्रा में प्राप्त रही होगी। आहड़ के निवासियों को बर्तन बनाने की कला आती थी। यहाँ से मिट्टी की कटोरियाँ, रकबियाँ, तश्तरियाँ, प्याले, मटके, कलश आदि बड़ी संख्या में मिलें हैं। साधारणतया इन बर्तनों को चाक से बनाते थे जिन पर चित्रांकन उभरी हुई मिट्टी की रेखा से किया जाता था और उसे 'ग्लेज' करके चमकीला बना दिया जाता था। बैठक वाली तश्तरियाँ और पूजा में काम आने वाली धूपदानियाँ ईरानियन शैली की बनती थी जिनमें हमें आहड़ियों का संबंध ईरानी गतिविधि से होने की सम्भावना प्रकट होती है।

मृतक का संस्कार
मृतक संस्कार के संबंध में आहड़ के उत्खन्न के ऊपरी स्तर से पता चलता है कि पहली व दूसरी शताब्दी में मृतक को गाड़ा जाता था। मृतक के अस्थि पंजरों से ज्ञात होता है कि उसे आभूषणों सहित दफ़नाया जाता था। उसका सिर उत्तर की ओर व पैर दक्षिण में रखे जाते थे।
उपर्युक्त अवशेष रुपी स्रोतों से प्रागैतिहासिक काल की सभ्यता एवं संस्कृति की भाँति आहड़ संस्कृति भी प्रागैतिहासिक कालीन सांस्कृतिक विकास की महत्वपूर्ण कड़ियाँ सिद्ध होती हैं जिनसे अनेक नवीन जानकारियाँ मिलती हैं।

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